शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

बाघ की खाल

तो हर प्रतियोगिता परिक्षा देने के बाद,
नौकरी खोजता हुआ पहुँच गया विचित्र शहर में,
जहाँ हर घर की अलगनी पर सूख रहे व्याघ्रचर्म,
मैं हुआ हतप्रभ की यह कैसा सहर है,
जहाँ के लोगों को अपनी ही चमरी पर नहीं है विश्वास,
यह अभिनय प्रवीण लोगों का तो सहर नहीं है,
एक कार्यालय में संपर्क कराने पर,
मझे भी मिल गयी नौकरी,
भार दिया गया मुझे सच को झूठ
और झूठ को सच में बदलने का;

इससे पहले मैंने मिटटी तेल को पेट्रोल में,
पानी को रसोई गैस में;
कंकर को गेहूं में बदलने
जैसे दंधे देखे-सुने थे;
अजनबी था यह नया काम मेरे लिए,
आरम्भ में मुझे मेरे सहकर्मी बहुत-ही अच्छे लगे,
हमेशा हंसकर बात करनेवाले,
तपाक से मिलनेवाले;
सबने पहन रखे थे व्याघ्रचर्म,
बहुत करा था वहाँ का ड्रेस-कोड;
कुछ दिन बाद एक साथी से इस ड्रेस का राज
पूछने पर उसने बताया,
की यह हमें आम आदमी से अलग तो करता
ही है;
यह दिखाता है की हम,
किसी से नहीं डरते,
न ही सौदेबाजी करते हैं;
साथ ही छिप जाती हैं इसके पीछे,
कर्मियों की बाहर से ही दिख जानेवाली हड्डियां;
और वे कुपोषित की जगह तंदरुस्त दिखाते हैं,
और सबसे बरी बात की,
किसी की खाल गिरगिट जैसी रंग बदलेवाली है;
तो किसी की मगरमच्छ जैसी मोटी,
किसी की भेरिये या गीदर या लोमारी जैसी;
यह खाल सब कुछ छिपा जाती
है अपने भीतर.

वहाँ हँसाने-मुस्कुराने पर थी रोक,
था डर की कहीं लोग यह न
समझ लें की हम कामचोर हैं,
और गंभीरता से काम नहीं करते;
इसलिए एक उदासी चहरे पर ओढे रखना
नौकरी बचाए रखने की अनिवार्य शर्त थी,
साथ की चमचई की अतिरिक्त योग्यता
का अपना अलग ही महत्व था.

सब कुछ सही-सही चल रहा था,
सिर्फ़ पगार बहुत कम थी;
और लोग थे जैसा की
मुझे संदेह था अति
अभिनय कुशल,
इतने की बोल्लीवूद तो क्या
होल्लेय्वूद्वाले भी शरमा जाएँ;
इतना ही नहीं वे अच्छे राजनीतिज्ञ भी थे,
हर आदमी अपने-आपमें एक मुकम्मल गुट था;
दिन-रात राजनीति की दांव-पेंच झेलता,
मैंने पाया एक दिन की मैं
बाहर कर दिया गया हूँ;
क्योंकि मैं न तो गुट ही बना ही पाया,
और न ही नियमानुसार गंभीर
रहकर काम ही कर सका;
चमचई तो जैसे मेरे खून
में ही नहीं था,
सबसे बुरी और बरी बात तो यह थी
की मैं नहीं पहना करता था
बाघ की खाल;
मुझे भरोसा था अपने
आदमजात की खाल पर.

अब आप पूछेंगे भिया उस
सहर का नाम भी तो बता दीजिये,
तो भिया मेरा नाम जाहिर न कराने की शर्त पर
मैं बता रहा हूँ;
उस सहर का नाम है........
पत्रकारिता और वह बाघ
की खाल है जनसेवा का ढोंग.

1 टिप्पणी:

dharmendra ने कहा…

excellent. parat dar parat hai har ek chehra pyaj ke manind, bahut dine se koi aadmi nahi dekha.