रविवार, 28 फ़रवरी 2010

अपने गाँव में न होने की कसक देती होली

यूं तो मैं साल के तीन-चार दिनों को छोड़कर सालों भर हाजीपुर शहर में रहता हूँ और रोजाना मेरे दिल में अपने गाँव में न रह पाने की टीस उठती रहती है.लेकिन अपने गाँव में नहीं होने का सबसे ज्यादा दर्द मैं महसूस करता हूँ होली के दिन.आखिर होली मेरा सबसे पसंदीदा त्योहार जो ठहरा.शहर की होली गाँव की होली से बिलकुल अलग होती है.न तो नाच-गान और न ही मिलना-जुलना.पूरा दिन यहाँ टीवी का रिमोट दबाते बीतता है.गाँव में हमारी होली वास्तव में होली से एक महीना पहले ही शुरू हो जाती थी.फुटबॉल खेलकर जब हम दिन ढले घर लौट रहे होते तो पूरे रास्ते एक-दूसरे पर मुफ्त का पाउडर यानी धूल डालते आते.होली की सुबह मुंह अँधेरे ही हम नित्य क्रिया से निपट लेते.सुबह धूप भी नहीं निकली होती और हमारी हुडदंग शुरू हो जाती.कई सालों तक तो इसकी शुरुआत मैंने ही अपने मित्रों पर कीचड़ डालकर की थी.फ़िर उसके बाद जो भी हमउम्र नज़र आ जाए उसको हम गोबर, मिट्टी और कीचड़ से सराबोर कर देते.ज्यों-ज्यों लोग हमारी चपेट में आते जाते हमारी टोली के सदस्यों की संख्या बढती जाती.उस छोटे-से कालखंड में अगर कोई रिश्ते में हमारा बहनोई या साला लगनेवाला अतिथि हमारे हत्थे चढ़ जाता तो सबसे बुरी गत उसी की होती.कभी-कभी तो हमें उन्हें पकड़ने के लिए सैंकड़ों मीटर की दौड़ भी लगानी पड़ती.जो पकड़ाने में जितनी ज्यादा परेशानियाँ खड़ी करता उसका अंजाम उतना ही बुरा होता.दोपहर १२-१ बजे हम स्नान करने चले जाते और हुडदंग समाप्त हो जाती.शाम में हम प्रत्येक दरवाजे पर जाकर होली गाते.जब गायन टोली हमारे दरवाजे पर होती तब हमसे ज्यादा खुश शायद इस धरती पर कोई नहीं होता था.आंगन से मेरी मामियां गायकों पर रंगों की बौछार करती रहती.हम टोली के सदस्यों को रंग-अबीर लगाते और सूखे मेवे खाने को देते.अगर किसी की साली इस सुअवसर पर गाँव में मौजूद होती तो उनके नाम को भी होली के गीतों में शामिल कर लिया जाता था.शाम तक जब हल्की ठण्ड पड़नी शुरू हो जाती थी हम रंग अबीर से इतने सराबोर हो जाते थे कि खुद अपनी ही सूरत अजनबी लगने लगी थी.तब हम घर वापस आते और खाना खाकर सो जाते.प्रत्येक वर्ष कोई न कोई मेरा ममेरा भाई या मामा शराब पीकर अनर्गल प्रलाप करते जिसका अपना ही मजा होता था.बाद में होली की हुडदंग में मोबिल का भी जमकर प्रयोग होने लगा.सब चेहरे से मोबिल छुड़ाने का असफल प्रयास करते लेकिन मैं मार्गो साबुन लगा कर उसे चुटकियों में उतार लेता था.आज मैं अपने गाँव यानी ननिहाल जगन्नाथपुर जहाँ मेरा बचपन बीता से मात्र तीस किलोमीटर दूर हूँ लेकिन लगता है जैसे मैं सदियों दूर हो गया हूँ.ऐसा भी नहीं है कि मैं शौकिया तौर पर शहर में रह रहा हूँ.मैं ऐसा करने को मजबूर हूँ.शायद भविष्य में परिस्थितियां अनुकूल हो जाए और मैं प्रत्येक साल कम-से-कम होली के दिन गाँव में रह सकूं.

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

आम आदमी को ठेंगा

दीदी के दिशाहीन रेल बजट के बाद देशवासियों को इंतजार था दादा के आम बजट का.लेकिन दादा ने तो आम आदमी को सीधे ठेंगा दिखा दिया.कुल मिलाकर बजट को देखकर अंधे द्वारा रेवड़ी बाँटने वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है.जहाँ देश की जनता उनसे महंगाई कम करने के उपाय की उम्मीद कर रही थी वहीँ मंत्री ने २०००० करोड़ रूपये के नए कर लगा उनकी मुश्किलों को और भी बढा दिया.पेट्रोल और डीजल तो रात १२ बजे से ही महंगे हो गए हैं.यह कमाल हुआ है पेट्रोलियम पदार्थों पर सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क बढा देने से.अब इसे जले पर नमक छिड़कना न कहें तो क्या कहें? वित्त मंत्री से उम्मीद थी कि वे महंगाई घटाने के लिए कोई कदम उठाएंगे लेकिन उन्होंने महंगाई बढ़ाने की दिशा में कदम उठाना ज्यादा उचित समझा.बजट में महंगाई को कम करने के लिए दूसरी हरित क्रांति की कल्पना की गई है और इसके लिए मात्र ४०० करोड़ रूपये आवंटित किये गए हैं.मात्र ४०० करोड़ रूपये में हरित क्रांति का दिवास्वप्न देखा गया है.यानी फूंक मारकर पहाड़ उड़ाने की गंभीर कोशिश की है प्रणव मुखर्जी ने.सीमेंट और स्टील को महंगा कर गरीबों और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए अपना घर का सपना देखना भी महंगा कर दिया गया है.सामाजिक क्षेत्र के लिए जहाँ आवंटन बढा दिया गया है वहीँ खर्च पर निगरानी रखनेवाली एजेंसियों के बजट में कटौती कर दी गई है.यानी सरकार की नजर में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं है.आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी मनरेगा के लिए आवंटन में १०००० करोड़ की भारी-भरकम बढ़ोतरी की गई है.आयकर ढांचे में तो इस तरह बदलाव किये गए हैं कि जिसकी जितनी ज्यादा आमदनी उसको उतना ही ज्यादा लाभ.अब ५,००,००० तक की आय वाले को १० प्रतिशत और ८ लाख की आय वाले को सिर्फ २० प्रतिशत कर देना पड़ेगा.यहाँ भी अमीरों को ही लाभ पहुँचाने का प्रयास किया गया है.आयकर की ऊपरी सीमा बढ़ाने के बजाये यदि निचली सीमा को बढाया जाता तो निम्न आयवर्ग को भी राहत महसूस होती.खेती-किसानी की लागत पहले खाद और अब डीजल के मूल्य बढ़ने से और बढ़ने वाली है.यानी तेल के माथा तेल.चीन और पाकिस्तान से कभी नरम तो कभी गरम चलते रिश्तों के मद्देनजर भारी मात्रा में रक्षा खरीद की जरूरत थी लेकिन सरकार ने इसकी पूरी तरह उपेक्षा कर दी है.शिक्षा को भी उचित तरजीह नहीं मिल सकी है.बिजली और अधोसंरचना क्षेत्र को ज्यादा पैसे दिए गए हैं लेकिन पिछले कई वर्षों से ये क्षेत्र लक्ष्य प्राप्ति न होने के लिए अभिशप्त हैं.कुल मिलाकर यह बजट अजीबोगरीब बजट है और सरकार किस ओर जाना चाहती है इसे देखने से इसका पता नहीं चलता.यह बजट सिर्फ पेश करने के लिए पेश कर दिया गया है न तो इसकी कोई दिशा है और न ही उद्देश्य.

