बुधवार, 31 मार्च 2010

मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की


यह कहावत पुराने ज़माने में शायद किसी वैद्य ने किसी न ठीक न होने वाली बीमारी के ईलाज के दौरान परेशान होकर कहा होगा.लेकिन आदमी को होनेवाली सभी पुरानी बिमारियों का ईलाज तो ढूँढा जा चुका है.कुछ नई बीमारियों पर भी शोध कार्य जारी है.मगर कोई देश अगर किसी लाईलाज बीमारी से ग्रस्त हो जाए तो.हमारा देश भी एक बहुत-ही पुरानी बीमारी से ग्रस्त है और जैसे-जैसे दवा की डोज़ बढ़ाई जा रही है वह बीमारी भी बढती जा रही है.मुग़ल शासन के समय भी भ्रष्टाचार था लेकिन सब्जी में नमक की तरह इसकी मात्रा काफी कम थी.अंग्रेजों ने येन-केन-प्रकारेण भारत को लूटा क्योंकि वे लूटने के लिए ही आये थे.फ़िर भी भ्रष्टाचार अभी पूड़ी में तेल की तरह काफी कम थी.लोगबाग अब भी कानून और समाज से डरते थे.आजादी मिलने के बाद भ्रष्टाचार की नाली दिन-ब-दिन चौड़ी होती गई अब उसने महासागर का रूप ले लिया है.महासागर भी इतना बड़ा और गहरा कि जिसमें हमारा देश डूब भी सकता है.आजादी के बाद नेहरु और शास्त्री के समय तक भ्रष्टाचार का दानव नियंत्रण में था लेकिन महत्वकांक्षी इंदिरा गांधी के समय इसने संस्थागत रूप ग्रहण करना शुरू कर दिया.वैसे नेहरु के समय ही जीप घोटाला के नाम से पहली बार उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार देश के सामने आया था.लेकिन तंत्र अब भी काफी हद तक स्वच्छ था.कम-से-कम हमारे शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के बारे में आंख मूंदकर यह दावा किया जा सकता था.लेकिन इंदिरा जी ने राजनीति की समस्त मान्यताओं और परिभाषाओं को ही बदल कर रख दिया.भाई-भतीजावाद और घूसखोरी अब अपराध नहीं बल्कि कला बन गई.कुर्सी बचाने के लिए उन्होंने देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया.विपक्षी दलों के शासनवाले राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा देना तो जैसे उनके लिए रोजाना की बात थी.पूरे भारत में सत्ता का अब एक ही केंद्र बच गया.संवैधानिक निष्ठा के बदले आलाकमान के प्रति निष्ठा का महत्व ज्यादा हो गया.इंदिराजी का स्थान अब संविधान से तो ऊपर हो ही गया उनके कई चाटुकार तो उन्हें ही भारत भी मानने लगे.आपातकाल के बाद सत्ता तो विपक्ष के हाथों आ गई लेकिन भ्रष्टाचार पर कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा.इंदिराजी की हत्या के बाद उनके पुत्र १९८४ में सत्तासीन हुए.लेकिन न तो वे भारत को समझ पाए और न ही भारत उन्हें समझ पाया और जब तब ये दोनों एक दूसरे को समझ पाते राजीवजी की आयु ही समाप्त हो गई.इस बीच वी.पी. और चंद्रशेखर की सरकारों पर उस तरह तो भ्रष्टाचार के सीधे आरोप नहीं लगे जैसे राजीव गांधी की सरकार पर लगे थे लेकिन चंद्रास्वामी जैसे लोगों की बन जरूर आई.राजीव जी के समय बोफोर्स तोप घोटाला सामने आया और देश को पता चला कि लगभग सभी रक्षा खरीद में दलाली और कमीशनखोरी होती है.यानी अब हमारे देश की सुरक्षा भी भ्रष्टाचार के कारण खतरे में है.फ़िर केंद्र में आये नरसिंह राव जी जिनका अधिकतर समय उनके दफ्तर में नहीं बल्कि कोर्ट-कचहरी का चक्कर काटते बीतता था.हवाला कांड से लेकर पेट्रोल पम्प आवंटन घोटाला और दूरसंचार घोटाला तक कितने ही घोटाले राव साहब के समय सामने आये और समय की धूल के नीचे दबकर रह गए.किसी भी मंत्री को सजा नहीं हुई.पंडित सुखराम तो बाद में हिमाचल में किंग मेकर बनकर भी उभरे.इसी दौरान मंडल आयोग के रथ पर सवार होकर लालू दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बने.अचानक मुख्य परिदृश्य पर आगमन हुआ एक बेहद ईमानदार सी.बी.आई. अफसर यू.एन.विश्वास का.बिहार में रोज-रोज नए-नए घोटालों का पर्दाफाश होने लगा.चारा से लेकर अलकतरा तक लालू मंडली खा-पी गई.लालू जेल भी गए लेकिन हाथी पर सवार होकर मानों भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना गौरव की बात हो.बाद में यू.एन.विश्वास के रिटायर हो जाने के बाद सी.बी.आई. भी सुस्त पड़ गई और कई बार तो ऐसा भी लगा कि वह लालू को सजा दिलाने के बदले उसे बचाने का प्रयास ज्यादा गंभीरता से कर रही है.वैसे भी वह अपने ६९ साल के इतिहास में आज तक किसी भी राजनेता को सजा कहाँ दिलवा पाई है? बाद में उत्तर प्रदेश की दलित मुख्यमंत्री मायावती का माया से लगाव के कई मामले भी उजागर हुए.लेकिन इससे उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उनका वोट-बैंक और भी तेजी से बढ़ता गया और वे इस समय अकेले ही उत्तर प्रदेश में सत्ता चला रही हैं.इसी तरह लालूजी भी भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद भी ८ साल तक सत्ता में बने रहे.सी.बी.आई. और अन्य भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां तो सरकारी हुक्म की गुलाम हैं लेकिन सबसे दुखद बात तो यह है कि जनता भी भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं मानती है और उनके बीच यह सोंच विकसित होती जा रही है कि ऐसा तो होता ही है.यह उदासीनता ही देश के लिए सबसे खतरनाक है क्योंकि जनता किसी के हुक्म की गुलाम नहीं है.किसी को सत्ता में पहुँचाना और सत्ता से निकाल-बाहर कर देना उनके ही हाथों में तो है.क्यों और कैसे एक भ्रष्ट नेता जाति-धर्मं के नाम पर जनता को बरगलाकर चुनाव-दर-चुनाव जीतता जाता है?बिहार में २००५ में नीतीश कुमार चुनाव जीते लेकिन रा.ज.द. सरकार के समय सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार इस चुनाव में मुद्दा नहीं था बल्कि वे इसलिए चुनाव जीते क्योंकि इस बार जातीय समीकरण उनके पक्ष में था.उन्होंने वर्षों से सो रहे निगरानी विभाग को जगाया और रोज-रोज भ्रष्ट कर्मी और अफसर रंगे हाथ पकड़े जाने लगे.लेकिन नीतीश भ्रष्टाचार पर प्रभावी प्रहार करने में अब तक असफल रहे हैं क्योंकि अब निगरानी विभाग के अफसर और कर्मी खुद ही घूस खाने लगे हैं.अब इन्हें कौन पकड़ेगा और कौन इनके खिलाफ जाँच करेगा?निगरानी की चपेट में आये कई कर्मी-अफसर घूस देते पकडे जाओ तो घूस देकर छूट जाओ का महान और स्वयंसिद्ध फार्मूला अपनाकर फ़िर से अपने पुराने पदों पर आसीन होने में सफल रहे हैं और फ़िर से भ्रष्टाचार में डूब गए हैं.नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए बिहार सरकार ने प्रत्येक जिले में लोकपाल की नियुक्ति करने का निर्णय लिया है लेकिन लोकपालों की ईमानदारी पर कौन ईमानदारी से नज़र रखेगा?लोकपाल भी भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए तो सरकार के सामने कौन-सा विकल्प बचेगा?कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ तंत्र बनाने या बढ़ाने से इस महादानव की सेहत पर कुछ भी असर नहीं आनेवाला.आवश्यकता है मजबूत ईच्छाशक्ति की.अगर सरकार दृढ़तापूर्वक चाह ले तो वर्तमान तंत्र से भी अच्छे परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं.केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में केंद्रीय सतर्कता आयोग के बजट में ही कटौती कर दी है.क्योंकि सरकार का मानना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लग ही नहीं सकता इसलिए उसने बुरा मत देखो की नीति अपना ली है.भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में पहली और अंतिम उम्मीद सिर्फ जनता है क्योंकि वही किसी मुद्दे को मुद्दा बनाती है, किसी नेता को ताज पहनाती है और सत्ता के मद में चूर नेता को धूल में भी वही मिलाती है.समस्या यह है कि किसी भी राजनीतिक दल का दामन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इतना पाक-साफ नहीं है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी तरीके से आन्दोलन खड़ा कर सके और चला सके.आप अब तक समझ गए होंगे कि भ्रष्टाचार की बीमारी से हमारा देश किस स्तर तक ग्रस्त हो चुका है.सबसे बड़ी चिंता तो यह है इस बीमारी का न तो कोई ईलाज ही ढूँढा जा रहा है और न ही देश को कोई दवा ही दी जा रही है. हाँ सरकारें ईलाज का ढोंग जरूर कर रही है.क्या आपके पास कोई नुस्खा या दवा है?अगर आपका जवाब हाँ में है तो फ़िर हमें भी बताईये न, छिपाने से तो यह बीमारी और भी बढ़ेगी और मरीज यानी हमारा देश कमजोर होगा.

