शनिवार, 8 मई 2010

ब्रूटस तुम भी!

कबीर ने कहा था-कबीरा आप ठगाइए और न ठगिये कोई, आप ठगे सुख उपजे और ठगे दुःख होई.उस काल में शायद भारत में इतने ठग और इतनी ठगी नहीं रही होगी जितनी कि आज है.आज कई लोग सिर्फ धोखे के बल पर जीविकोपार्जन कर रहे हैं और उसे बिजनेस का नाम दे रहे हैं.नेता आजादी के बाद से ही जनता को ठग रहे हैं और निश्चित रूप से ठगी के पेशेवरों के बीच उनका नाम आदर से लिया जाना चाहिए.मेरे पिताजी ने कबीर के इस दोहे हो आत्मसात कर लिया है और बार-बार दोहराते रहते हैं.खासकर तब आवृत्ति ज्यादा हो जाती है जब कोई उन्हें ठग लेता है और उन्हें इसका पता चल जाता है.कहते हैं कि आग जबतक लकड़ी में सटती नहीं है तब तक उसे नहीं जला पाती इसलिए यहाँ भी ठगने वाले नजदीकी लोग ही रहे हैं.९० के दशक के आरम्भ में उन्होंने मेरे एक ममेरे भाई को १७ हजार  रूपये दिए.भैया ने हाजीपुर में एक जमीन खरीदी थी और उनके अनुसार उस प्लाट में और भी जमीन बिक्री के लिए बची हुई थी.पिताजी आकर प्लाट देख गए और भैया पर विश्वास करके उन्होंने जमीन मालिक से बात तक नहीं की.कई वर्षों तक जब भैया जमीन लिखवाने से नाकर-नुकुर करते रहे तब हमने कथित भूमि विक्रेता से बात की तो पता चला कि भैया ने उससे कभी हमारे बारे में कोई बात ही नहीं की अडवांस पैसा देने की तो बात ही दूर रही.आज तलक हमारा पैसा वापस नहीं हुआ है और भैया आज भी कोई न कोई बहाना बनाते रहते हैं.बाद में जब हम हाजीपुर में रहने लगे तो मेरे एक गाँव के चाचाजी जो शिक्षक हैं ने उनके बताये जमीन लेने की सलाह दी.जब हम प्लाट पर गए तो वहां बगीचा था.संशय प्रकट करने पर उन्होंने कहा कि दो-दो बगल से रास्ता निकाला जा रहा है.खैर हमने अडवांस के नाम पर ५० हजार का चेक काट दिया जो सीधे उनके खाते में गया.रजिस्ट्री के बाद न कहीं रास्ते का पता था और न ही चाचाजी का.वे हमसे दलाली में ५० हजार खा चुके थे.हम जमीन के चक्कर में दोबारा फंस गए थे और फंस गया था हमारा ढाई लाख रूपया.आज तक न तो हम जमीन ही बेच पाए हैं और न ही हमारा अपना आशियाना ही बन पाया है.तीसरी बार भी हम ठगे गए जमीन के चक्कर में ही लेकिन इस बार जमीन पूर्वजों द्वारा खरीदी गई थी.मेरे कोई मामा नहीं है और चचेरे मामा नानी को बहुत प्रताड़ित करते थे इसलिए हमें जब तक नानी जीवित रही ननिहाल में ही रहना पड़ा.सरकार ने बेटियों को संपत्ति में बराबर का हिस्सा दे तो दिया है लेकिन समाज माने तब न.सो हमें मुकदमा लड़ना पड़ा और हम एक दशक पहले ही मुकदमा जीत भी चुके हैं.अब सिर्फ दखल कब्ज़ा का काम बांकी है.हमारा वकील पिताजी का विद्यार्थी रह चुका है.बार-बार हम पिछले दो सालों से इसके लिए तारीख ले रहे थे और वकील कहता रहा कि अमुक कारण से काम नहीं हो पायेगा.हमने न तो कभी उससे कोई रसीद मांगी और न ही पैसों का हिसाब ही माँगा.अभी कल पता चला कि हमारा वकील जानबूझकर मामले को लटकाए रखना चाहता है और बार-बार पैसे लेकर खा जा रहा है.कभी उसने नापी करवाने की कोशिश ही नहीं की.इस बार पिताजी के मुंह से कबीर का दोहा नहीं जुलियस सीजर के अंतिम वाक्य निकले-ब्रूटस तुम भी!शायद इस बार दिल पर लगे घाव ज्यादा गहरे थे.

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