पैसा सुख की गारंटी नहीं

कल पूरा बिहार जमुई के विधायक अभय सिंह द्वारा पत्नी और बच्ची की हत्या के बाद खुद को गोली मार लेने की घटना से उद्वेलित था.अभय जी एक अच्छे इन्सान थे.भुखमरी के शिकार माता-पिता द्वारा परिवार सहित जान देने की घटनाएँ बराबर बिहार में होती रहती हैं.लेकिन एक अतिसंपन्न राजनेता के घर इस तरह की घटना पहली बार देखने में आई.उनके पास तो धन-दौलत का अम्बार था फ़िर भी वे सुखी नहीं थे.वर्तमान युग अर्थयुग है.पूरी दुनिया नैतिकता को ताक पर रखकर पैसों के पीछे भाग रही है.सबकी यही सोंच है कि पैसों से वे सुख खरीद लेंगे.जबकि सुख एक मानसिक अवस्था है.अगर पैसों से सुख खरीदना संभव होता तो विधायक अभय जी परिवार सहित ख़ुदकुशी नहीं करते.वर्षों पहले इंग्लैंड में भी एक इसी तरह की घटना घटी थी.एक करोड़पति व्यवसायी को व्यापार में घाटा हुआ और उसके पास १० लाख पौंड की जमा पूँजी बच गई.इससे उसे इतना बड़ा मानसिक आघात लगा कि उसने आत्महत्या कर ली.हालांकि १०० साल पहले १० लाख पौंड भी कोई कम नहीं होता था.कहने का तात्पर्य यह कि अगर मन में हौंसला है तो कम भौतिक साधन पर भी जिंदगी मजे में जी जा सकती है वरना रोने-धोने के लिए बहानों की भी कोई कमी नहीं है.हमारे यहाँ तो संतोष को ही सबसे बड़ा धन माना जाता रहा है.कहा भी गया है-गो धन गज धन बाजी धन और रतन धन खान, जब आये संतोष धन सब धन धुरी समान.फ़िर हम भारतीयों को क्या हो गया है कि उपभोक्तावाद की हवा में बहकर भौतिक साधनों को इकठ्ठा करने के लिए प्रत्येक सही-गलत कार्यों में लिप्त हैं?सुख एक मानसिक अवस्था है और इसे पैसों से नहीं ख़रीदा जा सकता.इसे तो साहस और हिम्मत से ही पाया जा सकता.हर स्थिति में खुश रहकर प्राप्त किया जा सकता है.सत्कर्मों द्वारा ख़रीदा जा सकता है.बिना संतोष के सुख का प्राप्त होना पूरी तरह असंभव है.संस्कृत में एक श्लोक है जो सदियों से हमारा मार्गदर्शन कर रहा है-संतोषं परम सुखं.

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

अद्वितीय, अविश्वसनीय, अविस्मरणीय

१७८९ में हुई फ़्रांस की क्रांति के बारे में कभी अंग्रेजी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि इस काल में जीवित होना एक अविस्मरणीय अनुभव था और युवा होना तो स्वर्गिक.कुछ ऐसा ही महसूस किया आज २४ फरवरी २०१० को दुनियाभर में फैले क्रिकेटप्रेमियों ने.युवाओं के उत्साह का तो कहना ही क्या!आज दुनिया के सबसे महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने अपनी सबसे महान पारी खेली.सचिन ने ग्वालियर की ऐतिहासिक धरती पर एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे पहला दोहरा शतक जमाया और सिद्ध कर दिया कि उन्हें यूं ही क्रिकेट का भगवान नहीं कहा जाता.उन्होंने मात्र १४७ गेंदों में २०० रन बनाये.इस दौरान उन्होंने मैदान के चारों ओर २५ चौके और ३ छक्के लगाये.ये रन किसी ऐरे-गैरे देश के खिलाफ नहीं बने बल्कि दक्षिण अफ्रीका जैसी मजबूत टीम के खिलाफ बने.आज स्थिति ऐसी थी कि दक्षिण अफ़्रीकी गेंदबाजों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि बल्लेबाजी के तमाम रिकार्डों को धारण करनेवाले नाटे कद के इस खिलाड़ी के सामने गेंद को कहाँ पटकें.अभी हाल ही में सचिन ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अपने बीस साल पूरे किये हैं.लगता है जैसे ३६ वर्षीय इस खिलाड़ी की रनों की भूख उम्र बढ़ने के साथ-साथ बढती जा रही है.ऐसा भी नहीं है कि अपने कैरियर में सचिन की आलोचना नहीं की गई हो लेकिन सचिन खामोश तपस्वी की तरह शब्दों द्वारा नहीं वरन अपने प्रदर्शन द्वारा समस्त आलोचनाओं का जवाब देते रहे. आज जैसे ही सचिन ने अपने २०० रन पूरे किये पूरा स्टेडियम पूरा भारत ख़ुशी से झूम उठा.वैसे तो सचिन के नाम रिकार्डों का अम्बार है लेकिन यह रिकार्ड निश्चित रूप से हीरे में नगीने, सोने पर सुहागा की तरह है.आज जिन लोगों ने भी सचिन का खेल देखा होगा वे अपने को निश्चित रूप से भाग्यशाली मानेंगे.क्रिकेट की दुनिया में सचिन के चलते पहले से ही भारत का मस्तक गौरव से तना हुआ था अब उसके मुकुट में सचिन ने  कोहिनूर जड़ दिया है.आज ममता बनर्जी ने रेल बजट पेश किया है जो भारत में एक बड़ी घटना मानी जाती है लेकिन आज की  सारी सुर्खियाँ सचिन बटोर ले गए; रेल बजट का स्थान चर्चित घटनाओं की रेटिंग में सचिन के इस अद्वितीय, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय प्रदर्शन के बाद ही नहीं बहुत नीचे आता है.