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

जनवितरण प्रणाली:भ्रष्टाचार की नाली

पूरा भारतवर्ष पिछले कुछ वर्षों से महंगाई से परेशान है.महंगाई से निपटने के लिए जनवितरण प्रणाली के नाम से पूरा-का-पूरा एक तंत्र काम करता है.इसके माध्यम से सरकार द्वारा जनता को सस्ते दरों पर सामान दिया जाता है.इसके लिए सरकार हजारों करोड़ रूपये की सब्सिडी देती है.लेकिन इस मन से भी तेज गति से बढती महंगाई के युग में सबसे दुखद बात यह है कि यह जनवितरण प्रणाली पूरी तरह से बेअसर साबित हो रही है.सरकार द्वारा दी जानेवाली अन्य सब्सिडियों की तरह इसमें दी जानेवाली सब्सिडी भी तंत्र चट कर जा रहा है और जनता के हाथ लगता है कुछ भी नहीं.यह प्रणाली अकस्मात भ्रष्ट हो गई हो ऐसा नहीं है.इसे भ्रष्टाचार का रोग लगा है धीरे-धीरे और अब स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि या तो केंद्र और राज्य सरकारों को इससे निबटने का उपाय ही नहीं सूझ रहा है या फ़िर वे यथास्थितिवादी है और सोंचती हैं कि जैसा चल रहा है चलने दो मेरा क्या जाता है?यह विभाग इतना भ्रष्ट हो चुका है कि भ्रष्ट विभागों की अगर कोई सूची बने तो बांकी विभाग काफी पीछे छुट जायेंगे.भ्रष्टाचार की यह नाली निकलती है जिला आपूर्ति अधिकारियों के दफ्तरों से.आप नई दुकान के लिए लाईसेंस लेने जाएँ तो मैं बांकी राज्यों की बात नहीं जानता लेकिन बिहार में आपसे अधिकतर जिला आपूर्ति कार्यालयों में ५० हजार से लेकर १ लाख रूपये तक की रिश्वत मांगी जाएगी.अब दुकानदार इस चढ़ावे की क्षतिपूर्ति कैसे करे, तो वह इकट्ठे दो-तीन महीनों का राशन बेच देता है.तो इस तरह होती है भ्रष्टाचार की इस दुकान की शुरुआत.पर भ्रष्टाचार के मार्ग पर उठा यह कदम दुकानदार बीच में रोक सकता है ऐसा भी नहीं है.इस गाड़ी में तो ब्रेक है ही नहीं.आपसे प्रत्येक महीने किरानियों और अधिकारियों की ओर से कुछ-न-कुछ रकम मांगी जाएगी अन्यथा दुकान का लाईसेंस रद्द होने का खतरा आपके सिर पर मंडराता रहेगा.जबसे अन्त्योदय योजना के तहत सब्सिडाइज्ड दर पर गेंहू और चावल दिया जाने लगा है, दुकानदारों की कमाई (अवैध) और भी बढ़ गई है.अधिकारयों की तरह वे भी लालची जो ठहरे.होता यह है कि बहुत से गरीब तो गरीबी के कारण अनाज लेने जाते ही नहीं हैं और ज्यादातर बार अनाज की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं होती.हर दो-तीन महीने में एक बार यह सारा का अनाज कालाबाजार में पहुँच जाता है.इतना ही नहीं कुछ यही हाल होता है किरासन तेल का भी.शहरों और महानगरों में उतना बुरा हाल नहीं है लेकिन गावों में जहाँ और भी ज्यादा गरीबी है वहां के अधिकतर डीलर ऐसा ही करते हैं.कुछ डीलरों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी हो गई है कि वे स्थाई संपत्ति यथा जमीन और मकान भी धड़ल्ले से खरीद रहे हैं.हालांकि इन डीलरों की गावों में कोई ईज्जत नहीं करता लेकिन इससे इनका क्या बिगड़ता है?मेरे पिताजी एक छोटे स्टेशन के स्टेशन मास्टर के बारे में बताते हैं कि वह जब ट्रेन स्टेशन पर आकर लगने को होती तब घंटी बजाता.लोग गिरते-पड़ते टिकट खिड़की की ओर दौड़ते.वह स्टेशन मास्टर सभी यात्रियों के कुछ-न-कुछ खुल्ले रख लेता और कहता कि खुल्ले नहीं हैं.लोग गालियाँ देते हुए ट्रेन की ओर दौड़ते.एक बार गर्मी की छुट्टियों में उसका बेटा वहां आया हुआ था उसने पिता से शिकायत की कि वे ऐसा काम क्यों करते हैं जिससे लोग उन्हें गालियाँ देते हैं तो उसने हंसकर कहा बेटा कुछ लेते तो नहीं हैं कुछ देकर ही तो जाते हैं चाहे गालियाँ ही सही.कुछ इसी तरह हमारा यह विभाग भी बेशर्म हो चुका है.अब तक किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने इस विभाग से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाया है जबकि सबको पता हैं कि यह जनवितरण प्रणाली की जगह भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली बन चुकी है.कब तक जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा सब्सिडी के माध्यम से भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता रहेगा?कोई भी दल जब तक विपक्ष में रहता है तब तक तो भ्रष्टाचार मिटाने के लम्बे-चौड़े वादे करता है परन्तु सत्ता में आते है इस भ्रष्ट प्रणाली का एक हिस्सा बनकर रह जाता है.सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस विभाग से भ्रष्ट अधिकारियों को बर्खास्त करने की दिशा में कदम सुनिश्चित करना चाहिए.केंद्र को राज्यों के साथ भी इस मामले में बातचीत करनी चाहिए.अधिकारियों पर कार्रवाई होते ही दुकानदार खुद ही रास्ते पर आ जायेंगे.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

सपने और हकीकत

यूं तो गीता सार को मैं हजारों बार पढ़ चुका हूँ और गीता को भी सैंकड़ों बार.मैं जानता हूँ कि दुनिया में मैं कुछ ही समय के लिए आया हूँ और सबकुछ भगवान का है.लेकिन फ़िर भी मैं न जाने कैसे बार-बार माया में उलझ जाता रहा हूँ.मैंने जब होश संभाला तो मुझे पता चला कि क्या-कौन-कैसे मेरा है और क्या-कौन-कैसे मेरा नहीं है.फ़िर मेरे हाथ लगे बहुत सारे धर्मग्रन्थ जिनमें मैंने पढ़ा कि सब माया है लेकिन शायद इस मूलमंत्र को आत्मसात नहीं कर पाया.इंटर से पहले भी मैं सपने देखा करता था लेकिन वे बचकाने होते थे.इससे पहले मैंने अपनी भावी जिंदगी के बारे में नहीं सोंचा था.वैसे मैं पढने में बहुत अच्छा नहीं तो अच्छा तो था है.इंटरमीडिएट के दौरान मुझे अपने गणित-ज्ञान पर बहुत गर्व था और लगता था जैसे इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास करना तो मेरे लिए बाएं हाथ का खेल है.लेकिन जब आई.आई.टी. और बी.आई.टी. की प्रारंभिक परीक्षाओं में मैं गणित के पर्चे में जब प्रीमियर में कोचिंग करने के बावजूद एक भी प्रश्न हाल नहीं कर पाया तो मेरा घमंड चकनाचूर हो गया. इसी दौरान किसी तरह से मैं पोलिटेक्निक प्रवेश परीक्षा पास कर गया.मेरा नामांकन दरभंगा पोलिटेक्निक में सिविल इंजीनियरिंग में हुआ.कुछ प्रतियोगियों द्वारा नामांकन नहीं लेने के कारण मुझे अपना ट्रेड बदलने का अवसर मिला.उस समय सिविल इंजीनियरिंग अच्छा नहीं माना जाता था.अब मैंने पूर्णिया पोलिटेक्निक में विद्युत ट्रेड में पुनर्नामांकन करवा लिया.मन में नया उत्साह था, नयी उमंगें थीं.लेकिन कर्ता के मन में तो कुछ और ही था-तेरे मन कछु और है कर्ता के कछु और.जातिवाद की आग में झुलसते इस शहर में मुझे राजपूत जाति में जन्म लेने का खामियाजा भुगतना पड़ा और मेरी पढाई दो साल की पढाई पूरी कर लेने के बावजूद अधूरी रह गई, मेरे इंजीनियर बनने के सपने अधूरे रह गए.लेकिन आँखें अभी थकी नहीं थी सपने देखने से.अब उनमें एक नया सपना आई.ए.एस. बनने का बस गया था.मैंने ए.एन. कॉलेज, पटना से बी.ए. किया और दिल्ली के प्रसिद्ध राउज आई.ए.एस. स्टडी सर्किल में कोचिंग ली.इससे पहले मैंने एक बार घर पर रहकर ही यू.पी.एस.सी. की परीक्षा दी थी जिसमें मैं १० प्रतिशत प्रश्नों के भी सही उत्तर नहीं दे पाया था.कोचिंग के दौरान की गई मेहनत ने रंग दिखाया और मैं वहां आयोजित होनेवाली आतंरिक मूल्यांकन परीक्षाओं में प्रथम आने लगा.जैसे सपनों को नए पंख लग गए.मैं अपने को सचमुच का आई.ए.एस समझने लगा था.मुझे भी बिन पिए ही नशा हो गया था जैसे प्रेमचंद को नशा कहानी में हो गया था.मैं लगातार तीन बार पी.टी. में सफल और मुख्य परीक्षा में असफल होता रहा.जब मैं चौथी बार (मुझे कुल चार बार ही परीक्षा में बैठने की अनुमति थी) भी मुख्य परीक्षा में असफल घोषित कर दिया गया.तब एकबारगी जैसे मेरे सारे सपने समाप्त हो गए थे.मैं अब अकेला था यथार्थ की निर्मम जमीन पर लुटा-पुटा सा, निराश और हताश.अब समस्या यह थी कि मैं करूँ क्या?सपने खत्म हो गए थे लेकिन जीवन तो बांकी था.अभी तो सिर्फ ट्रेलर समाप्त हुआ था पूरी-की-पूरी फिल्म बची हुई थी.अंत में काफी सोंच-विचार के बाद मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र को चुना.मेरा कैरियर शुरू हुआ हिंदुस्तान, पटना से.मुझे कहा गया था कि तुम्हारा वेतन ६००० रूपये मासिक होगा लेकिन ६ महीने बाद जब मेरे हाथ में पैसे आये तो तीन हजार मासिक की दर से.मुझे एक बार फ़िर सपनों के टूटने जैसा अहसास हुआ.इसी बीच मैंने बी.पी.एस.सी. की प्रारंभिक परीक्षा दी और सफल भी हो गया, वो भी बिना एक मिनट पढाई किये.ऑफिस से रात की ड्यूटी करके अर्द्ध जाग्रतावस्था में परीक्षा दी थी.एक बार फ़िर मेरी आँखों में जगते-सोते एस.डी.ओ. बनने के सपने के सपने तैरने लगे.मैंने अपनी नौकरी जिससे मैं संतुष्ट भी नहीं था को छोड़ दिया और जी-जान से सपनों को सच करने के इस आखिरी मौके के लिए मेहनत शुरू कर दी.अभी कुछ ही दिन पहले मुख्य परीक्षा का परिणाम आया है.मैं एक बार फ़िर मुख्य परीक्षा में जाकर छंट गया हूँ.लेकिन आधी से भी ज्यादा जिंदगी अब भी बांकी है.मेरे साथ सपनों ने धोखा किया.लेकिन कभी मेरे मन में आत्महत्या का विचार तक नहीं आया.मैं इतना कायर नहीं हूँ कि बिना लड़े ही हथियार डाल दूं.मुझे निराशा तो होती है लेकिन सब कुछ हमारे हाथों में है ही कहाँ!हमारे हाथों में है सपने देखना और उसे हकीकत में बदलने के लिए प्रयास करनासपने सच होंगे या नहीं यह तो किसी और के हाथों में है.अगर कोई मुझसे पूछे कि कौन-सा दर्द सबसे दर्दनाक होता है तो बेशक मैं कहूँगा कि सपनों के टूटने का दर्द.इसलिए अब मैंने सपने नहीं देखने का संकल्प लिया है और अपनी बची हुई जिंदगी भगवान को समर्पित कर दिया है. खुद को जीवन-नदी की अनवरत बहती धारा में डालकर छोड़ दिया है.देखें कहाँ किस घाट पर जाकर नाव किनारे पर लगती है.

