शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

मर्यादा और युगधर्म


मुहब्बत के बारे में किसी शायर ने क्या खूब कहा है-इस लफ्ज मुहब्बत का इतना-सा फ़साना है, सिमटे तो दिले आशिक फैले तो जमाना है.कुछ  ऐसी  ही  बातें  मर्यादा  के  बारे  में  भी  कही  जा  सकती  हैं. मर्यादा का प्रत्येक युग में महत्व रहा है  भले ही उसकी सीमाएं युगधर्मानुसार बदलती रही हैं .रामायण काल में विष्णु का अवतार माने जानेवाले राम मर्यादा के प्रतीक भी  थे, मर्यादा पुरुषोत्तम. वहीं महाभारत काल में श्रीकृष्ण का व्यवहार तत्कालीन युगधर्म के अनुरूप परिवर्तित हो गया है. हालांकि  यहाँ भी महात्मा भीष्म मर्यादामूर्ति हैं .समय के साथ उस समय में जीनेवाले लोग भी बदल जाते हैं. रावण हालांकि राक्षस था फ़िर भी उसने कभी सीता के साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया जबकि महाभारत काल में मानव होते हुए भी दुर्योधन अपनी ही भाभी का भरी सभा में चीरहरण करवाता है. दोनों कालों के युगधर्म में कितना अंतर है. एक काल में राक्षस भी मर्यादित और दूसरे में मानव भी अमर्यादित. अब गाँधी और लालू-नीतीश को लें. गाँधी का युग १०० साल पहले का था. आज के समय में हम गांधी को सफलता मिलने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. आज जो नेता उपलब्ध हैं जनता को उनमें से ही चुनना पड़ेगा. हाँ आज महात्मा भीष्म नहीं हो सकते ऐसा भी नहीं है लेकिन अगर वे आज होते भी तो जितने असहाय वे महाभारत काल में थे उससे भी ज्यादा असहाय होते, क्योंकि आज एक दुर्योधन से उन्हें नहीं निबटना पड़ता बल्कि आज तो दुर्योधनों और शकुनियों का ही बहुमत है. आज दिखावे का जमाना है. गेरुआधारी लोग भी आज दिखावा करने में लगे हैं. उनकी कथनी और करनी में भी एकरूपता नहीं है. दिखावा का तो मतलब ही होता है होने और दिखने में अंतर का होना. खूब बेईमानी करो और मंदिर में घंटा डोलाकर धर्मात्मा भी दिखो. यह है हमारा आज का युग धर्मं. आगे तो यह संकोच भी समाप्त हो जानेवाला है. फ़िर आप देखेंगे वासना का अनावृत नंगा रूप. आखिर यही सबकुछ तो आनेवाले युग का युगधर्म होने जा रहा है. फ़िर भी मर्यादा का हर युग में महत्व रहेगा; हाँ उसकी परिभाषाएं बदलती रहेंगी. तो क्या कर्मफल के सिद्धांतानुसार विधाता भी अपनी कसौटी बदलता रहेगा? नहीं श्रीमान जैसा करियेगा वैसा ही भरियेगा. हाँ, फलप्राप्ति का स्वरुप भले ही बदल जाये. नोबेल विजेता क्विस्त की कहानी नरक की ओर जानेवाली लिफ्ट के कथानक की तरह हो सकता है की शारीरिक के बजाये दंडस्वरूप मानसिक कष्ट हम ज्यादा मिलता हुआ देखें. यह सिर्फ कई संभावनाओं में से एक सम्भावना मात्र है. विधाता क्या सोंच रहा है कोई नहीं जानता-तेरे मन कछु और है कर्त्ता के कछु और.

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