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

कबीर के नाम पर पाखंड का साम्राज्य

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि आजीवन पाखंडवाद का विरोध करनेवाले मध्यकालीन संत कबीर के नाम पर उनके कथित अनुनायियों ने पाखंड का साम्राज्य चला रखा है.कल मैं एक कबीरपंथी परिवार के श्राद्ध कार्यक्रम में निमंत्रित था.कार्यक्रम में मेरे मोहल्ले में रहनेवाले कबीर मठ के महंथ जी को भी जाना था.वे इसमें मुख्य पुरोहित की भूमिका निभानेवाले थे.हमने सोंचा कि क्यों न उनके ही साथ हो लिया जाए.लेकिन उन्होंने कहा उन्हें अभी कुछ देर होगी.अंत में हमने बस पकड़ ली.जब हम मेजबान के दरवाजे पर पहुंचे तब वहां बीजक पाठ के साथ अग्नि में आहुति दी जा रही थी.बीजक पाठ के दौरान संस्कृत के मन्त्र सुनकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ.कम-से-कम इसका संस्कृतवाला अंश तो कबीर का लिखा हुआ नहीं ही हो सकता है क्योकि कबीर अनपढ़ थे और संस्कृत के विरोधी भी.उन्होंने तो स्पष्ट घोषणा की थी कि संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर.करीब दो घन्टे तक कबीर ज्योति स्वाहा किया जाता रहा.क्या कभी कबीर ने कहा था कि उनके मरने के बाद उन्हें भगवान मानकर उनकी पूजा की जाए?वे तो घोर मानवतावादी थे और खुद को भी मानव ही मानते थे.कबीर को मन्त्रों में राम से भी बड़ा बताया जा रहा था.उस कबीर को जो अपने को राम का कुत्ता मानते थे मैं तो कुता राम का मोतिया मेरा नाऊँ, गले राम की जेवड़ी जित खींचे तित जाऊं.क्या यह स्वयं कबीर की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं था? उसके बाद कबीर जी की आरती हुई.उन्हीं कबीर की जिन्होंने भगवान राम की आरती लिखी थी.उस आरती के अंत में उन्होंने खुद रचयिता के रूप में अपने नाम का उल्लेख किया है.पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं तुलसी के पत्र कंठ मल हीरा, हरखि निरखि गावे दस कबीरा.यह आरती हमारे वैशाली जिले में सत्यनारायण की पूजा के बाद गायी जाती है.इस आरती में भी राम कबीर की सेवा में चंवर डुला रहे थे.हवन के बाद निर्गुण भजन गाये गए लेकिन बीच-बीच में फ़िल्मी धुनों के साथ.उसके बाद भोजन का कार्यक्रम शुरू हुआ.महंथजी इस बीच पधार चुके थे.मुझे यह देखकर अचरज हो रहा था कि बूढ़े और बुजुर्ग लोग भी उनका चरण-स्पर्श कर रहे थे.क्या इससे बड़ा भी कोई पाखंड हो सकता है?कबीर ने कभी ब्राह्मणों की चरणवंदना और उन्हें ऊंचा मानने का विरोध किया था-जो तू बामन बामनी का जाया आन बाट मंह क्यूं नहीं आया.क्या एक पाखंड का जवाब दूसरे पाखंड से दिया जाता है?विदाई के समय महंथ जी और उनके शिष्य दोनों को कपड़ों के साथ-साथ क्रमशः १००० और ५०० रूपये दिए गए चरणस्पर्श के साथ और उन्होंने बिना किसी नानुकुर के उन पैसों को अपनी-अपनी जेबों के हवाले कर दिया.यानी उन्होंने इसे अपना अधिकार समझा.तो क्या उन्होंने संन्यास का यह मार्ग पैसा कमाने के लिए अपनाया है?क्या ये संन्यासी वास्तविक संन्यासी हैं और इन पैसों का क्या करते होंगे?इनकी मासिक आमदनी तो ६०-७० हजार रूपये तक हो सकती है.क्या ये अपने घरवालों की आर्थिक मदद नहीं करते होंगे? क्या संन्यास भी व्यवसाय है और क्या कबीर इस व्यवसाय का समर्थन करते?कदापि नहीं.मैं जिस कबीर को जनता हूँ वे इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करते.मैंने शिष्य महाराज से पूछा कि आप शादी करेंगे या नहीं.आपके गुरु ने तो की नहीं.उन्होंने कहा वे भी शादी नहीं करेंगे.मैंने पूछा क्यों.उनका जवाब था यही परंपरा है.मैंने कहा आप जिन कबीर जी को राम से भी बड़ा बता रहे थे उन्होंने तो दो-दो शादियाँ की थी.उन्होंने फ़िर परंपरा वाली बात दोहराई.मैंने पूछा कि आपके कबीर तो परंपरा विरोधी थे तो आप क्यों नहीं हो सकते?इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं था.मैंने फ़िर पूछा कि कबीर तो मूर्ति पूजा के विरोधी थे फ़िर आपलोग क्यों उनकी मूर्ति बिठाकर पूजा करते हैं? उन्होंने कहा कि उन लोगों के लिए मूर्ति केवल एक माध्यम है भगवान नहीं.मैंने कहा लेकिन कबीर तो निर्गुण थे और मानते थे कि भगवान का कोई रंग-रूप नहीं होता.अब फ़िर से उन्होंने चुप्पी साध ली.कहने का मतलब यह कि कबीरपंथी कबीर के नाम पर जो पाखंडवाद फैला रहे हैं वह तर्क की कसौटी पर किसी भी तरह टिक ही नहीं सकता.आखिर कबीर भी तो तर्कवादी थे परम्परावादी नहीं. तभी तो वे कहते थे-मैं कहता हूँ आंखन देखी तू कहता कागद की लेखी,तेरा मेरा मनुआ कैसे एक होई रे.

