शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

अंधेरे में डूबा एक शहर

कहने को तो शहर लेकिन शहरी सुविधाएँ नदारद। टूटी-फूटी और पगडण्डी जैसी पतली सड़कें और बिजली उसका तो यहाँ नाम लेना भी खतरे से खाली नहीं है। बिजली नहीं रहने से खफा जनता अगर हत्थे से उखड़ गयी तो आपको अप्रत्याशित रूप से हाजीपुर सदर अस्पताल की यात्रा करनी पड़ सकती है जो अराजकता के मामले में किसी भी सरकारी संस्थान से सहज ही टक्कर से सकता है। त्रेता युग के त्रिशंकु का नाम आपने सुना होगा। वे विश्वामित्र की कृपा से धरती और स्वर्ग के बीच में लटक गए थे। हमारा महान ऐतिहासिक शहर हाजीपुर भी पटना और मुजफ्फरपुर के बीच लटका हुआ है। सारी योजनायें या तो पटना के लिए बनती हैं या फ़िर मुजफ्फरपुर के लिए, हाजीपुर की तरफ़ निगाहें ही नहीं जाती। मानो दो-दो चिरागों के तले पसरे अंधेरे में खो जाना ही इसकी नियति है। कहने को तो राज्य के बिजली मंत्री वयोवृद्ध रामाश्रय बाबू वैशाली जिले जिसका मुख्यालय हाजीपुर है के प्रभारी मंत्री हैं और इस नाते उनका हाजीपुर आगमन बराबर होता रहता है। जब भी वे यहाँ पधारते हैं तो सिधारने के पहले लगभग हर बार जिले का बिजली का कोटा बढ़ाने का आश्वासन अपने मुखचन्द्र से दे जाते हैं लेकिन स्थिति ज्यों कि त्यों है। अब उनके आश्वासन भी अपना असर खोते जा रहे हैं। इस बार की जानलेवा गर्मी में जब मैं बाहर होता तो कड़ी धूप से भागा-भागा घर आता इस उम्मीद में कि कहीं मंत्रीजी के आश्वासन ने अपना रंग दिखा ही दिया हो और भरी दोपहरी में प्यारी-चंचला बिजली रानी से भेंट हो ही जाए। लेकिन घर में आते ही पाता कि बिजली रानी का तो कहीं अता-पता ही नहीं है तब ऐसा लगता कि जैसे किसी ने मेरे तपते जिस्म से बेवफा बिजली रानी का नंगा तार सटा दिया हो। अब जाड़ा आनेवाला है और बिजली बिना जाड़े की कल्पना मात्र से ही मुझे कंपकंपी हो रही है। जब हाजीपुर को पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय स्थापित हुआ तो एक उम्मीद बंधी थी कि अब हाजीपुर के दिन बहुरेंगे लेकिन हुआ कुछ नहीं। वास्तव में बिहार में इतनी जड़ता आ चुकी है कि परिवर्तन की तमाम कोशिशें दम तोड़ जाती हैं। यह जड़ता यहाँ की सरकार में भी समायी हुई है. वैसे भी लोकतंत्र में अलोकप्रिय निर्णय लेना आसान नहीं होता। आधुनिक आन्ध्र के निर्माता चन्द्रबाबू नायडू का हश्र सबके सामने है। नीतीशजी की सरकार भी खतरा मोल लेना नहीं चाहती। यहाँ तक कि बिजली बोर्ड का विभाजन और निजीकरण करने की भी वह कोशिश नहीं कर पाई। इस तरह के डरपोक लोग न तो अच्छे शासक ही हो सकते हैं और न ही युगपुरुष। मरीज को कभी-कभी कड़वी दवा भी देनी पड़ती है और इस तथ्य से नीतीशजी से ज्यादा अच्छी तरह से शायद ही कोई और परिचित हो, आखिर वैद्यक उनका खानदानी पेशा जो ठहरा।

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