शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

जाति न पूछो बुद्धिजीवियों की

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ यानि कि होश संभाला बराबर एक शब्द से पाला पड़ने लगा. न तो आज तक मैं उसका अर्थ ही समझ पाया हूँ और न ही परिभाषा जान पाया हूँ. भाइयों एवं बहनों वो शब्द था और है-बुद्धिजीवी. जहाँ तक शब्दार्थ की बात है तो इसका मतलब होता है-बुद्धि पर जीनेवाला यानि यानि बुद्धि की कमाई खानेवाला. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि दुनिया में बुद्धिजीवियों का दायरा काफी बड़ा है. इसके अन्तर्गत वे सभी आ जाते है जो मेहनत का काम नहीं करते फ़िर भी कमा लेते हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि शारीरिक मेहनत में लगे लोग बुद्धि से काम नहीं लेते. हाँ उस पर पूरी तरह निर्भर नहीं होते. लेकिन पत्रकारिता जगत में बुद्धिजीवी वे हैं जिनके आलेख या फीचर लगातार अख़बारों में छपते हों या फ़िर रेडियो-टी.वी. पर राय देने के लिए बुलाये जाते हों. बुद्धिजीवियों की कोई जाति नहीं होती उनकी अपनी अलग ही जाति है. शायद यही कारण है कि उन्हें पाला बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती. सरकार बदली नहीं कि वे समाजवादी से मध्यमार्गी या हिंदूवादी बन जाते है. ऐसे ही लोगों को कभी महाकवि मुक्तिबोध ने शोषकों के साथ गर्भनालबद्ध कहा था. जिस देश में ऐसे सुविधाभोगी सत्ता से चिपके हुए बुद्धिजीवी मौजूद हों वहां न तो कोई आन्दोलन ही खड़ा करना संभव हो सकता है और न ही परिवर्तन आना या लाना ही आसन है.दुर्भाग्य से भारत में अभी ऐसी ही स्थिति है.मैं युवाओं से निवेदन करता हूँ कि वे इन यथास्थितिवादी बुद्धिजीवियों से सावधान रहें ताकि कालांतर में उन्हें खुद को ठगा हुआ महसूस न करना पड़े.

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