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

भारतीय संस्कृति का अंग क्रिकेट

अभी कल की ही तो बात है जब करोड़ों भारतीयों की नजरें टीवी स्क्रीन से हटाये नहीं हट रही थीं.अंततः भारत ने कशमकश भरे इस मैच को एक रन से जीत लिया.करोड़ों भारतीयों ने चैन की साँस ली.चारों तरफ खुशियाँ-ही-खुशियाँ छा गईं.ऐसा पहली बार हुआ हो ऐसा भी नहीं है.यह तो अब रोज की बात है. क्रिकेट दुनिया के लिए भले ही एक खेल हो भारत की तो संस्कृति में ही यह शामिल हो चुका है.हम भारतीयों के लिए क्रिकेट खिलाड़ी भगवान से कम का दर्जा नहीं रखते.तभी तो शेन वार्ने ने सचिन के बारे में कभी कहा था कि सचिन भारत में एक खिलाड़ी नहीं है वहां तो वह क्रिकेट का भगवान है.जिस दिन भारतीय टीम कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच खेल रही होती है वह दिन त्योहारों के देश भारत में एक ऐसा त्योहार बन जाता है जिसका पंचांगों में कोई जिक्र नहीं होता.सुबह से ही लोग मैच शुरू होने का इंतजार करने लगते हैं.मैच शुरू होते ही रिमोट पर ऊंगलियों की थिरकन बंद हो जाती है.मजबूरन समाचार चैनल वाले भी मैच अपडेट दिखाना शुरू कर देते हैं.उस दिन सबसे ज्यादा टीआरपी किस चैनल और किस कार्यक्रम का रहता होगा यह किसी से पूछने की जरूरत नहीं है.क्रिकेट भारतीयों की दिनचर्या में अचानक आकर रच-बस गया हो ऐसा भी नहीं है.आज भारतीय टीम टेस्ट रैंकिंग में नंबर १ पर है.ऐसा रातों-रात नहीं हुआ है.वर्षों की मेहनत और सुधार के बाद ऐसा संभव हुआ है.लाला अमरनाथ, राघवन, गुप्ते से लेकर रवीन्द्र जडेजा और धोनी तक हर किसी ने इसमें अपना महती योगदान दिया है.क्रिकेट इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी के दौर में भी अगर लोकप्रिय बना हुआ है तो इसके पीछे है समय के साथ फ़ॉरमेट में बदलाव करते जाना.पहले यह खेल पॉँचदिनी हुआ करता था.मैदान के बाहर और भीतर दोनों तरफ सुस्ती छाई रहती थी.फ़िर इसे एक दिन के मैच में बदल दिया गया.इससे क्रिकेट का रोमांच सातवें आसमान पर पहुँच गया.अब २०-२० ने एक बार फ़िर इसके घटते रोमांच को बढा दिया है.कुछ लोग यह आरोप लगाते रहते हैं कि क्रिकेट के चलते भारत बांकी खेलों में पिछड़ रहा है.इस आरोप में तनिक भी दम नहीं है.बांकी के खेलों से भी जो खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं भारतीय जनता उन्हें भी सिर आँखों पर बिठाने में तनिक भी कोताही नहीं करती.धनराज पिल्लई, लिएंडर पेस, महेश भूपति, सायना नेहवाल, अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्धन राठौर, जसपाल राणा, विजेंदर, अखिल, मैरिकोम, सुशील कुमार आदि को भी भारतीयों ने अपने मन-मंदिर में उतना ही ऊंचा स्थान दिया है.सानिया मिर्जा की नथुनी तो करोड़ों भारतीयों के लिए जानलेवा बन चुकी है.असलियत तो यह है कि दूसरे खेलों में हम अगरचे तो विश्वस्तरीय प्रदर्शन कर ही नहीं पा रहे हैं और अगर कभी ऐसा संभव हो भी जाता है तो वह या तो व्यक्तिगत प्रदर्शन के कारण होता है या फ़िर उसमें सततता नहीं रह पाती.क्या किसी दूसरे खेल में हम दुनिया में नंबर वन हैं? नहीं!फ़िर कैसे क्रिकेट ने दूसरे खेलों को  नुकसान पहुंचा दिया? पहले प्रदर्शन करके बताईये फ़िर अगर सम्मान न मिले तब शिकायत करिए.क्रिकेट ने तो भारतीय जनमानस में वही स्थान प्राप्त किया है जिसका वह हक़दार है.

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

अब बाजार के हवाले वतन साथियों

मुंशी प्रेमचंद के ज़माने में पंच परमेश्वर हुआ करते थे.बाद में जमाना बदला और जातिवाद की हवा बहने लगी तब एक जुमला काफी लोकप्रिय हुआ करता था और वह था जाति नाम परमेश्वर.फ़िर समय बदला और जाति की जगह अब बाज़ार भगवान हो गया.केंद्र में उस समय नरसिंह राव की सरकार थी और वित्त मंत्री थे डा. मनमोहन सिंह जो वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री हैं.धीरे-धीरे सब कुछ सब कुछ यानी बाज़ार के हाथों सौंपा जाने लगा.बहुत-से सरकारी निगमों और कंपनियों का औने-पौने दामों में विनिवेश कर दिया गया.कुछ को तो साफ बेच दिया गया.फ़िर बारी आई खेती की.पहले गाज गिरी गन्ना किसानों पर.सरकार ने चीनी के बढ़ते मूल्य के साथ गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढाया और कहा कि अगर मिलवाले ऊपर से किसानों को पैसा देना चाहे तो उसे कोई आपत्ति नहीं होगी.लेकिन मिल मालिक क्यों चीनी के धंधे में बढ़ते मुनाफे को किसानों के साथ बाँटने लगे?नतीजा यह है कि जहाँ महाराष्ट्र के मिल मालिक किसानों को अच्छी कीमत दे रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश के मिल मालिक ऐसा नहीं कर रहे हैं.किसानों ने ईंख की खेती में आग लगाना शुरू कर दिया.जंतर-मंतर, दिल्ली जाकर उन्होंने अपनी बात जनप्रतिनिधियों तक पहुँचाने की भी कोशिश की.लेकिन आज तक कुछ हुआ नहीं.अब केंद्र ने बांकी के किसानों के भविष्य को भी बाज़ार की आग में झोंक देने का फैसला कर लिया है.एक तरफ तो उसने प्रति बोरी यूरिया का मूल्य २५ रूपया बढा दिया गया वहीँ दूसरी ओर यूरिया को छोड़कर बांकी सभी उर्वरकों के मूल्य निर्धारण का अधिकार उत्पादकों को दे दिया गया.इसका सीधा मतलब है कि अब तक इन उर्वरकों पर जो सब्सिडी दी जा रही थी उसे अब पूरी तरह वापस ले लिया जायेगा.जाहिर है इनकी कीमतें अब आकाश को छूने जा रही हैं.खेती पहले से ही किसानों के लिए घाटे का सौदा है.अब खेती की लागत और भी बढ़ने जा रही है.महंगाई के मोर्चे पर भी अगर हम देखें तो पूरा देश पहले से ही महंगाई की ताप से झुलस रहा है.सरकार के इस कदम से निश्चित रूप से महंगाई कम नहीं होगी बल्कि बढ़ेगी.सरकार चलानेवालों पर भले ही प्रतिवर्ष अरबों रूपये खर्च हो जाएँ परन्तु खेती जिसका सीधा ताल्लुक पेट से है पर खर्च नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सरकार की नज़र में अपव्यय की श्रेणी में आता है.खेती को कार्पोरेट के हाथों में सौंपने के सरकारी प्रयास पहले ही विफल हो चुके हैं क्योंकि हम भारतीयों का अपनी धरती अपनी जमीन के साथ भावनात्मक सम्बन्ध होता है और हम किसी कीमत पर अपनी जमीन इन अविश्वसनीय व्यापारियों के हाथों नहीं दे सकते.अब देखना है कि खेती के साथ बाज़ार का क्या व्यवहार रहता है क्योंकि पूरी खेती न सही इसे प्रभावित करने का एक बड़ा हथियार तो उनके हाथ लग ही गया है.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