बुधवार, 24 मार्च 2010

पत्रकार हैं या भ्रष्टाचार के देवता

साहित्य की दुनिया में उत्तर मुग़ल काल को रीतिकाल कहा जाता है.इस काल की अधिकतर साहित्यिक रचनाएँ विलासिता के रंग में डूबी हुई हैं.लेकिन उस काल का समाज ऐसा नहीं था.आम आदमी अब भी धर्मभीरु था और भगवान से डरनेवाला था.कहने का तात्पर्य यह कि सामाजिक रूप से वह काल रीतिकाल नहीं था.सिर्फ दरबारों में इस तरह की संस्कृति मौजूद थी.सामाजिक रूप से वर्तमान काल रीति काल है.ऋण लेकर भी लोग घी खाने में लगे हैं.नैतिकता शब्द सिर्फ पढने के लिए रह गया है.तो इस राग-रंग में डूबे काल में जब साधू-संत तक राग-निरपेक्ष नहीं रह पा रहे हैं तो फ़िर पत्रकारों की क्या औकात?पत्रकारिता का क्षेत्र भी गन्दा हो चुका है और उसे सिर्फ एक मछली गन्दा नहीं कर रही हैं बल्कि ज्यादातर मछलियाँ कुछ इसी तरह के कृत्यों में लगी हैं.हिंदुस्तान, पटना के अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान मैंने भी ऐसा महसूस किया.ग्रामीण या कस्बाई स्तर के लगभग सभी संवाददाता पैसे लेकर समाचार छापते हैं.कोई भी अख़बार इसका अपवाद नहीं है.यहाँ तक कि एक बार मैंने भी जब एक खबर छपवाई तो मेरे ही मातहत काम करनेवाले लोगों ने मुझसे महावीर मंदिर, पटना के प्रसाद की मांग कर दी.मैंने उनकी इस फरमाईश को पूरा भी किया और पिताजी के हाथों अपने हाजीपुर कार्यालय में प्रसाद भिजवाया.मुझे पहले से पता था कि पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या कुछ होता है इसलिए मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ, हाँ दुःख जरूर हुआ और इससे भी ज्यादा दुःख की बात तो यह है कि ऐसा सिर्फ ग्रामीण या कस्बाई स्तर पर ही नहीं हो रहा है महानगर भी पेड न्यूज़ की इस बीमारी से बचे हुए नहीं हैं.मैं अपने एक ऐसे पूर्व सहयोगी को जानता हूँ जो जब भी किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाते तो उनका पूरा ध्यान वहां मिलनेवाले गिफ्ट पर रहता और वे गिफ्ट को रखने पहले घर जाते तब फ़िर ऑफिस आते.आज का युग त्याग और आदर्शों का युग नहीं है यह तो रीतिकाल है फ़िर हम सिर्फ पत्रकारों से नैतिकता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?लेकिन फ़िर सवाल उठता है कि समाज को दिशा देने का भार जिनके कन्धों पर है कम-से-कम उनसे तो समाज कुछ हद तक ही सही नैतिक होने की उम्मीद तो कर ही सकता है.आज कई पत्रकारों पर वेश्यागमन के आरोप भी लग रहे है तो हमारे कई भाई नई तितलियों के शिकार के चक्कर में लगे रहते हैं.एक वाकया मुझे इस समय याद आ रहा है.एक वरिष्ठ पत्रकार जिनका स्नेहिल होने का अवसर मुझे मिला है ने अपने एक पत्रकारीय शिष्य के यहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में नवागंतुक एक छात्रा के लिए सिफारिश की.छात्रा को टी.वी. चैनल में नौकरी मिल गई.कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा.एक सप्ताह बाद नौकरी दिलानेवाले ने छात्रा से कहा कि उन्हें शिमला जाना है और वह भी अकेले.अकेलापन बाँटने के लिए तुम्हें भी साथ चलना होगा.आमंत्रण में छिपा संकेत स्पष्ट था.बॉस उसके देह के साथ खेलना चाहते थे.वह घबरा गई और उसने गुरूजी से बात की.गुरूजी ने अपने पुराने शिष्य को खूब डांट पिलाई और छात्रा को नौकरी छोड़ देना पड़ा.अब ऐसे पत्रकारों को अश्लील उपन्यास की तरह अपवित्र न समझा जाए तो क्या समझा जाए?यह छात्रा तो बच गई लेकिन कितनी छात्राएं बचती होंगी?वर्तमान काल के ज्यादातर पत्रकारों का सिर्फ एक ही मूलमंत्र है पैसा कमाओ और इन्द्रिय सुख भोगो मानो पत्रकार नहीं पौराणिक इन्द्र हों.हमारे अधिकतर पत्रकार पत्रकारिता कम चाटुकारिता ज्यादा करते हैं.अपने वरिष्ठ सहयोगियों का सम्मान करना बुरा नहीं है और ऐसा करना भी चाहिए लेकिन इतना नहीं कि उसकी श्रेणी बदल जाए और वह चापलूसी बन जाए.हमारे कई मित्र तो इस कला में इतने पारंगत हैं कि वे इसकी मदद से संपादक तक बन गए हैं.हम मानव हैं और हमें बिना पूंछ के कुत्ते की तरह का व्यवहार शोभा नहीं देता.अंत में मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि पत्रकारिता में भी रीतिकाल आ चुका है.लेकिन पत्रकारों के दायित्व समाज के बांकी सदस्यों से अलग और ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.हमें इसलिए तो चौथा स्तम्भ कहा जाता है.इसलिए हम यह कहकर अपने कर्तव्यों से नहीं भाग सकते कि हम भी समाज का ही एक भाग हैं.बेशक हम समाज का एक हिस्सा हैं लेकिन हमारा काम चौकीदारों जैसा है जिसका काम है समाज को चिल्ला-चिल्ला कर सचेत करते रहना और कहते रहना-जागते रहो. न कि खुद ही सो जाना या विलासिता में डूब जाना.

