शनिवार, 21 नवंबर 2009

सुशासन के नाम पर


कभी फ्रांस की राज्यक्रांति के बाद हुए भीषण रक्तपात से विचलित होकर वहां के लेखकों-दार्शनिकों ने भींगे स्वर में कहा था कि हे माता प्रजातंत्र हमें माफ़ करना क्योंकि तेरे नाम पर न जाने क्या-क्या पाप किये जा रहे हैं.आजकल बिहार में भी सुशासन के नाम पर क्या नहीं हो रहा है.कभी कुसहा में कोसी तटबंध को सुशासन के नाम पर टूटने दिया जाता है तो कभी थाने में नशे में धुत्त दरोगा पत्रकार को ही पीट डालता है.कभी उसी सरकार को हम ५० पत्रकारों को सरकारी आवास देने की घोषणा करते देख सकते हैं.कभी मुखियों को शिक्षक बहाली में मुख्य भूमिका दे दी जाती है तो कभी उन्ही शिक्षकों को मेधा परीक्षा देने के लिए बाध्य कर दिया जाता है.कभी तो कहा जाता है कि परीक्षा में फेल होनेवाले शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया जायेगा तो कभी कहा जाता है कि निश्चिन्त होकर परीक्षा दीजिये आपकी नौकरी सुरक्षित है.दुनिया में परीक्षाओं के इतिहास में पहली बार ९९.५ प्रतिशत परीक्षार्थी उत्तीर्ण घोषित किये जाते हैं. सब कुछ सुशासन के नाम पर.सुशासन के नाम पर अति अयोग्य शिक्षकों को योग्यता का प्रमाणपत्र दिया जाता है. कभी सूचना के अधिकार के पालन में कथित सफलता के नाम पर जमकर ढोल पीटा जाता है तो अगले ही पल सूचना के अधिकार अधिनियम में बदलाव कर इसकी हत्या ही कर दी जाती है.शायद आर.टी.आई. आवेदनकर्ताओं को प्रताड़ित करने में मिली अपार सफलता को सरकार पचा नहीं पाई. कभी कोशी की बाढ़ में अपना परिजन खो देनेवालों को मुआवजे की घोषणा की जाती है तो कभी कहा जाता है कि डूबने-बह जानेवालों की लाश दिखाओ तभी मुआवजा मिलेगा.सब कुछ सुशासन के नाम पर.कभी सरकार के कल्याण मंत्रालय का प्रधान सचिव लोगों को चूहे खाने के लिए प्रोत्साहित करता है तो कभी किन्नरों को प्रसूति गृह की सुरक्षा के लिए नियुक्त करने का प्रस्ताव रखता है.यूं बहुत पहले पितामह मार्क्स ने सत्ता की परिभाषा करते हुए कहा था कि जिस दिन राज्य समाप्त हो जाएगा, वही असली सत्ता होगी। मार्क्स का यह सपना बिहार न जाने कब से पूरा कर रहा है। बिहार में राज्य समाप्त हो चुका है–सिर्फ राजा नीतीश कुमार बचे हैं।सुशासन के राष्ट्रीय प्रतीक बिहार के बारे में पटना हाईकोर्ट ने कहा है कि बिहार में सत्ता नाम की कोई चीज ही नहीं है। अब यहां पर नीतीश कुमार की सुशासनी सरकार एक समिति बना सकती है कि सत्ता की परिभाषा क्या है।भ्रष्टाचार बिहार में अंतरराष्ट्रीय उद्योग भी है। अच्छा कदाचारी वही माना जाता है जो नकल कर ले और किसी को पता भी न चले। अच्छे भ्रष्टाचारी की भी यही पहचान होती है।यह भी खबर आई है कि बिहार के भिखारी बिहार सरकार से ज्यादा बेहतर ढंग से अपना काम काज करते हैं। सुशासन सरकार के बनने के बाद ही बिहार के भिखारियों ने 2006 में ही भिखमंगा समाज बना लिया था।इनकी कमाई बिहार के दैनिक वेतन भोगी मजदूरों से भी ज्यादा है। बिहार में दैनिक वेतन भोगी को 81 रूपए रोज मिलता है। जबकि भिखारी डेढ़–दो सौ रुपए रोज कमाता है। आशा की जा रही है कि बिहार सरकार को जब केंद्र सरकार से बिजली और धन की भीख मांगने से फुरसत मिल जाएगी तो वह भिखारी कल्याण आयोग का गठन कर ही लेगी।कभी सुशासन कहता है कि जे.पी. आन्दोलन में भाग लेनेवालों को पेंशन दी जाएगी तो कभी कहा जाता है कि पेंशन सिर्फ उन्हें ही दी जायेगी जिन्होंने कम-से-कम एक महीना जेल में बिताया हो.खुद को भ्रष्टाचार का जानी-दुश्मन कहनेवाली सरकार राहत घोटाले के आरोपी गौतम गोस्वामी के इलाज का खर्च उठाती पाई जाती है.मुख्यमंत्री अपने श्रीमुख से निर्भीक पत्रकारिता का गुणगान करते हैं तो दूसरी ओर बिहार सरकार का जन संपर्क विभाग अपने वेबसाइट पर चेतावनी देता है कि कोई भी समाचार पत्र-पत्रिका, जो कि स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हैं, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा.साथ ही कहता है कि किसी मीडिया संस्थान का काम अगर राज्य हित में नहीं है तो उसे दिए जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं.उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक्त बाहर किया जा सकता है. अब सवाल उठता है कि मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में है या नहीं ये कौन तय करेगा? जन संपर्क विभाग में तैनात सरकारी बाबू या भ्रष्टाचार में लिप्त नेता?कभी सरकार कहती है कि नवनियुक्त शिक्षकों को पेंशन और अनुकम्पा लाभ नहीं मिलेंगे तो कभी आनन-फानन में सरकार घोषणा करती है कि ये दोनों सुविधाएँ शिक्षकों को दी जाएँगी.बंटाईदारी कानून पर तो सुशासन की स्थिति अजीबोगरीब है. कभी सरकार कहती है कानून लागू होगा तो कभी कहती है नहीं होगा.सरकार के मुखिया जब-तब विकास यात्रा पर निकलते हैं.गेहूं कटवाकर गाँव में शिविर लगवाते हैं. गाँव में रूकते हैं. कैबिनेट की मीटिंग करते हैं.थोक के भाव में शिलान्यास करते हैं.लाखों रूपये इन सब ताम-झाम में खर्च किये जाते हैं.पर काम शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ता.क्षुब्ध होकर जनता शिलान्यास का शिला-पट्ट ही उखाड़ फेंकती है.सुशासन केंद्र से सूखा के नाम पर १०१५२ करोड़ रूपए की मांग करता है और एक सप्ताह बीतते-बीतते इसे संशोधित कर २३ हजार करोड़ माँगा जाता है.और यह सब होता है सुशासन के नाम पर.दस साल पहले साइकिल पर चलनेवाला मुखिया अब बोलेरो और स्कॉर्पियो पर चल रहा है लेकिन सरकार कान में तेल डाले सोई रहती है.पैसा दे दिया न भाई अब सुशासन कहाँ तक देखें कि पैसा किस तरह खर्च किया जा रहा है. मार्च से पहले सब खर्च हो जाना चाहिए.फंड लैप्स हुआ तो खैर नहीं चाहे पूरा पैसा सरकार के खाते से निकलकर मुखियाजी के खाते में ही क्यों न पहुँच जाए.

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