बिहार का कायाकल्प नहीं कर पाए नीतीश

बिहार में नीतीश सरकार का कार्यकाल समाप्त होने में अब कुछ ही महीने बचे हैं.पॉँच साल पहले जनता ने जिस उम्मीद के साथ उनके गठबंधन को ताज सौंपा था उस पर नीतीश कुमार की सरकार खरी उतरती नहीं दिख रही.राबड़ी के समय पूरा राज्य राजद नेताओं के प्रशासन में हस्तक्षेप से परेशान था.इस राजनीतिक अतिवाद को कम करना बेशक जरूरी था.लेकिन नई सरकार ने विषम विषस्य औषधम की नीति पर चलते हुए एक दूसरे अतिवाद को बढ़ावा दे दिया.वह अतिवाद था नौकरशाही के हाथों में राज्य को सौंप देना.इस अतिवाद ने सिर्फ जनता को ही नहीं परेशान किया है बल्कि मंत्री तक इससे पीड़ित हैं.अगर ऐसा नहीं होता तो शायद उत्पाद विभाग में वह घोटाला भी नहीं होता जिसकी इन दिनों जोर-शोर से चर्चा है.उत्पाद विभाग के अधिकारी लगातार मंत्री और मंत्री के आदेशों की अनदेखी करते रहे.परिणाम यह हुआ कि जहाँ विभाग को मात्र ९०० करोड़ रूपये का लाभ हुआ वहीँ शराब माफियाओं का अवैध कारोबार २५०० करोड़ तक जा पहुंचा.अफसरों ने बार-बार कहने पर भी जब मंत्री की नहीं सुनी तब मजबूरन उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा. उन्हें आज मंत्रिमंडल से हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने खुद अपने ही विभाग में घोटाले का आरोप लगाते हुए जाँच की भी मांग की थी.उनका यह भी आरोप था कि इस घोटाले में मुख्यमंत्री सचिवालय से जुड़े अधिकारी भी शामिल हैं. वहीँ २००८ में सरकार की लापरवाही से हुई कोसी की विनाशलीला को झेल चुके वीरपुर के ग्रामीणों ने आज राहत में घोटाले का आरोप लगाते हुए स्थानीय एसडीओ के कार्यालय पर हमला कर दिया जिससे पुलिस को लाठी चार्ज भी करना पड़ा. नीतीश जी ने लगता है सिर्फ दिखावे के लिए इतना बड़ा मंत्रिमंडल बना रखा है.अच्छा तो होता कि वे सीधे तौर पर सचिवों को ही मंत्री बना देते या फ़िर मंत्री किसी को बनाते ही नहीं और सचिवों को ही सीधे तौर पर काम करने देते.इस सरकार के समय अपराध निश्चित रूप से काम हुआ है लेकिन नक्सली हिंसा और प्रभाव में वृद्धि हुई है.इससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि कहीं यह शांति जबरन तो नहीं पैदा की गई है और सतही है.सतह के नीचे अब भी लावा पिघल रहा है जो मौका मिलते ही ज्वालामुखी का रूप ले सकता है.जमुई जिले में कल हुई नक्सली हिंसा के बारे में पूर्व से ही पुलिस को आशंका थी फ़िर क्यों अधिकारियों ने एहतियाती कदम नहीं उठाया?नक्सलियों से सीमित साधनों के बल पर घने जंगल के बीच टक्कर लेनेवाले आदिवासियों को अगर इस तरह मौत के मुंह में धकेल दिया जायेगा तो कोई किस तरह इनके विरुद्ध प्रशासन का साथ देने की हिमाकत करेगा?अब तो उस इलाके से लोगों का पलायन भी शुरू हो गया है.सुशासन एक आदमी के बस की बात नहीं है इसके लिए एक अच्छी टीम भी चाहिए.साथ ही उस टीम से काम लेने के लिए उस पर विश्वास भी करना पड़ेगा.भारत लोकतान्त्रिक देश है और यहाँ तानाशाही सफल नहीं हो सकती चाहे तानाशाह लालू प्रसाद हों या नीतीश कुमार.नीतीशजी दोबारा मुख्यमंत्री बन गए तो एक मौका और मिल जायेगा बिहार को विकसित राज्य बनाने का लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप से उन्हें इस बात का अफ़सोस रहेगा कि वे मौके का लाभ नहीं उठा पाए और पॉँच साल यूं ही गुजार दिया.

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

क्यों नहीं फैले नक्सली आन्दोलन ?