मंगलवार, 23 मार्च 2010

मंडल और कमंडल का क्षीण होता प्रभाव, नए संकेत नई संभावनाएं

कुछ लोग १९६७ को भारतीय राजनैतिक इतिहास का प्रस्थान बिंदु मानते हैं.लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता.मैं मानता हूँ कि यह दर्जा ८० के दशक को दिया जाना चाहिए.जिन प्रवृत्तियों की ६७ में शुरुआत हुई थी ८० के दशक में वे परिणति को प्राप्त हुई.६७ तो शुरुआत भर हुई थी.८० के दशक में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और उनके बड़े पुत्र राजीव प्रधानमंत्री बने.लेकिन राजनीतिक समझदारी के अभाव के चलते सफल नहीं रहे.उन्होंने अयोध्या के राम मंदिर का ताला खुलवाकर कर जैसे अपनी ही जड़ें खोद ली.भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर निर्माण को मुद्दा बना दिया.यह सब चल ही रहा था कि उन्हीं के वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उनके खिलाफ भष्टाचार और दलाली का आरोप लगाया.बाद में सभी समाजवादियों को एकजुट करके उन्होंने जनता दल का गठन किया.८९ के चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ.वी.पी.सिंह की सरकार लंगड़ी थी और दोनों ओर से बैशाखी का काम किया भाजपा और वामदलों ने.भाजपा ने पॉँच सालों में ही राममंदिर की लहर के चलते अपनी सीटों को २ से बढाकर ८८ कर लिया था और भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन गई थी.१९९० में वी.पी.सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्टों को लागू करने की घोषणा करके जैसे राजनीतिक तूफ़ान खड़ा कर दिया.हालांकि भाजपा द्वारा समर्थन वापसी के कारण उनकी सरकार गिर गई लेकिन इस मुद्दे ने एकबारगी पूरे देश को आरक्षण समर्थकों और विरोधियों के दो खेमों में बाँट दिया.पूरे उत्तर भारत में गृह युद्ध जैसे हालत पैदा हो गए.बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने आरक्षण का पुरजोर समर्थन किया.सामाजिक न्याय अब लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गया.हालांकि मंडल की सिफारिशों को लागू किया नरसिंह राव की सरकार ने लेकिन इस प्रकरण लाभ उठा ले गए लालू और मुलायम.लालू ने बिहार के विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किया फ़िर भी लम्बे समय तक मंडल की लहर काटते रहे.भ्रष्टाचार के आरोपों की लड़ी लग जाने के बाद १९९७ में अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ी को मुख्यमंत्री बनाकर उन्होंने भारतीय राजनीतिक जगत में बिहार को हास्य का पत्र बना दिया.१५ सालों में बिहार का विकास ऋणात्मक हो गया.आखिर कब तक मंडल का जादू चलता?इस बीच उनके ही पुराने साथी नीतीश कुमार ने उनके पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगानी शुरू कर दी थी.वर्ष २००५ में वो दिन भी आया जब लालू को बिहार में अपनी जमीन खिसकती दिखी.मंडल के एक और योद्धा रामविलास पासवान ने बिहार में तीसरा ध्रुव बनाने में सफलता पाई और उनके द्वारा किसी भी गठबंधन को समर्थन नहीं देने के कारण २००५ में दुबारा विधानसभा चुनाव करवाना पड़ा जिसके बाद नीतीश कुमार बिहार के भाग्यविधाता बन गए.लालू जी १५ वर्षों तक सिर्फ बातें बनाते रहे.जनता आखिर कब तक एक मशखरे (बाद के दिनों में लालू यही रह गए थे) को बर्दाश्त करती?वैसे भी कोई एक ही मुद्दा के बल पर बार-बार चुनाव नहीं जीत सकता.उत्तर प्रदेश में भी मायावती ने मुलायम के वोट बैंक में सेंध लगा दी.हालांकि मुलायम का यूपी में उस तरह से कभी एकछत्र राज नहीं रहा जिस तरह बिहार में लालू का था.यूपी और बिहार दोनों ही जगहों की जनता अब विकास भी चाह रही थी सिर्फ सामाजिक विकास से काम चलनेवाला नहीं था.उधर भाजपा ने राममंदिर आन्दोलन के रथ पर सवार होकर १९९८ में केंद्र में अपनी सरकार बनाने में सफलता पा ली.१९८४ के लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो सीटें जीतने वाली पार्टी के पास अब १५० से भी ज्यादा सीटें थी.भाजपा ६ सालों तक केंद्र में सत्ता में रही लेकिन इस बीच उसने राममंदिर बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया.२००४ के चुनाव में पराजय के बाद से उसके मत प्रतिशत में क्षरण अनवरत जारी है.उसके पास अब वाजपेयी जैसा कोई सर्वस्वीकृत चेहरा भी नहीं है.इसलिए बार-बार उसका अंतर्कलह सतह पर आता रहता है.इन परिस्थितियों में भारतीय राजनीति की जो तस्वीर भविष्य में हो सकती है उसके बारे में निश्चित होकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता.हो सकता है कि कांग्रेस और भी मजबूत हो या यह भी हो सकता है जिसकी सम्भावना कम ही है कि भाजपा फ़िर से मजबूत हो जाए.गठबंधन का दौर निश्चित रूप से जारी रहेगा और क्षेत्रीय पार्टियाँ निकट भविष्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेंगी.वैसे तो भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अब मंडल और कमंडल का प्रभाव अब समाप्ति पर है.लेकिन राजनीति कोई ऐसा तालाब नहीं है जिसमें पत्थर गिरे और तरंगें कुछ पल हलचल पैदा कर शांत हो जाएँ इस क्षेत्र में प्रत्येक मुद्दें का स्थाई प्रभाव होता है.मंडल ने जहाँ पिछड़ों में सत्ता की भूख जगा दी है और समाज को उनको अगड़ों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है वहीँ राममंदिर आन्दोलन यानी कमंडल ने जनता के सामने कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प उपलब्ध करा दिया है.आज भले ही मंडलवादी बहुत कम जगह सत्ता में हों भाजपा की तो कई राज्यों में अब भी सरकार चल रही है.

सोमवार, 22 मार्च 2010

पहले अपना रूख स्पष्ट करें लालू-पासवान

भारत में जमीन का मामला हमेशा से संवेदनशील रहा है.इन दिनों बिहार में बटाईदारी कानून लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है.बिहार सरकार ने भूमि-सम्बन्धी मामलों पर विचार करने के लिए भूमि सुधार आयोग का गठन किया था जिसे बंदोपाध्याय आयोग भी कहा जाता है.इसने अपनी रिपोर्ट दे दी है लेकिन सवर्णों की नाराजगी के भय से राज्य सरकार ने इसे ठन्डे बस्ते में डाल दिया है.विपक्षी नेता खासकर पिछड़ों के नेता लालू प्रसाद और दलित नेता रामविलास पासवान बार-बार सरकार से इस रिपोर्ट के सम्बन्ध में अपना रूख स्पष्ट करने के लिए कह रहे हैं.वास्तव में वे ऐसा करके इसके लागू होने से संभावित लाभ में और नुकसान में रहनेवाली दोनों तरह की जातियों के बीच ग़लतफ़हमी पैदा करना चाहते हैं.इस तरह वे दोनों ही खेमों की जातियों के मतों को अपनी ओर खींचना चाहते हैं.अगर वे अपना इस मामले में अपना रूख स्पष्ट कर देते हैं तो उन्हें सिर्फ एक ही खेमे का समर्थन मिल पायेगा और दूसरा पक्ष नाराज हो जायेगा.इसलिए वे रिपोर्ट पर अपना पक्ष स्पष्ट नहीं कर रहे हैं.सरकार ने तो अपना पक्ष बार-बार स्पष्ट किया है कि उसका इस तरह का कोई भी बिल लाने का ईरादा ही नहीं है.पहले दोनों विपक्षी नेता अपना रूख स्पष्ट कर दें तभी उनका सरकार की मंशा पर ऊंगली उठाने का नैतिक अधिकार बनेगा और दूसरी सम्भावना यह भी बनती है कि दो नावों की सवारी के चक्कर में उनकी लुटिया ही न डूब जाए.

रविवार, 21 मार्च 2010

तुगलक के हाथों में बिहार

भारतीय इतिहास का नेकनाम सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक बहुत ही विद्वान आदमी था.लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह कभी सफल नहीं रहा.उसकी योजनायें शानदार होती थीं लेकिन उसका क्रियान्वयन उतना ही घटिया होता था.इसलिए उसे हर बार अपनी योजनायें वापस लेनी पड़ती थी.हमारे बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश जी और तुगलक में काफी साम्य है.इनके दिमाग में भी तरह-तरह की योजनायें कुलबुलाती रहती हैं.हाल में उन्होंने अपने शासनकाल का सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाया है.उन्होंने बाबुओं का बी.डी.ओ. आदि के रूप में प्रोमोशन कर दिया है.क्या शानदार कदम है!जो बाबूलोग विभिन्न सरकारी योजनाओं की अधिकतर राशि बिना डकार लिए निगल जाते थे पदाधिकारी के रूप में कितना शानदार काम करेंगे.क्या आईडिया है सरजी!आपकी बेजोड़ कल्पना शक्ति का प्रथम परिचय हमें मिला था तब जब आपने २००६ में बिना परीक्षा के शिक्षा मित्रों की बहाली करने का निर्णय लिया था.आपने मुखियों को बहाली का अधिकार देकर उनको कमाने और अपने भाई-भतीजों को नौकरी देने का नायाब अवसर भी तो दिया था.भाई-भतीजावाद रोकने का कितना मौलिक तरीका था आपका!बाद में आपने शिक्षा मित्रों की परीक्षा भी ली लेकिन इतने आसान प्रश्न पूछे गए कि असफल होनेवालों के नाम ऊंगलियों पर गिनाये जा सकते थे.अब आप फ़िर दौलताबाद से दिल्ली वापस जाने यानी परीक्षा लेकर स्थाई शिक्षकों को नियुक्त करने पर विचार कर रहे हैं.इसके बाद आपने जनवितरण प्रणाली के माध्यम से वितरण के लिए कूपन देने की घोषणा की.कूपन वितरण में लूट मच गई और कई जगहों पर तो बी.डी.ओ. साहब भी पिट गए.अब फ़िर से आपकी सरकार राशन कार्ड के पुराने विकल्प पर लौट आई है.पंचायतों में आरक्षण आपका ऐसा निर्णय था जिसकी तुलना तुगलक की किसी भी करनी से नहीं की जा सकती.आपने पंचायतों में पचास प्रतिशत आरक्षण कर दिया.स्थितियां इस तरह की हो गई कि जिन पंचायतों में ९९ प्रतिशत तक सवर्ण थे वहां से भी दलित और अति पिछड़े चुने जाने लगे.मैंने तो सुना था कि लोकतंत्र बहुमत से चलता है लेकिन आपने लोकतंत्र के इस मौलिक सिद्धांत की ऐसी-तैसी कर दी.अब पंचायती लोकतंत्र बहुमत से नहीं बल्कि आरक्षण से चलता है.क्या मौलिक सोंच है!बहुमत का अपमान होता है तो हो आपका वोट बैंक बढ़ते रहना चाहिए.इतना ही नहीं आपने विधान-सभा में घोषणा की कि हम विश्वविद्यालय शिक्षकों की सेवानिवृत्ति की आयु बैक डेट से ६५ वर्ष करने को तैयार हैं.लेकिन अब आप बैक डेट से ऐसा करने को कतई तैयार नहीं हैं.बहुत अच्छा यू-टर्न लिया है आपने.इसके लिए निश्चित रूप से आपकी प्रशंसा की जानी चाहिए.आप बराबर सुशासन की बात करते रहते हैं और पंचायतों में तो सुशासन आ भी गया है.नरेगा समेत सारी योजनायें धरातल पर चल ही नहीं रही हैं.कागज पर ही तालाब खुद रहे हैं, मछलियाँ भी पाली जा रही हैं.सारे ग्रामीण मजदूर अचानक अनपढ़ हो गए हैं और उन्होंने अंगूठा का निशान लगाना शुरू कर दिया है ठीक उसी तरह जैसे वोट गिराने के समय जनता अनपढ़ हो जाया करती है खासकर तब जब बूथ कब्ज़ा हो जाता है.लेकिन आप को तो काम से मतलब है नहीं आपको तो बस साल में दस-बीस पुरस्कार मिलते रहने चाहिए.हमारे इतिहास-पुरुष तुगलक पर समय से आगे होने का आरोप लगाया जाता है ऐसा ही आरोप आप पर भी लग सकता है.लेकिन आप जैसे लोग समय से आगे रहते ही क्यों हैं?क्या आपलोग समय के साथ नहीं चल सकते?कौन रोकता है आपको बी.पी.एस.सी. की परीक्षा हर साल लेने से?कोई भी नहीं.लेकिन यहाँ तो आप समय से पीछे हैं आगे भी हो सकते हैं मैं उपाय बताता हूँ.आप एडवांस में परीक्षा ले लीजिये.आपकी महिमा तो इतनी अनंत है कि आपकी तुलना में तुगलक कहीं नहीं ठहरता है.निश्चिन्त रहिये आपको कहीं-न-कहीं से बहुत जल्द तुगलक पुरस्कार भी मिल जायेगा लेकिन इससे आपका नहीं बल्कि स्वयं पुरस्कार का ही सम्मान बढेगा.

