बुधवार, 20 जनवरी 2010

विकास यात्रा या पर्यटन


लोकतंत्र की जन्मभूमि वैशाली में चार दिन बिताकर बिहार के मुख्यमंत्री वापस पाटलिपुत्र चले गए और फ़िर से सबकुछ पहले जैसा हो गया.ठीक उसी तरह जैसे पानी में ढेला फेंकने पर उत्पन्न विक्षोभ थोड़ी देर में ही शांत हो जाया करते हैं.इस बीच उन्होंने वाल्मीकि रामायण में श्वेतपुर नाम से उल्लेखित चेचर के ऐतिहासिक मंदिर में पूजा-अर्चना की, बरेला चौर में (जिसे वे लोग झील भी कह लेते हैं जिन्हें यह मालूम नहीं है कि कमोबेश पूरा उत्तर बिहार ही कुछ महीने के लिए झील बन जाता है.) नौका विहार किया और जाने से पहले अनुशासित होकर पंक्तिबद्ध होकर विकास की राह में उपेक्षित, ठगी-सी खड़ी जनता-जनार्दन की समस्याओं को सुना वो भी अपने तरीके से यानि जनता दरबार लगाकर.अब वैशाली की जनता की कितनी समस्याओं को नीतीश दूर कर पाते हैं यह तो उनकी गंभीरता पर निर्भर करता है.अगर नेताओं के सिर्फ दौरा-यात्रा करने से विकास हो जाता तो बिहार की सड़कें कोलतार और सीमेंट की नहीं बल्कि चांदी की होती.पिछले साल बिहार की जिन-जिन जगहों पर नीतीशजी का विकास दौरा हुआ था और एक साथ दर्जनों शिलान्यास किये गए थे कहीं भी काम शुरू तक नहीं हुआ है न ही जनता दरबार में उठी किसी समस्या को ही दूर किया जा सका है.अगर वैशाली के साथ भी ऐसा ही हुआ है जिसकी पूरी सम्भावना भी है तब जनता की गाढ़ी कमाई में से करोड़ों रूपये विकास यात्रा के नाम पर बर्बाद करने के लिए जनता उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगी और जनता अगर उनके झांसे में आ भी जाए तो इतिहास तो उन्हें माफ़ नहीं ही करेगा.वैसे भी राजनीति की दुनिया में कथनी और करनी के बीच का सम्बन्ध कभी का टूट चुका है.

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