शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

निराधारा मुजफ्फरपुर नगरी निरालम्बा सरस्वती

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भक्त प्रवर रामकृष्ण परमहंस अक्सर कहा करते थे कोई स्थल तीर्थस्थल नहीं होता,तीर्थस्थान तो वहीं बन जाता है जहाँ महान आत्माएं निवास करती हैं.बिहार की सांस्कृतिक राजधानी कहलाने का गौरव धारण करनेवाला मुजफ्फरपुर अब तक आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का निवास होने से तीर्थ बना हुआ था.चाहे साहित्यकार हो या साहित्यिक अभिरुचिवाला नेता-अभिनेता हो,उनकी बिहार यात्रा बिना निराला निकेतन की चौखट लांघे बिना पूरी ही नहीं होती थी.अब छायावाद का अंतिम छायादर वृक्ष हमसे छिन चुका है.मुजफ्फरपुर नगरी निराधार हो चुकी हैं और सरस्वती असहाय.सरस्वती का मानसपुत्र उम्रभर सरस्वती की निस्स्वार्थ सेवा करने के बाद मृत्यु अटल है की उक्ति को कटु सत्य साबित करता हुआ मृत्यु की गोद में सो गया,हमेशा-हमेशा के लिए.
          आचार्य श्री एक व्यक्ति नहीं थे बल्कि जीवंत इतिहास थे.उन्होंने कई महाकवियों के रचना-कर्म को ही नहीं देखा-परखा था बल्कि उनकी रचना-प्रक्रिया के भी एकमात्र जीवित साक्षी थे.निराला ने अपनी महान छंदोबद्ध कविता राम की शक्ति पूजा आचार्य श्री के साथ वाराणसी में रहते हुए ही लिखी थी और मेहनताने से मिले पैसे से दोनों ने छककर जलेबियाँ उडाई थी.आचार्य श्री को यह महान कविता पूर्णतः कंठस्थ थी और वे इसका कुछ इस अंदाज में पाठ करते थे कि स्वयं निराला ने भी माना था कि वे इस कविता का उतनी अच्छी तरह पाठ नहीं कर सकते जितनी अच्छी तरह से आचार्य श्री करते हैं.निराला के कहने पर ही आचार्य श्री ने संस्कृत छोड़कर हिंदी में कविता लिखनी शुरू की थी और इस प्रकार हिंदी को अपना हिंदी-कोकिल मिला,बिना वसंत के भी निरंतर मीठे गीत गाते रहनेवाला.
         आचार्य श्री पर निराला का इतना गहरा प्रभाव था कि उन्होंने जब मुजफ्फरपुर को अपना स्थायी निवास बनाया तो घर का नाम रखा निराला निकेतन.यह निराला निकेतन सिर्फ नाम से ही निराला नहीं था बल्कि काम से भी निराला था.इस घर में रहनेवाले बिल्ली,कुत्ता,गाय,खरगोश सभी आचार्य परिवार के सदस्य थे.इनकी जब मृत्यु हुई तो मानव की ही भांति इनका का भी अंतिम संस्कार किया गया वह भी परिसर के भीतर ही और उनकी समाधि भी बनाई गयी.हिंदी के अन्य कवियों ने तो अपनी रचनाओं में सिर्फ अमानवों का मानवीकरण ही किया था मानवीकरण अलंकार का प्रयोग करके;आचार्यश्री ने इन्हें सचमुच मानवों जैसा आदर और प्यार दिया;मानव बना दिया.आचार्य श्री सच्चे प्रकृति-प्रेमी थे पन्त की तरह और मानवता से ओत-प्रोत थे निराला की तरह.वे एकसाथ इन दोनों महान साहित्यिक व्यक्तित्वों को धारण करते थे.
             आचार्य श्री के अहसास की जद में सारा जमाना था.उन्होंने मुजफ्फरपुर के जिस भाग में घर बनाया उसे लोग चतुर्भुज स्थान के नाम से जानते हैं.यूं तो इस मोहल्ले का नाम भगवान विष्णु के ऐतिहासिक मंदिर के नाम पर रखा गया है लेकिन यह जगह ज्यादा प्रसिद्ध है रेड लाईट  एरिया यानि देह-व्यापार की मंडी के रूप में.शायद इसलिए भद्र लोग इस इलाके का नाम लेने में भी हिचकते हैं.लेकिन आचार्य श्री तो ठहरे मानवता के अनन्य पुजारी.चन्दन वृक्ष के समान पवित्र और शीतल.उन्हें तो सबसे प्यार था,पूरी दुनिया उनका परिवार थी;कोई उनका शत्रु नहीं था और न ही उनके लिए कोई पराया ही था.हालाँकि हिंदी के ठेकेदार आलोचकों ने उनकी घोर उपेक्षा की लेकिन आचार्य श्री सारी उपेक्षाओं और आलोचनाओं को नजरंदाज करते हुए निर्विकार होकर अपने रचना-कर्म के लगे रहे.
           सूरज आज भी पूरे ताव में चमक रहा है;उसे क्या लेना-देना इस बात से कि हिंदी साहित्याकाश का सूरज कल ही अस्त हो चुका है.अब मुजफ्फरपुर और मुजफ्फरपुरवासी कभी इस बात पर गर्व नहीं कर पाएँगे कि उनके शहर को छायावाद का अंतिम छायादार वृक्ष छाया दे रहा है.वर्तमान भूत बन चुका है.अपने पदचिन्हों को पीछे छोड़ते हुए अपनी यात्रा पूरी कर चुका है.एक युग का अंत हो चुका है लेकिन अभी दूसरे युग की शुरुआत नहीं हुई.हिंदी-भाषिक संसार जैसे ठिठक गया है,किंकर्तव्यविमूढ़-सा और विदाई दे रहा है अपने अंतिम महायात्री को उसकी महायात्रा के मौके पर.हे महामना!तुम्हें इस अकिंचन की और से भी शत-शत नमन;अलविदा.

1 टिप्पणी:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे...विनम्र श्रद्धांजलि ... ! http://raj-bhasha-hindi.blogspot.com/2011/04/blog-post_4960.html