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

शिक्षा-प्रणाली में सुधार जरूरी

कल हाजीपुर के कई महाविद्यालय युद्ध का मैदान बन गए.सिर्फ राजनारायण महाविद्यालय को ही दस लाख का नुकसान हुआ.कॉलेज प्रशासन का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने इंटर की परीक्षा में सख्ती बरती थी और परीक्षार्थियों को नक़ल करने से रोका था.विद्यार्थी आखिर क्यों पढाई करते हैं?ज्ञान के लिए या डिग्री के लिए.हमारी शिक्षा प्रणाली ही इतनी दोषपूर्ण है कि इसमें ज्ञान और हुनर का कोई महत्व नहीं है.सिर्फ हमारी स्मरण शक्ति की या दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी रटने की क्षमता की परीक्षा ली जाती है.इसलिए तो हमारे छात्र किसी भी तरह से कॉपी भरने में विश्वास करते हैं.हम ज्ञानी नहीं बेरोजगार पैदा कर रहे हैं.सबको एक-एक डिग्री थमा दी जाती है जिसका व्यावहारिक जीवन में कोई काम नहीं रहता, कोई जरूरत नहीं पड़ती.वास्तव में हमें इनमें हुनर पैदा करनी चाहिए जो नहीं हो पा रहा है.इसलिए सड़ी-गली शिक्षा प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन करने की जरूरत है.ऐसा करने के लिए आत्मविश्वास के साथ-साथ अदम्य इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता होगी.लेकिन हमारी केंद्र सरकार को तो अपने और अपने लोगों की प्रतिभा पर भरोसा ही नहीं है उसे तो विश्वास है कि विदेशी विश्वविद्यालय ही हमारी शिक्षा का उद्धार कर सकते हैं. दूसरी बात बिहार पहले से ही नक़ल को लेकर बदनाम रहा है.हालांकि यहाँ के विद्यार्थियों ने पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है.इस तरह की तोड़-फोड़ से राज्य की बदनामी होगी जो सभी बिहारियों के लिए नुकसानदेह होगी.इसलिए युवाओं को इस तरह से उपद्रव नहीं मचाना चाहिए.वैसे भी उनकी मांगे जायज नहीं थी और अगर सरकार स्वयं कदाचार को बढ़ावा देती तब भी नुकसान तो अंततः परीक्षार्थियों को ही होना है.विद्यार्थी अपने आत्मविश्वास को जागृत करें और संकल्प लें कि इस बार न सही अगली बार पास होंगे लेकिन सही तरीके से अपने बल पर न कि कदाचार के माध्यम से.

आतंक से समझौता

लश्कर तोईबा और मुंबई हमलों से जुड़े अमेरिकी नागरिक हेडली के साथ अमेरिका ने समझौता कर लिया है.हेडली अपना जुर्म कबूल करते हुए सरकारी गवाह बन गया है.हेडली मूल रूप से पाकिस्तानी मुसलमान है.उसकी स्वीकारोक्ति से एक तरफ जहाँ भारत के इस आरोप को दम मिला है कि मुंबई हमलों की साजिश पाकिस्तान से रची गई थी वहीँ दूसरी ओर इस बात से भारतीय कूटनीति को झटका भी लगा है कि अमेरिका ने हेडली से समझौता कर लिया है और अब उसे भारत के हाथों नहीं सौंपा जायेगा.भारत सिर्फ उससे पूछताछ कर सकता है.इसे भारत की कूटनीतिक हार माना जाना चाहिए.भारतीय कूटनीतिक तैयारियों में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई कमी रह गई जिससे यह दिन देखना पड़ा है.भारत ने लगता है कि अपनी कूटनीति को अमेरिका के हाथों रेहन रख दिया है.अब सौंप दिया अपनी कूटनीति का हर बात तुम्हारे हाथों में, है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में.कुछ साल पहले तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर पर अमेरिकी हितों में काम करने का और ब्रिटिश हितों की अनदेखी करने का आरोप लगा था.मनमोहन सिंह ने भी कुर्सी सँभालते ही अमेरिका के हित में भारतीय हितों की बलि देना शुरू कर दिया था.इसका सबसे बड़ा सबूत है ईरान के खिलाफ बार-बार मतदान करना.अमेरिका भला क्यों भारत के हितों को देखेगा?वह एक संप्रभु देश है और उसके अपने अंतर्राष्ट्रीय हित-अनहित हैं.यह समझौता तो महज एक शुरुआत है अफगानिस्तान में भी हमारे हितों को झटका लग सकता है क्योंकि अमेरिका तालिबानी आतंकवादियों से समझौता करने को व्याकुल हो रहा है.

बुधवार, 17 मार्च 2010

क्या भारत मुर्दों का देश है?

कहा जाता है कि भारत त्योहारों का देश है होगा और है भी लेकिन उससे ज्यादा बड़ा सत्य भारत के बारे में यह है कि यह इंतजारों का देश है.इस देश में आजकल सालोंभर इंतजारों का मौसम रहता है.ट्रेन में आरक्षण करवाया है तो ट्रेन का इंतजार कीजिये.इस प्रकार का इंतजार १ घन्टे से लेकर १ दिन तक का हो सकता है.ए.टी.एम. से पैसा निकालना है तो आपको कम-से-कम आधे घन्टे तक इंतजार करना पड़ेगा.ट्रेन के लिए सामान्य या आरक्षित टिकट लेना है तब भी आपको कम-से-कम आधे घन्टे के लिए लाइन में लगना पड़ेगा.आज मुझे इनसे अलग तरह के इंतजार के दर्द से गुजरना पड़ा.आज सुबह से हमारे शहर हाजीपुर में बिजली नहीं थी.मैं दिनभर एफ.एम. पर गाने सुनता रहा लेकिन जी नहीं लग रहा था.आखिर रात के सवा नौ बजे यानी अब से कुछ देर पहले इंतजार समाप्त हुआ है लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि कब बिजली गुल हो जाए और मुझे फ़िर से इंतजार की इन्तहां होने का इंतजार करना पड़े.इतना ही नहीं हम भारतीय असीम धैर्य के साथ आज ६० साल से इंतजार कर रहे हैं गरीबी के समाप्त होने का और भारत के विकसित होने का.जब बिहार में २००५ में नीतीश सरकार ने सत्ता संभाली तब हमारे मन में उम्मीद जगी कि अब बिहार का कायाकल्प होकर रहेगा.लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब सरकार कह रही है कि २०१५ तक वह बिहार की सभी सड़कों को विश्वस्तरीय बना देगी और २०१५ तक बिहार के पास पर्याप्त बिजली होगी.यानी यह सरकार भी इंतजार करने को कह रही है.लेकिन हमें तभी इंतजार करना पड़ेगा जब यह सरकार दोबारा सत्ता प्राप्त कर ले.वरना दूसरी सरकार बन गई तो न जाने कब तक इंतजार करने को कह दे.उधर केंद्र सरकार तो कोई समय सीमा भी नहीं बता रही कि हमें भारत को विकसित देशों की जमात में शामिल होते और भारत से गरीबी ख़त्म होते देखने के लिए और कितने सालों तक इंतजार करना पड़ेगा.वैसे भी किसी सरकार द्वारा दी गई समय सीमा कौन-सी सही साबित होनी है?तारीख-पे-तारीख-यही तो हमारी नियति बन चुकी है.हम इंतजार करने से नहीं डरते.हमें इसकी आदत जो पड़ गई है लेकिन प्रत्येक चीज की एक सीमा होती है यहाँ तक कि आदमी के धैर्य की भी.लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौमें ५ सालों तक इंतजार नहीं करती.तो क्या भारत जिंदा लोगों का देश नहीं है?

