सोमवार, 23 मई 2011

बलात्कारियों को दी जाए लिंग-विच्छेदन की सजा

rape
मित्रों,मैं जब भी कोई उदाहरण देता हूँ तो मेरी कोशिश यही रहती है कि घटना मेरे खुद के जीवन की या मेरे आसपास की हो.इस लेख की शुरुआत भी मैं आँखों-देखी यथार्थ से करूँगा.मेरे ननिहाल में एक छोटी-सी बच्ची थी.उम्र में तो मुझसे ७-८ साल छोटी थी लेकिन रिश्ते में मेरी मौसी लगती थी.गौरवर्ण,तीखे नयन-नक्श;बालोचित सरल स्वाभाव.जब मैं गाँव छोड़कर शहर में रहने आ गया तब उसके जीवन में अचानक तूफ़ान खड़ा हो गया.हालाँकि ऐसा होने में कहीं से भी उसका कोई दोष नहीं था लेकिन जैसे उसकी दुनिया ही वीरान हो गयी और अकस्मात् ज़िन्दगी के सारे मकसद समाप्त हो गए.बलात्कारी कोई और नहीं था उसके आँगन का ही लड़का था जो स्कूल के दिनों में मेरा सहपाठी रह चुका है.जब वह बाढ़ के पानी से नहाकर लौट रही थी तब उस वासना के पुतले ने जो रिश्ते में उसका भतीजा लगता था उसकी दुनिया उजाड़ दी.उसे ऐसे करते हुए कई ग्रामीणों ने देखा.हल्ला होने पर वह भाग निकला और लौटकर घर भी नहीं गया.मुझे कल होकर इस शर्मनाक घटना की जानकारी मिली.मैं पीड़िता के घर पर गया और उससे बात करने की कोशिश भी की लेकिन वह तो सिर्फ रोये जा रही थी.नानी यानि उसकी माँ से पता चला कि घटना के बाद से उसने कुछ भी खाया-पीया नहीं था.कुछ ही दिनों के बाद बच्ची की मौत हो गयी.एक कली खिलने से पहले ही सूख गयी,एक तितली उडान भरने के पूर्व ही शिकारी जानवर का शिकार हो गयी.मैं पीड़िताओं द्वारा इस प्रकार का पलायनवादी रवैय्या अपनाने का विरोधी हूँ.आखिर जो अपराध उसने किया ही नहीं उसके लिए अपराध-बोध मन में रखना कहीं से भी उचित नहीं है.उचित है समाज से टकराना.माना कि जीवन में परेशानियाँ आएँगी लेकिन परेशानियाँ किससे जीवन में नहीं आती हैं?हो सकता है कि उसकी शादी नहीं हो पाए लेकिन सिर्फ शादी-ब्याह ही तो जिंदगी नहीं है.वैसे आज ऐसे युवकों की भी कमी नहीं है जो समाज को अनदेखा करते हुए बलत्कृत ललनाओं से शादी करने को तैयार हैं.
                   मित्रों,मेरी कहानी अभी भी अधूरी है.कोई एक-डेढ़ साल बाद बलात्कारी गाँव वापस आ गया और शादी-ब्याह करके सुखी वैवाहिक जीवन जीने लगा.गाँव वालों ने उसका सामाजिक बहिष्कार करने की कोशिश तक नहीं की.आज भी जब मैं उसे देखता हूँ तो मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है;लेकिन जब पीड़िता के परिवारवाले आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं थे तो मैं क्या करता?परिवारवालों ने तो बीमार होने पर उसका ईलाज भी नहीं करवाया क्योंकि उनका मानना था कि ऐसी जिंदगी से तो मौत ही अच्छी होगी.सबने,पूरे गाँव-समाज ने मामले को भगवान के प्राकृतिक न्याय पर छोड़ दिया.ऐसा भी नहीं है कि भगवान ने न्याय नहीं किया हो.उसने न्याय किया और कुछ ही महीने पहले बलात्कारी की छोटी बहन पास के गाँव के एक विवाहित हरिजन के साथ भाग गयी.कितनी बड़ी बिडम्बना है कि जो युवक बलात्कारी होने के बाद भी गर्व से मस्तक ऊंचा किए घूमता था आज अपनी बहन की करनी के चलते शर्म के मारे घर से बाहर भी नहीं निकलता है.
