शनिवार, 10 जुलाई 2010

एक गाँव ऐसा भी


मैं जैसा कि आप जानते हैं कि एक शहर में रहता हूँ जिसका नाम है हाजीपुर.१८ साल पहले बड़े ही भारी मन से हमने गाँव को टाटा-बाई-बाई कर दिया था लेकिन मैं आज भी मन से ग्रामीण ही हूँ,शहर की आवोहवा मुझे रास नहीं आती,घुटन-सी महसूस होती है,हर जगह कृत्रिमता का आभास होता है.इसलिए जब मेरे मित्र ने मुझे अपने तिलक के अवसर पर गाँव चलने के लिए कहा तो मैं सहर्ष तैयार हो गया हालांकि २ सप्ताह बाद ही मेरी यू.जी.सी. की परीक्षा थी.मेरे मित्र का गाँव सारण जिले में मढ़ौरा के पास स्थित है.पूरे तीन घन्टे की यात्रा के बाद हमें अपनी कार को उसके घर से कुछ फर्लांग पहले ही रोक देनी पड़ी क्योंकि वहां पुल बनाने के दौरान सड़क काट दी गई थी.दूर से ही उसका घर टेंट-शामियाना लगा होने के कारण पहचाना जा सकता था.बारी-बारी से मैं उसके पिताजी और चाचाजी से मिला.पहली नज़र में गाँव पिछड़ा लगा मुझे.उसके दरवाजे पर कई मुसलमानों को जब काम करते देखा तब मुझे आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी हुई,सांप्रदायिक सहयोग का साकार प्रतिरूप.मन को इत्मिनान भी हुआ कि हमारे देश को सांप्रदायिक आधार पर तोड़ पाना कभी संभव नहीं हो पायेगा क्योंकि इस देश में इस तरह के अनगिनत गाँव जो हैं. मैंने हाथ-मुंह धोने के बाद बाद भोजन किया.बड़े ही अनुराग के साथ मुझे भोजन कराया गया.सादा भोजन जो प्रेम के रस में पकाया गया था.शायद कृष्ण को विदुर के घर की साग में इतना स्वाद नहीं मिला होगा. जब भोजनोपरांत विश्राम करने के लिए गया तब मंझले चाचा से लम्बी बातचीत हुई.वे भूतपूर्व सैनिक थे इसलिए जाहिर था कि बातचीत उनके सैनिक जीवन पर केन्द्रित रही.मित्र के घर के पूरे इतिहास-भूगोल से मैं अब परिचित था. रिटायरमेंट के वर्षों बाद भी वे सेना के अन्य रिटायर्ड जवानों की तरह काफी परिश्रमी थे.पूरी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बूढ़े मगर मजबूत कन्धों पर उठा रखी थी.बातचीत में व्यवधान तब आया जब मुझे नींद आ गई.शाम को नींद खुलने के बाद हम गाँव देखने को निकले.खुद मेरा मित्र मेरा गाईड बना.बड़े लम्बे अंतराल के बाद गाँव की हवा तन-मन को स्पर्श कर रही थी,मन रोमांचित हो रहा था.ठंडक पैदा करने के कृत्रिम साधनों में यह बात कहाँ?.करीब दो घन्टे लगे उन स्थानों का दर्शन करने में जहाँ मेरे मित्र ने बाल-लीला की थी.मेरा मन लगातार अपने गाँव से इस गाँव की तुलना कर रहा था.लौटते समय मित्र के एक चाचा के यहाँ पहले तो शुद्ध दूध से बनी चाय पी फ़िर ताज़ा भुट्टों का आनंद लिया.याद आया मेरा बचपन जब मैं १०-१५ तक भुट्टे एक ही बार में खा जाया करता था बिना इस बात की चिंता किये कि बेचारे पेट पर क्या गुजरेगी.खैर यहाँ मैंने ज्यादा नहीं बस तीन भुट्टे खाए.न जाने क्यों शहर में ठेलों पर बिकनेवाले भुट्टों में यह रसानंद क्यों नहीं आता.शायद उनमें ग्रामीण सहृदयता की जगह बाजारवाद का रस होता है.