किसी शायर ने कभी कहा था बर्बादे गुलिस्तां के लिए बस एक ही उल्लू काफी है, हर डाल पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?तब शायद शायर को इस सवाल का जवाब मालूम नहीं था.आज अगर वह जिन्दा होता तो शेर में प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता ही नहीं.लोग कहते हैं कि भारत में नक्सलवाद क्यों पनप रहा है? मैं पूछता हूँ कि वर्तमान भारत में नक्सलवाद क्यों नहीं पनपे?क्या देश से गरीबी समाप्त हो गई है? क्या भारत के हर हाथ को काम मिल गया है?अगर नहीं और स्थितियां पहले से भी बदतर हो रही हैं तो बेशक नक्सलवाद के न पनपने की जगह पनपने के कारण ज्यादा हैं और ज्यादा शक्तिशाली भी.भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों में घुन लग गया है.संसद के एक तिहाई सदस्य दागी हैं और जो दागी नहीं हैं उनकी संपत्तियों की केवल जाँच करा दी जाए तो उन मिस्टर क्लीनों में से अधिकतर आय से ज्यादा संपत्ति रखने के दोषी पाए जायेंगे.पंचायत से लेकर संसद तक लगभग सभी जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार में लिप्त है और गलत तरीके से धन कमाने में लगे हुए हैं.जनता अब तक चुप है लेकिन कब तक वह धैर्य रख पायेगी?लोकतंत्र के इस्पाती ढांचे यानी कार्यपालिका की दशा भी कोई अच्छी नहीं है.मंत्री से लेकर चपरासी तक का वेतन से ज्यादा ऊपरी कमाई पर ज्यादा ध्यान रहता है.बिना सुविधाशुल्क दिए कुछ अपवादों को छोड़कर कोई काम नहीं होता.यहाँ तक कि तंत्र भूमिहीनों पर भी दया नहीं करता और इंदिरा आवास के रूपयों में से भी कमीशन ले लेता है.निराश लोगों की आखिरी उम्मीद न्यायपालिका खुद ही भ्रष्टाचार में आपादमस्तक डूबी हुई है.बदली से लेकर प्रोन्नति तक में दिनरात करोड़ों का खेल चलता रहता है.जनता 20-20 सालों से अपने मुकदमे के फैसले का इंतजार कर रही  है लेकिन उसे सिवाय तारीख के कुछ नहीं मिल रहा.वकीलों और पेशकारों की जेबें गर्म होती रहती हैं और साथ ही आम जनता का दिमाग भी.ज्यादातर मामलों में माननीय न्यायाधीश भी अपनी जेब गर्म करने से परहेज नहीं करते.लोकतंत्र के आखिरी स्तम्भ यानी मीडिया की हालत तो और भी ख़राब है और वहां भी सभी काम चांदी की खनक से ही होते हैं.ऊपर से नीचे तक चापलूसी और घूस.अधिकतर समाचार पैसे लेकर छापे जाते हैं.अब आप ही बताईये कि जनता अपनी समस्याओं के समाधान के लिए नक्सलवादियों के पास नहीं जाए तो कहाँ जाए?मैं हर तरह की हिंसा के खिलाफ हूँ.लेकिन भारत का प्रत्येक आदमी ऐसा तो नहीं सोंचता.

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

आओ लाशों के ढेर पर बैठकर बातचीत करें

हमारा इंतजार समाप्त हुआ.मुंबई हमले के बाद पहला हमला हो गया.इस बार निशाना बना है मुंबई के बगल का शहर पुणे.हम भारतीय हर हमले के बाद हाथ-पर-हाथ धरे बैठ जाते हैं इंतजार में कि अगला हमला कब होता है?मुंबई हमले से भी हमने कोई सबक नहीं लिया और पुणे से भी नहीं लेनेवाले.हमने मुंबई हमले के बाद घोषणा की थी कि पाकिस्तान जब तक आतंकी ढांचा नष्ट नहीं करता हम उससे वार्ता नहीं करेंगे.लेकिन हम अंतर्राष्ट्रीय दबाव में आकर वार्ता करने जा रहे हैं २५ और २६ फरवरी को.कितनी स्वतंत्र और कारगर है हमारी विदेश नीति!इतने लाचार तो हम तब भी नहीं थे जब हमें संपेरों और तांत्रिकों का देश कहा जाता था.लेकिन हम वार्ता तो करेंगे चाहे अपने  लोगों  की  लाशों  पर  बैठकर  ही  क्यों  न  करनी  पड़े  क्योंकि इससे हमारे आका अमेरिका को तो ख़ुशी होगी ही साथ-ही-साथ अपने देश के मुसलमान भी खुश हो जायेंगे और हमारी  सरकार की चुनावी नैया पर लग जाएगी.

शर्म बाज़ार में नहीं बिकती

कनाडा के वैंकूवर में इन दिनों शीतकालीन ओलंपिक चल रहा है.इसमें भारत के भी कुछ खिलाड़ी भाग ले रहे हैं.लेकिन जब वे प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंचे तो उनके पास खेल में भाग लेने के लिए कपड़े तक नहीं थे.भारतीय प्रवासियों ने चंदा कर कपड़े जुटाए.कितने आश्चर्य की बात है एक तरफ क्रिकेट खिलाड़ियों पर धन की बरसात हो रही है तो दूसरी तरफ खिलाड़ियों के पास कपड़े तक नहीं हैं.अभी कुछ ही दिन पहले की बात है कि भारत के सबसे बड़े राज्य में जनप्रतिनिधियों ने खुद अपना वेतन बढाया है.इनके लिए तो सरकार के पास पैसा है लेकिन खेल के लिए नहीं है.खेल का भी अपना महत्व है.खिलाड़ी जब पदक जीतते हैं तब पूरी दुनिया में हमारा सिर गर्व से ऊँचा उठ जाता है.आर्थिक विकास सिर्फ जीडीपी में वृद्धि से ही परिलक्षित नहीं होता उसे अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की पदक तालिका से भी जाहिर होना चाहिए.आज का भारत १९२८ का भारत नहीं है जब एम्स्तर्दम ओलंपिक में हमारे हॉकी खिलाड़ियों खाली पांव खेलना पड़ा था.आज का भारत आर्थिक महाशक्ति है.लेकिन खेल के मोर्चे पर कम-से-कम स्थितियां नहीं बदली हैं और खिलाड़ियों के साथ-साथ भारत को भी कहीं-न-कहीं शर्मिंदा होना पड़ता है.लेकिन इससे हमारे नीति-निर्माताओं और नीति-संचालकों को क्या फर्क पड़ता?उन्होंने तो वर्षों पहले शर्मिंदा होना छोड़ दिया है और शर्म बाज़ार में तो बिकती नहीं जहाँ से खरीदकर हम इनमें थोड़ा-थोड़ा बाँट दें.