                   मित्रों,मेरा आज भी कर्मयोग और कर्मवाद में पूरा विश्वास है.मैं अपने इस विश्वास पर आज भी दृढ हूँ कि जो जैसा करता है वैसा ही भरता है लेकिन क्या हमारे समाज का किसी गंभीर मुद्दे पर पूरी तरह से तटस्थ या अकर्मण्य हो जाना कर्मयोग का उल्लंघन नहीं है?क्या किसी समाज के भविष्य के लिए खतरनाक नहीं है?मेरे इस समाज में गाँव के साधारण लोग,न्यायपालिका,संसद और अन्य सभी ज्ञात-अज्ञात वर्गों के लोग शामिल हैं.
                        मित्रों,द्वापर युग में सिर्फ एक दुर्योधन या दुश्शासन थे आज तो पग-पग पर दुर्योधन और दुश्शासन हैं.ट्रेन में चलते समय,कार्यालय से घर आते-जाते हुए,घर के भीतर और घर के बाहर कहीं भी स्त्री सुरक्षित नहीं है.कौन जाने कब कौन दुर्योधन-दुश्शासन बन जाए या कहाँ इनसे सामना हो जाए?यहाँ तक कि इस खतरे से आज अतिविशिष्ट महिलाएँ भी सुरक्षित नहीं हैं.
                     मित्रों,मैं मानता हूँ कि बलात्कार की बढती घटनाओं को सिर्फ दंड के माध्यम से नहीं रोका जा सकता.चूंकि यह अपराध हत्या से भी ज्यादा जघन्य है इसलिए इसकी सजा मृत्युदंड से भी ज्यादा भयानक होनी चाहिए.जहाँ हत्या में सिर्फ शरीर की मौत होती है बलात्कार तो आत्मा को ही मार डालता है इसलिए इसकी सजा कुछ इस तरह की होनी चाहिए कि जिसे देखकर मौत भी कांपने लगे.मैं न्यायालय के इस सुझाव से पूर्णतः सहमत हूँ कि अपराधी को जिंदा तो रखा जाए लेकिन इस तरह से कि उसके जीवन का प्रत्येक क्षण उसे युगों से भारी लगे.मौत की सजा में तो क्षणभर के कष्ट के बाद ही मुक्ति मिल जाती है लेकिन न्यायालय के सुझाव के अनुसार अगर उसका चिकित्सीय या रासायनिक तरीके से बधियाकरण कर दिया जाए तो उसे अपने-आपसे ही घृणा होने लगेगी,अपने जीवन से ही नफरत होने लगेगी और तभी वह उस दर्द को महसूस कर सकेगा जिसको कि बलात्कार-पीड़िता जीवनभर भोगती है.बल्कि मैं तो कहूँगा कि बधियाकरण करने के साथ-साथ बलात्कारी के लिंग को भी काटकर हटा दिया जाए.जहाँ तक ऐसा करने में मानवाधिकार का सवाल है तो मानवाधिकार मानवों के हुआ करते हैं दानवों के नहीं.
                     मित्रों,मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि दंड इस बीमारी का तात्कालिक ईलाज मात्र है.अगर हमें इस अपराध को जड़-मूल से मिटाना है तो हमें अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालने होंगे,विशुद्ध भारतीय संस्कार.उनको पश्चिमी भोगवाद की हवा में बह जाने से बचाना होगा और ऐसा सिर्फ कोरे उपदेशों से ही संभव नहीं है.इसके लिए हमें अपने बच्चों के सामने खुद ही उदाहरण बनना पड़ेगा;दृष्टान्त बनना पड़ेगा.

1 टिप्पणी:

manojsah ने कहा…

बलात्कारी के लिए क्रूरतम दंड का विधान या मानवाधिकार का ध्यान !!
>इस विषय पर निम्न लिंक के बारें में काफी अच्छी बातें लिखी गई है,, मैं खुद इस बात का समर्थक हूं कि बलात्कारी को सजाए मौत मिलनी चाहिए

http://forum.jagranjunction.com/2011/05/16/punishment-for-rapists-humanrights/