घर के सामने बहुत लम्बा-चौड़ा खाली मैदान था.इसलिए दरवाजे पर हरसमय ठंडी-ठंडी हवा आती रहती पंखा-कूलर या ए.सी. कोई जरुरत ही नहीं.सबसे कमाल की बात थी चापाकल के पानी में.उसका पानी काफी ठंडा था.जहाँ अपने घर के बाथरूम में मैं दो मिनट में ही नहा लेता था वहां १०-१५ बाल्टी पानी से नहाता.न तो ठंडा तेल लगाने का झंझट  और सिरदर्द की दवा निगलने की जरुरत,नहाते ही सारी थकान उड़नछू.गाँव में सिर्फ एक ही कमी थी कि बिजली नहीं थी.हुआ यह था कि गाँव के लोग जब बिजली के खम्भे गाड़े जा रहे थे तब आपस में ही लड़ पड़े.हर कोई अपने-अपने दरवाजे पर खम्भे गड़वाना चाहता था.नतीजा यह हुआ कि गाँव में बिजली आते-आते रह गई.बिजली नहीं होने के चलते मेरा मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया और दो दिनों के संघर्ष के बाद वह मूर्छावस्था में चला गया.तिलक की शाम भोज में कई सौ लोग शामिल हुए.मुझे आश्चर्य हुआ कि भोजन परोसने में मित्र के जो ग्रामीण रिश्तेदार बिलकुल पीछे थे खाने में काफी आगे निकले.देखकर दुःख हुआ कि गांवों में भी अब वो बात नहीं रह गई जिसके बल पर पहले एक छप्पर उठाने के लिए पूरा गाँव मदद के लिए जमा हो जाता था.ईर्ष्या और जलन ने यहाँ के लोगों के मन में भी पैठ बना ली है.पहले गाँव सूधो मन,सूधो वचन,सुधों सब व्यवहार के लिए जाने जाते थे.आज का यह गाँव कई जातीय समूहों में बँटा हुआ था लेकिन जातीय तनाव नहीं था.अन्य जातियों के लोग और मुसलमान भी पंचायत को हरिजनों के लिए आरक्षित कर देने से दुखी लगे. यहाँ मैं पूरी तरह भोजपुरी बोल रहा था हालांकि मेरी मातृभाषा वज्जिका है.मेरा मानना है कि ग्रामीण जीवन का वास्तविक मजा आप तभी ले सकते हैं जब आप वहां के लोगों से उनकी ही भाषा में बात करें.दो दिनों में ही कई लोग मेरे अच्छे मित्र बन गए थे जैसे बरसों की पहचान हो.मित्र की माँ में मुझे अपने माँ का अक्स दिखता था और बहनों में अपनी बहन का.सीधेपन और ईमानदारी में मित्र के पिता मेरे पिता के काफी निकट थे.दो दिनों के लिए मुझे लगा कि मैं फ़िर से अपने गाँव में रहने लगा हूँ जहाँ तब स्नेह की गंगा बहती थी.मेरी दिली ईच्छा थी कि मैं शादी तक रुकूं लेकिन इसमें दो बाधाएं थीं एक तो यह कि मैं अपने साथ कपडे नहीं ले गया था और दूसरी यह कि कुछ ही दिनों बाद मेरी यू.जी.सी. की परीक्षा थी.मैंने तिलक की सुबह ही घर का रास्ता पकड़ लिया.लेकिन उस गाँव की यादें अपने साथ लेता आया.उस गाँव की यादें जहाँ मैला आँचल के मेरीगंज की तरह धूल भी है और फूल भी,कांटें भी हैं और चन्दन भी, राम का भी निवास है और रावण का भी और इन दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच पेंडुलम की तरह झूलते रहनेवाले लोगों का भी.

1 टिप्पणी:

dharmendra ने कहा…

kuch words nahi hai is lekhni par comment dene ke liye. lekin lag rha hai ki aapne ise bas likh dala hai. aap jaise emotional patrakar se kuch aur...