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

चर्चा में रहने की बीमारी

मेडिकल साइंस जितनी तेजी से तरक्की कर रहा है उससे कहीं अधिक तेजी से नई-नई बीमारियाँ सामने आ रही हैं.इनमें से कुछ रोग शारीरिक हैं तो कुछ मानसिक.एक नई और लाईलाज बीमारी महामारी की तरह अपने पांव पसार रही है.बीमारी मानसिक है और वैज्ञानिक अभी तक उसके कारणों का पता भी नहीं लगा पाए हैं.मैं उसका जैववैज्ञानिक नाम तो नहीं जानता लेकिन साधारण बोलचाल की भाषा में उसे चर्चा में रहने की बीमारी कहा जाता है.यह बीमारी होते ही रोगी अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है.कोई नाखून बढाने लगता है तो कोई दाढ़ी.इस बीमारी का सबसे प्रचलित और सामान्य लक्षण है किसी मृत या जीवित व्यक्ति के खिलाफ अनाप-शनाप बकने लगना.कुछ साल पहले यही बीमारी धर्मवीर नाम के एक गुमनाम साहित्यकार को हो गई थी.लगे उपन्यास सम्राट प्रेमचंद को गालियाँ देने.सामंतों का मुंशी तक कह दिया.कहने की देर थी कि हिंदी के सभी मठाधीशों की प्यालियों में तूफ़ान आ गया.हमारे कुछ पत्रकार बंधुओं को भी यह बीमारी है. जब-जब उन्हें इस बीमारी का दौरा पड़ता है तब-तब वे कभी प्रभाष जोशी को तो कभी मृणाल पाण्डे को थोक के भाव में गालियाँ देने लगते हैं.लेकिन इस रोग से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं बाल ठाकरे.उनको किसी-न-किसी तरह चर्चा में रहने की गंभीर बीमारी है.जब भी उनके ऊपर यह बीमारी हावी होती है उनके कार्यकर्ताओं को भी सड़क पर उतरकर हाथ साफ करने का मौका मिल जाता है.अभी फ़िर से उन पर इसका दौरा पड़ा हुआ है और वे हाथ धोकर शाहरूख खान के पीछे पड़े हैं.देखिये कब दौरे का असर कम होता है.वैसे भी जब तक वैज्ञानिक इसका इलाज नहीं ढूढ़ लेते हैं तब तक सिवाय इंतज़ार करने के हम कर भी क्या सकते है?

बेहाल प्रजातंत्र

अंधों में काना चुनना मजबूरी बन गई,
अंधे चुन रहे अंधों को, क्या यही प्रजातंत्र है;
सालों से चल रहा करोड़ों का खेल, नंगा नाच धनबल और बाहुबल का;
रावणों का काफिला आकर धमका रहा है वोटरों को,
नेता करा रहे स्नान मतदाताओं को शराब से,
कुर्सी के पीछे भाग रहा गरीबों का मसीहा;
चुनाव बनकर रह गए हैं प्रहसन,
चुन-चुनकर बिठा दिया गया है कानों को कुर्सियों पर,
एक भ्रष्टाचारी लड़ रहा है दूसरे भ्रष्टाचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार मिटाने का संग्राम;
नैतिकता के गालों पर रहे झन्नाटेदार तमाचे,
द्रौपदी के दामन को धर्मराज ने सौंप दिया है खुद दुश्शासन के हाथों में;
प्रजातंत्र से उठ रहा करोड़ों मतदाताओं का विश्वास,
विकृत चित्तवाले लिख रहे हैं भारत में प्रजातंत्र का नया इतिहास;
गांधी रह गए हैं सिर्फ हरे-पीले नोटों पर शेष,
ईमानदारी हो रही लुप्त लोगों के चरित्र से;
कुर्सी की छत्रछाया में खून-तून सब माफ़ हो गया,
रो रही न्याय की देवी पट्टी बांधे आँखों पर,
अपवित्र हो गया न्याय का मंदिर सपना अब इंसाफ हो गया.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

मृत्यु एक मार्गदर्शक

मृत्यु क्या है और मौत के बाद मानव और अन्य प्राणियों का क्या होता है इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है?एक वृद्ध पड़ोसी की मृत्यु के बाद आज मैंने जब उनकी लाश देखी तो सोंचने लगा कि अब इस लाश की क्या जाति है और क्या पहचान है?कुछ भी तो नहीं.जाति, पहचान सब समाप्त.क्या शून्य शून्य में नहीं मिल गया?कुम्भ में जल जल में कुम्भ है बाहर-भीतर पानी.क्या हम दुनिया में अपनी मर्जी से आये हैं और अपनी मर्जी से जायेंगे?नहीं!इन दोनों बातों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है.न ही जीवन में घटनेवाली अधिकतर घटनाओं पर ही हमारा कोई नियंत्रण होता है फ़िर हम क्यों अपने-आपको कर्ता मान लेते हैं और मिथ्याभिमान से भर जाते हैं.क्यों होता है ऐसा?लेकिन दुनिया को भ्रम मानकर इससे पूरी तरह विरक्त भी तो नहीं हुआ जा सकता.जो भी जितना भी हमारे हाथ में है उसे ही पूरी शक्ति और पूरी ईमानदारी से क्यों न पूरा किया जाए.हाँ लेकिन अगर हम जीवन के पथ पर चलते समय अटल सत्य मृत्यु को ध्यान में रखे तो हमारे हाथों कभी कोई गलत काम हो ही नहीं.इस तरह तो मृत्यु पथ प्रदर्शक भी है.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