मंगलवार, 16 मार्च 2010

खेत खाए गदहा मार खाए जोलहा

क्या आपने यह कहावत सुनी है-खेत खाए गदहा मार खाए जोलहा.हालांकि यह कहावत जो जैसा करेगा वैसा भरेगा के भारतीय कर्मफल के सिद्धांत को झुठलाता है लेकिन कभी-कभी यह कहावत चरितार्थ होते भी दिखाई दे जाता है.हुआ यूं है कि हमारी आम आदमी की सरकार ने सर्वशक्तिमान अमेरिका के साथ एक बहुत ही खास समझौता किया है परमाणु समझौता.इस समझौते के अनुसार अमेरिका भारत में परमाणु ऊर्जा के विकास में सहायता करेगा.पिछले दिनों केंद्र की मनमोहिनी-जनमोहिनी सरकार ने इस समझौते से होनेवाले फायदों को खूब बढ़ाचढ़ा कर दिखाया.जबकि परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन की अपनी सीमाएं हैं और वह कभी भी हमारी ऊर्जा जरूरतों का २० प्रतिशत से ज्यादा को पूरा नहीं कर कर सकती.अब हमारी केंद्र सरकार संसद में एक विधेयक लाने जा रही है जिसका उद्देश्य अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों की मांगों को पूरा करना है.भारत में नाभिकीय रिएक्टर लगाने के लिए इच्छुक ये कम्पनियाँ चाहती हैं कि परमाणु दुर्घटना की स्थिति में उन पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाए और न ही आर्थिक दंड ही लगाया जाए.उनके बदले भारत सरकार प्रभावित होनेवाले लोंगों को हर्जाना दे.यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है कि जो अपराध करे सजा भी उसी को मिले.सरकार ने इसे लोकसभा में पेश करने का मन भी बना लिया था लेकिन सदन में स्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण उसने कदम पीछे खींच लिए.जब समझौते के बाद प्राप्त होनेवाली ऊर्जा हमारी जरूरतों को पूरा कर ही नहीं सकती तब फ़िर क्या जरूरत है ऐसे समझौते की और देश की हजारों जनता के जीवन को खतरे में डालने की.भगवान न करे कल विदेशी कम्पनियों द्वारा बने रिएक्टरों में कोई दुर्घटना हो जाती है तो वह दुर्घटना कोई साधारण दुर्घटना नहीं होगी और उसके कुपरिणाम आनेवाली कई पीढ़ियों को झेलने पड़ेंगे.भोपाल गैस दुर्घटना के बाद देश में जो कुछ भी नौटंकी हुई वह किसी से भी छुपी नहीं है.फ़िर किस तरह सरकार अपनी करोड़ों जनता की जिंदगी विदेशी कंपनियों के हाथों में सौंप सकती है.साथ ही विदेशी हाथों में होने से हमारी ऊर्जा-सुरक्षा हमेशा खतरे में रहेगी.अच्छा होता अगर सरकार सौर-ऊर्जा के क्षेत्र में अनुसन्धान को बढ़ावा देती क्योंकि उष्ण कटिबंधीय देश होने के कारण सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में अपार संभावनाएं हैं और सिर्फ यही एक विकल्प हमारे सामने है जो सुरक्षित भी है.जरूरत है सिर्फ इसे सस्ता बनाने की.

रविवार, 14 मार्च 2010

दिल तो पागल है

पिछले दिनों वीरेन्द्र सहवाग, राज्यवर्द्धन राठौर और प्रियंका चोपड़ा भारतीयों से हॉकी को दिल देने का बार-बार अनुरोध कर रहे थे मानों दिल न हुआ आटा-दाल हो गया.दिल का आना हो या दिल का जाना हो या फ़िर दिल का चले जाना या खो जाना हो सब कुछ स्वतःस्फूर्त होता है.खुद इन तीनों में से सहवाग विश्व कप के दौरान एक भी मैच देखने नहीं पहुंचे.मतलब साफ था कि खुद वे ऊपरी मन से निवेदन कर रहे थे फ़िर भी दर्शक भारी संख्या में मैच देखने पहुंचे.लेकिन मैदान मारना या मैदान हारना तो दर्शकों के हाथों में होता नहीं सो भारत की टीम अपने पहले मैच में पाकिस्तान को हराने के बाद कोई भी मैच नहीं जीत पाई और कुल मिलाकर आठवें स्थान पर रही.भारतीय टीम पहले मैच के अलावे किसी भी मैच में लय में नहीं दिखी.खिलाड़ी लाचार और बेबस से बने रहे.फारवर्ड पंक्ति के खिलाड़ी विपक्षी टीम के गोल पोस्ट में गेंद ले जाने के बाद भी मुंह के बल गिरते रहे और विश्व कप जीतने से दूर होते गए.पेनाल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ संदीप सिंह का खेल निराश करता रहा.सभी खिलाड़ियों में किलिंग स्टिंक्ट का पूरी तरह अभाव रहा.वे जीतने के लिए नहीं बस औपचारिकतावश खेलने के लिए खेलते-से दिखे.वो तो भला हो गोलकीपरों का जिन्होंने पूरे टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन किया अन्यथा विश्व कप में गोल अंतर का रिकार्ड कनाडा या दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ नहीं बल्कि भारत के खिलाफ बनता.हॉकी भारत के लिए खेलमात्र नहीं है अपितु यह हमारा सुनहरा अतीत है और पिछले ३० सालों में हमने इस खेल में सिर्फ खोया है पाया बहुत कम है.दद्दा की आत्मा हमारे प्रदर्शन से दुखी होगी या नहीं मैं नहीं बता सकता लेकिन मेरा दिल जरूर हमारे खिलाड़ियों ने तोड़ा है जो हम प्यार में और ईमानदारी में जीनेवालों का एकमात्र सहारा है.अतीत से सीख लेते हुए भविष्य के लिए तैयारी करना ही अब हमारे वश में है क्योंकि इस बार तो कप आस्ट्रेलिया ले उड़ा.आशा की जानी चाहिए कि दो साल बाद जब हम ओलंपिक में खेलेंगे तब जीतने के लिए खेलेंगे.टीम में पिलपिले खिलाड़ियों की जगह दमख़म वाले खिलाड़ी रखे जायेंगे और हमारी टीम यूरोप और आस्ट्रेलिया को तुर्की-ब-तुर्की जवाब देगी.इसके लिए सबसे पहले तो जरूरी है हॉकी इंडिया की कमान किसी रिटायर्ड खिलाड़ी के हाथों में देने की नहीं तो नौकरशाह तो इसके साथ वही व्यवहार करेंगे जैसा वे फाइलों के साथ करने के आदी रहे हैं.जब टीम अपने खेल से सबका दिल जीत लेगी तब हर भारतीय का दिल अपनी हॉकी टीम के साथ धड़का करेगा.दिल तो पागल है वह वीरेन्द्र या प्रियंका का गुलाम नहीं है कि उनके कहने से धड़के और उनके कहने से नहीं धड़के.

मंगलवार, 9 मार्च 2010

रक्तहीन क्रांति

सभी क्रांतियाँ रक्तरंजित ही नहीं होतीं कभी-कभी रक्तहीन क्रांतियाँ भी होती हैं जैसा कि इंग्लैंड में १६८८ में हुआ था.आज भारत में भी रक्तहीन क्रांति हुई है.आज राज्यसभा ने महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में एक-तिहाई आरक्षण देने संबधी विधेयक को पारित कर दिया.अब यह विधेयक लोकसभा और आधी विधानसभाओं में पारित होने के बाद कानून बन जायेगा जिसमें कोई खास मुश्किल आती नजर नहीं आती.वैदिक काल में भी महिलाएं सभा और समिति के सदस्य के रूप में राजनीति में हिस्सा लेती थीं लेकिन बाद में भारतीय महिलाओं की गतिविधियों को सिर्फ घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया गया.अब एक बार फ़िर महिलाएं राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती दिखेंगी और राजनीति से पुरुषों का वर्चस्व समाप्त हो जायेगा.इस तरह यह विधेयक समतावादी समाज की स्थापना की दिशा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है.हर पॉँच साल पर आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बदल दिए जायेंगे.इसके चलते किसी खास निर्वाचन क्षेत्र को अपनी जागीर समझनेवाले बड़े नेताओं को बीच-बीच में दूसरे निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ना पड़ेगा.शायद इसलिए कुछ राजनेता इसका विरोध भी कर रहे थे.अब तक हमने महिलाओं को स्वतंत्र मानव समझा ही नहीं और उन्हें पुरुष अपने हुक्म का गुलाम समझते रहे हैं.यहाँ तक कि पंचायती चुनावों में आरक्षण के कारण जीतने वाली अधिकतर महिलाएं आज भी अपने परिवार के पुरुषों के कथनानुसार ही काम कर रही हैं.शायद विधायिकाओं में भी कुछ दिनों तक ऐसी ही स्थिति रहे लेकिन बच्चे को भी तो पहले ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाना पड़ता है लेकिन एक बार जब वे चलना सीख जाते हैं तब न तो ऊंगली पकड़ने वाले की आवश्यकता रह जाती है और न ही कदम लड़खड़ाने का खतरा.बिहारवासियों के लिए यह और भी ख़ुशी की बात है कि स्त्री-सशक्तिकरण का यह पहला प्रयोग बिहार के विधानसभा चुनावों में ही होनेवाला है.अब भारतीय महिलाएं न तो देवी रहेगी और न ही रोज घर में मार खानेवाली मूक जानवर.अब वह इंसान के रूप में न केवल अपना जीवन जियेंगी वरन बराबर की सहभागी बनकर शासन का संचालन भी करेंगी.

