मंगलवार, 31 मई 2011

राहुल गाँधी प्रकरण और आरटीआई का सच


अमित जेठवा
 अमित जेठवा

मित्रों,वर्ष २००५ में जब अनलिमिटेड प्रोब्लेम्स एलायंस ने सूचना का अधिकार लागू किया था तब सोनिया गाँधी एंड फेमिली फूली नहीं समा रही थी.उनकी तरफ से बार-बार आत्मप्रशंसा से भरी घोषणाएं की जा रही थीं कि हमने जनता को वो चीज दे दी है जो आजादी के बाद से उसे नहीं मिली थी.उन्होंने मन-ही-मन कल्पना कर ली कि अब भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा क्योंकि उनका और देश की जनता का बहुत बड़ा सपना सच हो गया है.सत्य अगर इतना ही सरल होने लगे तो देश में राम-राज्य नहीं कायम हो जाए?इस कानून के आने के ६ साल बाद भी वास्तविकता तो यह है कि किसी भी राज्य में यह कानून लागू हुआ ही नहीं है;जो कुछ भी हुआ है सब सिर्फ कागज पर हुआ है.
मित्रों,कोई भी कानून अच्छा या बुरा नहीं होता;अच्छे और बुरे होते हैं उन्हें लागू करनेवाले लोग.अब सूचना का अधिकार कानून को ही लीजिए;इस कानून का बेड़ा उन्हीं लोक सूचना पदाधिकारियों ने गर्क किया है जिन पर इसे लागू करने की महती जिम्मेदारी थी.कहीं-कहीं राज्य सरकारों ने भी राज्य सूचना आयोग में पदों को रिक्त रखकर इस दिशा में अपना महान योगदान दिया है.बिहार की हालत से एक आरटीआई कार्यकर्ता होने के नाते मैं अच्छी तरह से वाकिफ हूँ.यहाँ के लोक सूचना पदाधिकारी सूचना देने से ज्यादा सहूलियत जुर्माना भरने में महसूस करते हैं.अधिकारी घूस में कमाई गयी पतली कमाई को पतली गली से जुर्माना के रूप में सरकारी खजाने में जमा कर दे रहे हैं लेकिन सूचना नहीं देते.साथ ही बिहार सरकार ने पिछले दिनों कई महीनों तक राज्य सूचना आयोग में सभी महत्वपूर्ण पदों महीनों तक रिक्त रखा.
मित्रों,विकास दर के मामले में चीन से टक्कर लेनेवाले राज्य गुजरात में आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरेआम गोलियों से भून दिया जाता है.वहां अभी भी एक आरटीआई कार्यकर्ता सरकारी अधिकारियों द्वारा झूठे मुकदमों में फँसाए जाने से परेशान होकर कई हफ़्तों से अनशन पर बैठा है.उत्तर प्रदेश में भी इस कानून की हालत लगातार चिंताजनक बनी हुई है.अभी कुछ ही दिनों पहले यूपीए के युवराज राहुल गाँधी ने वहां के स्वास्थ्य विभाग से कुछ सूचनाएं मांगी थीं.उन्हें सूचना देने के बदले विभाग ने उल्टे खर्च के नाम पर लाखों रूपये मांग दिए.ऐसा हमारे साथ भी बिहार में हो चुका है.२०-२५ लोगों के नामों की सूची मांगने पर मुझसे खर्च के नाम पर लाखों रूपये मांग दिए गए.कई बार तो बिहार में लोक सूचना पदाधिकारी आवेदन-पत्र ग्रहण करने से ही मना कर दे रहे हैं और पत्र वापस आ जा रहा है.
मित्रों,जब राहुल गाँधी जैसी शख्सियत को यह अधिकार प्राप्त नहीं हो पाया तो फिर प्रदेश में किसे प्राप्त होगा?केंद्र सरकार की स्थिति इस मामले में संतोषजनक जरुर है लेकिन राज्यों में तो आज तक जनता को यह अधिकार मिला ही नहीं.सूचना मांगो तो खर्च के नाम पर लम्बी-चौड़ी राशि की मांग कर दी जाती है.जहाँ केंद्र सरकार से सम्बद्ध मामलों में अपील करने पर कोई शुल्क नहीं लगता,राज्य सरकारों ने अपील के लिए मोटी फ़ीस निर्धारित कर दी है.स्पष्ट है कि राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि कोई व्यक्ति सूचना से संतुष्ट नहीं होने पर अपील करे.बिहार में यह राशि ५० रूपया है.उस पर बिहार सरकार ने इस कानून में प्रश्नों की संख्या भी अपनी ओर से निर्धारित कर दी है.आप बिहार में एक आवेदन पर सिर्फ और सिर्फ एक ही प्रश्न पूछ सकते हैं.
मित्रों,वर्तमान केंद्र सरकार जिसने भारतीय जनता को यह महत्वपूर्ण अधिकार दिया है;राहुल-प्रकरण से अच्छी तरह से समझ गयी होगी कि यह कानून पूरी तरह से फेल हो चुका है.भ्रष्टाचार के सीने पर चलाया गया यह ब्रह्मास्त्र अपने लक्ष्य से पूरी तरह चूक चुका है.केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस कानून की अविलम्ब समीक्षा करे और पता लगाए कि इसमें कहाँ-कहाँ कमी रह गयी है और तदनुसार सुधार के लिए अपेक्षित कदम उठाए.दोषी अधिकारियों को केवल आर्थिक दंड देने से काम नहीं चलनेवाला;उन्हें निलंबित और बर्खास्त करने की भी इस कानून में व्यवस्था की जानी चाहिए.अच्छा हो कि राज्य सरकारों से इस विधेयक में संशोधन करने का अधिकार ही छीन लिया जाए.अगर केंद्र सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो फिर इसे वापस ही ले ले जिससे जनता इस अधिकार के भुलावे में आकर अपने धन,श्रम और समय का अपव्यय करने से बच सके.

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