नागरिक समझ का अभाव है भारतीयों में

हमारे देश को आजाद हुए ६३ साल होने को हैं.किसी भी देश के नागरिकों को सिविक सेन्स यानी नागरिक समझ का प्रशिक्षण देने के लिए इतना समय कम नहीं होता.लेकिन यह बड़े ही दुःख की बात है कि हम भारतीयों में आज भी नागरिक समझ का अभाव है.हम चाहे किसी भी सरकारी कार्यालय में जाएँ सीढियों से लेकर ऑफिस की दीवारों तक पर पान की पीक के दाग देखे जा सकते हैं मानों मानचित्र बनाने की कोई प्रतियोगिता चल रही हो.हम आज भी लाइन तोड़कर टिकट लेने में अपना बड़प्पन समझते हैं और लाल बत्ती क्रॉस करने में हमें अपूर्व और अपार ख़ुशी मिलती है.जहाँ-तहां मल-मूत्र त्याग करने का तो जैसे हमें जन्मसिद्ध अधिकार ही प्राप्त है.यहाँ तक कि महापुरुषों की मूर्तियों को भी हम नहीं बक्शते.लोगों को पटना के गांधी मैदान के पास स्थित सुभाष पार्क की चहारदीवारी का इस काम के लिए उपयोग करते आप कभी भी देख सकते हैं.ये तो हुई कुछ छोटी-छोटी मगर मोटी बातें.अब एक बड़ी बात भी हो जाए यानी आर्थिक लाभ की बात.क्या आपने कभी निर्माणाधीन सड़क से ईंटों की चोरी की है?नहीं!फ़िर तो आप बेबकूफ हैं.शायद आपको ईंट के दाम पता नहीं है.५००० का हजार.कम-से-कम बिहार में तो यही दाम चल रहा है.अभी परसों जब मैं मुजफ्फरपुर में था तो मैंने बच्चों को दिन-दहाड़े सड़क से ईंटें उखड़ कर घर ले जाते हुए देखा.जब मैंने उन्हें मना किया तो एक किशोर लड़की उग्र हो उठी और कहा क्या ये सड़क आपकी है?जनता जब खुद ऐसे घटिया कामों में लगी रहेगी तब फ़िर सरकार के विकास कार्यों की तो ऐसी-की-तैसी होनी ही है.जहाँ तक भाषिक व्यवहार का प्रश्न है तो आज वही व्यक्ति समाज में पूजा जाता है जो जितनी ज्यादा गालियाँ देना जानता है.अभद्रता अब योग्यता की निशानी बन गई है.तभी तो राज और बाल ठाकरे पानी पी-पी कर पूरे मनोयोग से बस इसी एक काम में सालोभर लगे रहते हैं.हमारी पुलिस का तो इस मामले में कहना ही क्या?उनको तो जैसे इसी काम के लिए वेतन मिलता है.क्या आपने कभी आरक्षित टिकट पर बिहार या उत्तर प्रदेश से होकर रेलयात्रा की है?फ़िर तो आप को न चाहते हुए भी कई बार परोपकार का अवसर मिला होगा और जगह बांटनी पड़ी होगी.वो भी उनलोगों के साथ जो कभी टिकट कटाते ही नहीं हैं.कुछ लोगों को बसों और ट्रेनों में बीड़ी-सिगरेट पीना बहुत पसंद है.भले ही यात्रियों को इससे कितनी ही परेशानी क्यों न हो!आजकल एक और काम भी लोग बसों-ट्रेनों में करने लगे हैं.वो है गुटखा खाकर इधर-उधर थूकते रहने का.अगर आप इनमें से कोई भी काम करते हों और मुझ पर आपको गुस्सा आ रहा हो तो कृपया उसे भी थूक दीजिये और विचार कीजिये कि हम आखिर कैसा भारत बनाना चाहते हैं?

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

संघ की घोषणा स्वागत योग्य

कथित धर्मनिरपेक्षवादियों के बीच राष्ट्र विरोधी संगठन के रूप में बदनाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब मुंबई में उत्तर भारतीयों की रक्षा का बीड़ा उठाया है.अभी तक कांग्रेस सहित सभी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देनेवाले दल रहस्यमय तरीके से चुप्पी साधे हुए थे.ऐसे में संघ की घोषणा का हम सभी राष्ट्रवादियों की तरफ से स्वागत किया जाना चाहिए.इससे निश्चित रूप से शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का मनोबल गिरेगा और वे अपनी करनी से बाज आयेगे.संघ अखिल भारतीय संगठन है और महाराष्ट्र तो इसका केंद्र ही है.इसलिए हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि अब महाराष्ट्र में पिछले कुछ समय से चल रहे सारे उपद्रव और उत्पात शांत हो जायेंगे.चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जो भी इतिहास रहा हो वो देश की एकता और अखंडता की कट्टर समर्थक है. उसने अपने इस कदम द्वारा यह साबित भी कर दिया है.संघ प्रमुख के बयान देने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री ने मरता क्या न करता की तर्ज पर कहा कि भारतीय संविधान किसी भी भारतीय को कहीं भी बसने और काम करने की स्वतंत्रता देता है और केंद्र सरकार इसे सुनिश्चित करेगी.क्या पिछले दो सालों  से भारत  का संविधान लागू नहीं था या फ़िर मंत्रीजी की नैतिकता घास चरने चली गई थी .अब जब  उन्हें लगा कि संघ कहीं वाक ओवर ले ले तब उन्हें संविधान और अपने कर्त्तव्य की याद आ गई!

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

एनजीओ का गोरखधंधा

कभी संत विनोबा भावे ने किसी एनजीओ के कामकाज से खुश होकर कहा था कि अब सरकारी तंत्र में असर नहीं रहा अगर कहीं असर है तो असरकारी संगठनों में.लेकिन मैंने वर्तमान में बिहार में संचालित कई एनजीओ के कामकाज को गहराई से देखने के बाद पाया कि यहाँ तो सबकुछ गड़बड़ घोटाला है.आजकल कई सारे काम जो पहले बिहार सरकार खुद करती थी उसने एनजीओ के हवाले कर दिया है.कई पूंजीपति रूपयों की थैली लेकर घूम रहे हैं और संपर्क कर रहे हैं एनजीओ संचालकों से.मतलब किसी की पूँजी किसी का नाम.एनजीओ संचालक कुल कार्य पूँजी का ३ प्रतिशत तक पाकर भी खुश.हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.जहाँ तक इस मामले में सरकारी भ्रष्टाचार का प्रश्न है तो तंत्र कुल रकम का लगभग ४५ से ५५ प्रतिशत तक गटक जा रहा है.एनजीओ के बैनर तले चाहे एनजीओ खुद काम करे या किसी और को काम करने की अनुमति दे वे खर्च करते हैं लगभग २५ प्रतिशत और इस तरह बचत है लगभग २० प्रतिशत तक.अब अगर १ रूपया में से सिर्फ २५ पैसा ही कार्य स्थल पर खर्च हो तो विकास कितना होगा यह कोई भी समझ सकता है?कहने का तात्पर्य यह कि सरकारी तंत्र जब तक भ्रष्ट रहेगा असरकारी संगठनों के कामकाज में असर नहीं आनेवाला चाहे सरकार कोई भी इंतजाम क्यों न कर ले.कोई भी एनजीओ वाला घूस देना नहीं चाहता लेकिन बिना दिए काम ही न चले तो कोई करे भी तो क्या करे?आखिर एनजीओ की तरफ से गतिविधि भी तो चलनी चाहिए.