आस्था के नाम पर ठगी

कार्ल मार्क्स धर्म को अफीम के समान नुकसानदायक मानते थे.उनका मानना था कि धर्म मानव की विचारशक्ति को कुंद कर देता है.हिन्दू वांग्मय में जिन कार्यों से समाज को लाभ हो वही धर्म है और जो अकर्तव्य हैं वो अधर्म है.यहाँ धर्म अन्धविश्वास का विषय नहीं बल्कि नैतिक व्यवस्था है.लेकिन कालांतर में धर्म अन्धविश्वास का विषय बन गया और लोग अपने विवेक के बदले धर्मशास्त्रों में लिखे शब्दों पर ज्यादा विश्वास करने लगे.पुजारियों और धर्माचार्यों ने धार्मिक ग्रंथों की अपने पक्ष में व्याख्या करनी शुरू कर दी.आज बाजारवाद का जोर है और बाजारवाद की हवा से न तो धर्म बचा है और न ही धर्माचार्य.तभी तो भक्त निष्काम भाव से भक्ति करने के बदले टीवी पर प्रवचन करते और योगाभ्यास करवाते ज्यादा दिखाई देने लगे हैं.पिछले पॉँच-सात सालों में जिस तरह हमारे धर्माचार्य अवैध यौनाचार से लेकर हत्या तक के मामलों संलिप्त पाए जा रहे हैं उससे हिन्दू धर्म की गरिमा को निस्संदेह भारी क्षति पहुंची है.इन परिस्थितियों में आमजन की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है.उन्हें दान देने और किसी पर विश्वास करने में और भी ज्यादा सावधानी बरतनी होगी क्योंकि कुछ लोग पैसा कमाने के लिए ही संन्यासी का चोगा धारण कर लेते हैं.पिछले दिनों ऐसे ही कई साधू कानून के घेरे में आये हैं.इन साधुओं को आम अपराधियों से ज्यादा कड़ी सजा मिलनी चाहिए क्योंकि इन्होने जनता की आस्था पर डाका डाला है.जनता को भी धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय ही बने रहने देना चाहिए क्योंकि उनकी आस्था के साथ तभी धोखा शुरू हो जाता है जब धर्म संस्थागत रूप लेने लगता है.तभी कहीं रामजन्मभूमि आन्दोलन शुरू होता है तो कहीं धर्म के नाम पर जेहाद.

रविवार, 7 मार्च 2010

भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे राष्ट्रीयकृत बैंक

करीब तीस साल पहले दो चरणों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था.आज भी उनके इस कदम को भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है.लेकिन क्या उन्होंने तब सोंचा भी होगा कि ये बैंक एक दिन भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे बन जायेंगे.उनकी सोंच तो बहुत पवित्र थी.उन्होंने कल्पना की थी कि बैंक किसानों-उद्यमियों को सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध कराएँगे और इस तरह उन्हें सूदखोर महाजनों के कुचक्र से छुटकारा मिल जायेगा.लेकिन वर्तमान भारत में बैंकों की कम-से-कम बिहार में जो स्थिति है उससे तो लगता है कि इनसे बेहतर तो कहीं वे सूदखोर महाजन ही थे.चाहे आप इंदिरा आवास के लाभार्थी हों या आपको कृषि ऋण चाहिए या फ़िर शिक्षित बेरोजगार हों और कोई उद्यम खड़ा करना चाहते हों या फ़िर किसी भी अन्य सरकारी योजना के अन्तर्गत आपको बैंक के माध्यम से पैसा चाहिए बिना घूस (परिष्कृत भाषा में कमीशन) दिए आपको राशि नहीं मिलने वाली.हर तरह के ऋण या योजना राशि के लिए कमीशन की दरें निर्धारित हैं.एक हाथ से दीजिये और दूसरे हाथ से लीजिये.सरकार ऋणों पर सब्सिडी भी दे रही है लेकिन सब्सिडी की पूरी राशि बैंक वाले ही हड़प कर जा रहे हैं और सरकार यह समझ रही है कि लाभार्थियों को सब्सिडी का पूरा लाभ मिल रहा है.बिहार में कार्यरत सभी बैंक मैनेजरों की इन दिनों चांदी-ही-चांदी है.वे इस मंदी में भी कार-पर-कार और घर-पर-घर खरीद रहे हैं.अगर इन मैनेजरों की संपत्तियों की जाँच किसी निष्पक्ष एजेंसी से कराई जाए तो लगभग सारे मैनेजर सलाखों के पीछे होंगे.यह बड़ी ही ख़ुशी की बात है कि जहानाबाद से सांसद जगदीश शर्मा ने पिछले सप्ताह लोकसभा में बिहार के बैंकों में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर वित्त मंत्री का ध्यान दिलाया है.देखना है कि केंद्र सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है.अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो यही समझा जायेगा कि इंदिरा जी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया था बल्कि भ्रष्टाचारीकरण किया था.

शनिवार, 6 मार्च 2010

महिला आरक्षण विधेयक पारित होने की बढ़ी उम्मीद

सोमवार को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश होने जा रहा है.अभी कुछ दिन पहले तक इसके संसद में पारित होने की कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन विगत दो दिनों में विधेयक के प्रति जिस तरह समर्थन बढा है उसने नई उम्मीदें जगा दी हैं.इस १३ साल से लंबित विधेयक को पारित करने के लिए कम-से-कम दो तिहाई उपस्थित या मतदान करनेवाले सदस्यों के समर्थन की जरूरत होगी.पिछले दो दिनों में विधेयक के समर्थन में तेलुगु देशम, एआईडीएमके, बीजू जनता दल और जनता दल (यू) भी सामने आ गए हैं.यहाँ तक कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपने पार्टी अध्यक्ष शरद यादव से अलग राय रखते हुए विधेयक को अपना समर्थन दे दिया है.हालांकि अभी भी पार्टी अध्यक्ष शरद यादव कह रहे हैं कि पार्टी अपनी लाईन पर कायम है और नीतीश ने जो भी कहा है वो उनकी निजी राय है. अब देखना है कि आधी आबादी को न्याय देने की दिशा में महत्वपूर्ण माना जानेवाला यह विधेयक कानून का रूप ले पाता है कि नहीं.वैसे इसकी राह में बाधा बनकर खड़े लोग इसे ज्यादा समय तक पारित होने से रोक पाएंगे ऐसा संभव नहीं लगता.                                                                 हम आधी आबादी को बिना पर्याप्त मौका दिए भारत को विकसित देश बनाने की उम्मीद नहीं कर सकते.शुरुआत में महिलाओं को परेशानी हो सकती है लेकिन यह परेशान सिर्फ एक-दो टर्म के लिए ही आने वाली है.प्रशिक्षित होने के लिए १०-१५ साल बहुत होगा.तब तक हमें मुखिया पति की तरह एमपी पति भी सुनने को मिल सकता है.इतिहास गवाह है कि जिस देश में भी महिलाओं का विधायिका में अच्छा प्रतिनितिनिधित्व है वहां पहले उन्हें आरक्षण की बैशाखी देनी पड़ी थी.लेकिन बैशाखी चाहे सोने की ही क्यों न हो बैशाखी ही होती है.अतः जब महिलाएं पुरुषों से कदमताल करने को पूरी तरह से तैयार हो जाएँ तब आरक्षण को समाप्त कर देना होगा अन्यथा यह न्याय की जगह अन्याय बन जायेगा.

गुरुवार, 4 मार्च 2010

व्यक्तिवाद की हद-समलैंगिक विवाह

मानव समाज शुरू से ही लैंगिक आधार पर दो भागों में बँटा हुआ है-स्त्री और पुरुष.इन दो लिंगों के मिलन से ही दुनिया का कारोबार चलता है अर्थात संतान का जन्म होता है.प्रारंभिक मानवों के समय न तो परिवार का अस्तित्व था और न ही समाज का.धीरे-धीरे परिवार का विकास हुआ क्योंकि स्त्रियों की गर्भावस्था और बच्चों के लालन-पालन के दौरान सुरक्षा की जरूरत होती थी.जब एक पुरुष और एक स्त्री के बीच ही यौन सम्बन्ध सीमित होने लगा तब परिवार का उदय हुआ और यह भी निश्चित होने लगा कि होनेवाले बच्चे का पिता कौन है.फ़िर जनसंख्या वृद्धि और स्थायी बस्तियों की संख्या बढ़ने के साथ ही संबंधों और संपत्ति के अधिकारों के नियमन के लिए समाज और शासक की जरूरत महसूस हुई.पहले परिवार के वृद्धजन मिलकर समाज के समक्ष उभरने वाले विवादों का समाधान करते थे बाद में राजतन्त्र और गणतंत्र का उदय हुआ.पराभौतिक शक्तियों के प्रति आस्था ने धर्म और संप्रदाय को जन्म दिया.धीरे-धीरे समाज शक्तिशाली होता गया और इतना शक्तिशाली हो गया कि लोगों को घुटन महसूस होने लगी.तर्कवाद की हवा चली और रूसो जैसे दार्शनिकों ने यह कहकर स्थिति के प्रति क्षोभ व्यक्त किया कि मनुष्य का जन्म स्वतंत्र मानव के रूप में होता है लेकिन वह दुनिया में आते ही विभिन्न तरह की जंजीरों में जकड़ जाता है.धर्म अब व्यक्तिगत आस्था का विषय हो गया और सर्वत्र प्रजातंत्र का विस्तार होने लगा.यहाँ तक तो स्थिति ठीक थी.२०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दुनिया को दो-दो विश्वयुद्धों का सामना करना पड़ा.सबसे ज्यादा नुकसान यूरोप और अमेरिका को हुआ.करोड़ों लोग असमय काल-कवलित हो गए.इन दोनों महाद्वीपों के लोगों की सोंच को इन युद्धों ने पूरी तरह बदल कर रख दिया.अब लोग सोंचने लगे कि जब ज़िन्दगी का कोई ठिकाना ही नहीं है तो क्यों न दुनिया का पूरा मजा लिया जाए.फलस्वरूप भोगवाद और उपभोक्तावाद का उदय हुआ.इन चीजों का प्रभाव लोगों के यौन व्यवहार पर भी पड़ा और यौन संबंधों में स्वच्छंदता को लोकप्रियता मिलने लगी.पश्चिम में तो स्थितियां इतनी विकट हो गई कि बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी भी राज्य को उठानी पड़ी.लोग सुख की तलाश में आँख बंद कर दौड़ते रहे.यानी मानव विकास की यात्रा में फ़िर वहीँ आ पहुंचा है जहाँ से उसने यात्रा आरम्भ की थी.लेकिन मानव इस अंधी दौड़ में रूका नहीं और उसने प्राकृतिक नियमों की भी अवहेलना करनी शुरू कर दी.पुरुषों के पुरुष से और स्त्रियों के स्त्रियों से खुलेआम यौन सम्बन्ध स्थापित होने लगे.स्थितियां इतनी विकराल होने लगी है कि कई पश्चिमी देशों ने इस तरह के संबंधों पर विवाह की मुहर भी लगानी शुरू कर दी है.लेकिन इस तरह के विवाहों से समाज को क्या मिलेगा?संतान तो मिलने से रही.भगवान ने मानव को दो लिंगों में बांटा है.प्रकृति ने उसे केंचुए की तरह उभयलिंगी नहीं बनाया है.सिर्फ व्यक्तिवाद के नाम पर ऐसे संबंधों को स्वीकृति देने से तो मानवों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा.दूसरी दृष्टि से देखें तो प्रत्येक मानव अंग का अपना अलग-अलग काम प्रकृति द्वारा निर्धारित किया गया है.गुदा का काम मलत्याग है न कि मैथुन.माना कि समाज का मानव पर बहुत ज्यादा नियंत्रण नहीं होना चाहिए.लेकिन मानव और समाज के अधिकारों के बीच एक संतुलन तो होना ही चाहिए.व्यक्तिवाद अगर समलैंगिकता की हद तक पहुँच जायेगा तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा और पृथ्वी अपने सबसे बुद्धिमान निवासी से रहित हो जाएगी.

बुधवार, 3 मार्च 2010

सच्चे दिल से माफ़ी तो मांगकर देखते हुसैन साहब

कभी खाली पांव घूमने तो कभी माँ सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाकर हमेशा चर्चा में रहनेवाले तथाकथित महान चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन फ़िर से चर्चा में हैं.उन्होंने भारत की नागरिकता छोड़ क़तर में बसने का फैसला कर लिया है.पिछले कई दिनों से जबरदस्त आलोचना झेलने के बाद उन्होंने पहली बार प्रतिक्रिया दी है.उन्होंने कहा है भारत ने उन्हें ख़ारिज कर दिया है और अब भारत को उनकी जरूरत नहीं है.साथ ही उन्होंने कहा है कि वे भारत आते-जाते रहेंगे क्योंकि आख़िरकार यह उनकी मातृभूमि है.हुसैन को मालूम होना चाहिए कि भारत एक बहुसंस्कृति वाला देश है जहाँ लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था है.भारत का यह इतिहास रहा है कि यहाँ  कभी किसी के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं किया गया.खुद उनको भी पद्म पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया.लेकिन उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा लाभ उठाया और हिन्दूबहुल देश में हिन्दू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्र बनाने शुरू कर दिए.यहीं काम अगर उन्होंने उस देश वहां की जनता के साथ किया होता जहाँ वे अब बसने जा रहे हैं तो शायद जीवित भी नहीं होते.उन्हें अपने देश के दूसरे धर्माम्बलंबियों  की भावनाओं का भी आदर करना चाहिए था.एक बहुत पुरानी कहावत है कि अगर आदर पाना है तो पहले आदर करना सीखिए.यह आश्चर्य की बात है कि जिस देश में यूनानी से लेकर तुर्किस्तानी तक सब रच-बस गए और वो भी इस तरह कि उनका पता लगाना भी आसान नहीं उस देश के साथ हुसैन अपने-आपको आत्मसात नहीं कर पाए.अपनी जन्मभूमि का भारतीयों के लिए क्या महत्व है शायद हुसैन साहब नहीं जानते हैं.इसी धरती पर अब्दुल हामिद और हनिफुद्दीन जैसे मुस्लमान भी हुए हैं जिन्होंने देश के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर दी.कभी राम ने सोने की लंका को छोड़ कर अयोध्या में बसना स्वीकार किया था और लक्ष्मण से कहा था अपि स्वर्णमयी लंका लक्ष्मण मम न रोच्यते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.लगता है कि हुसैन ने कभी भारत को प्यार ही नहीं किया अन्यथा वे अपनी माँ भारत माता को छोड़कर नहीं जाते.शहनाई सम्राट बिस्मिल्लाह खान को जब अमेरिका में बसने का लालच दिया गया था तब उन्होंने कहा था कि उन्हें रोज गंगा में नहाने की आदत है और वे बनारस से बाहर लगातार एक सप्ताह से ज्यादा रह ही नहीं सकते.इसे कहते है मातृभूमि से लगाव.हुसैन साहब तो अपने को देश से भी बड़ा और ऊँचा समझते हैं.उनके भारत में नहीं होने से भारत को कोई ज्यादा नुकसान नहीं होने वाला है.भारत में न तो कभी कलाकारों की कमी रही है और न ही इस पर जान न्योछावर करने वालों की.पाकिस्तान में इतिहास के नाम पर अरब देशों का इतिहास पढाया जाता है क्योंकि उनका मानना है कि भारत कभी उनका देश रहा ही नहीं है और वे सिर्फ मुसलमान हैं भारतीय या पाकिस्तानी या ईरानी नहीं.लगता है हुसैन साहब भी ऐसी ही सोंच रखते हैं.हुसैन साहब के प्रशंसक आज भी भारत में बहुत हैं आप एक बार सच्चे मन से देशवासियों से अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांग कर तो देखते.भारत में तो क्षमा को भगवन का ही रूप माना जाता है.

मंगलवार, 2 मार्च 2010

ईर्ष्या और प्रेम

जब सूरज की किरणें सभी मानवों
पर पड़ती हैं एकसमान,
चांद की चांदनी और
सितारों की टिमटिमाती रौशनी,
नहीं करती कभी भेदभाव;
फ़िर कैसे देवदत्त के ह्रदय में भड़कने लगी ईर्ष्या की आग
और बुद्ध के मन में लहराने लगा
प्रेम का अथाह सागर.
दोनों का पालन-पोषण एक साथ
एक ही राजमहल में हुआ था,
एक ही गुरु से पाई थी शिक्षा
एक ही अन्न खाया
और एक साथ पिया पानी कपिलवस्तु में.
फ़िर ऐसा क्यों हुआ कि बुद्ध बन गए
दया और करूणा के अवतार
और देवव्रत बन गया ईर्ष्या का पुतला
शैतानियत का जीता-जागता प्रतीक.
नहीं पता मुझे और न ही विज्ञान को
शायद मालूम हो ईश्वर को
लेकिन वह जबकि है अनुपलब्ध
बताने के लिए 
तो क्या किया जा सकता है
सब कुछ भाग्य का खेल
मान लेने के सिवाय.

सोमवार, 1 मार्च 2010

हॉकी में नस्लभेद

भले ही राजनीतिक रूप से दुनिया से नस्लभेद और रंगभेद विदा हो चुके हैं.लेकिन अब भी जहाँ भी मौका मिलता है हम भारतीयों को नीचा दिखाने में पश्चिम के देश पीछे नहीं रहते.इसलिए तो इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन के आस्ट्रेलियाई डाईरेक्टर ने बेवजह भारत के स्टार स्ट्राइकर शिवेंद्र सिंह को तीन मैचों के लिए निलंबित कर दिया है.कल भारत को आस्ट्रेलिया के साथ विश्व कप में भिड़ना है और डाईरेक्टर नहीं चाहता कि भारत जीते.इसलिए उसने शिवेंद्र को निलंबित कर दिया जबकि पाकिस्तान ने शिवेंद्र के खिलाफ अपील भी नहीं की थी.इतना ही नहीं रेफरी ने इसके लिए उन्हें ग्रीन कार्ड तक नहीं दिखाया था.न ही शिवेंद्र पर उनके पूरे कैरियर में कभी इस तरह की अनुशासनात्मक कार्रवाई ही की गई.दूसरी तरफ इंग्लैण्ड-आस्ट्रेलिया मैच के दौरान इंग्लैण्ड के एक खिलाड़ी ने आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी को जानबूझकर धक्का देकर गिरा दिया था फ़िर भी उसके खिलाफ किसी तरह के दंडात्मक कदम नहीं उठाये गए.अभी कुछ महीनों से आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर लगातार हमले हो रहे हैं और आस्ट्रेलिया की सरकार लगातार यह कहती रही है कि ये हमले नस्ली नहीं हैं.लेकिन भारतीय हॉकी टीम के मनोबल पर विश्व कप पर के दौरान हमला तो सीधे तौर पर नस्लीय है.कम-से-कम आस्ट्रेलियाई डाईरेक्टर के इस अप्रत्याशित एकतरफा निर्णय ने उन्हें शक के घेरे में तो ला ही दिया है.शिवेंद्र से उन्होंने सफाई मांगने की भी जरूरत नहीं समझी.जबकि नियमानुसार ऐसा किया जाना चाहिए था.ऐसा भी नहीं है कि इस तरह की साजिश का भारतीय हॉकी को पहली बार सामना करना पड़ रहा हो.पश्चिमी देशों ने ही षड्यंत्र रचकर ८० के दशक में हॉकी के नियमों इस तरह के बदलाव कर दिए जिससे हॉकी के खेल में कलात्मकता की जगह दम-ख़म की प्रमुखता हो गई.हॉकी इंडिया को डाईरेक्टर के निर्णय का प्रत्येक मंच पर सख्ती से विरोध करना चाहिए और अगर वे लोग न माने तो विश्व कप के बांकी मैचों का बहिष्कार करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.नहीं तो हमें और भी मनमानी का सामना करना पड़ेगा साथ ही हमारी टीम के मनोबल पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा.