शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

यह कैसे और कैसी क़ुरबानी?

मित्रों,वर्ष २००७.अभी ईद-उल-जोहा के आने में कई दिन बचे हुए थे.मेरे अभिन्न मित्र मुन्नू भाई और शाजी पिछले दिनों कई बार मुझे इस पावन त्योहार पर अपने घर आने के लिए आमंत्रित कर चुके थे.मैं अब तक त्योहारों के दिन कभी किसी मुसलमान के घर नहीं गया था.सोंचा चलो इस बार यह तजुर्बा भी कर लिया जाए.हम तीनों यानि मैं धर्मेन्द्र और संतोष उरांव जब कालिंदी कुञ्ज बस स्टॉप पर बस से उतरे तब वहां मुन्नू भाई और शाजी पहले से ही मोटरसाईकिल लेकर उपस्थित थे.मुन्नू भाई ने हमें पहले ही ताकीद कर दिया कि आपलोग सीधे आगे देखिएगा;अगल-बगल क्या हो रहा है देखने की कोई जरुरत नहीं है.कुछ ही देर में मोटरसाईकिलें बटाला हाऊस ईलाके से गुजर रही थीं.दोनों तरफ लगभग सारे घरों में कहीं बैलों-गायों का गला रेता जा रहा था तो कहीं उनकी खालें उतारी जा रही थीं.सडकों तक खून के पनाले.कसाई सर पर ठेहा और हाथ में चाकू लिए सडकों पर आवाज लगाता फिर रहा था कि किसी को ग़ोश्त तैयार करवाना है क्या?चारों तरफ दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध.लगा जैसे अभी सुबह का नाश्ता मुंह से बाहर आ जाएगा.मेरा मन जो एक मानव मन था वितृष्णा से भर उठा.छिः,धर्म के नाम पर दुधारू और निर्दोष पशुओं की सामूहिक हत्या!किसी तरह रफ्ता-रफ्ता नरक दर्शन करता हुआ मित्र के निवास-स्थान पर जाकिर नगर पहुंचा.बड़ी मुश्किल से दालमोट को हलक के नीचे उतारा,ठंडा पीया और टी.वी. देखने लगा.रात हुई मित्र ने मुर्गा बनवाया था जो मैं खाता नहीं हूँ इसलिए बाजार से उसने रोटी-सब्जी मंगवाई.परन्तु अब तक मेरे दिलोदिमाग पर दिन का वीभत्स मंजर तारी था.मुझे रोटियों और सब्जियों में से जैसे गोमांस जैसी दुर्गन्ध का सुबहा हो रहा था.एक-दो निबाले से ज्यादा खा नहीं पाया और भूखे ही सो गया.सुबह पौ फटते ही वापस नोएडा के लिए निकल पड़ा.गायों के खून के धब्बे अब भी सडकों पर मौजूद थे.जब-जब नजर उन पर जाती पूरे जिस्म में जैसे सिहरन-सी होने लगती.वापस नोएडा आकर मन कई दिनों बाद शांत और प्रकृतिस्थ हुआ.
                    मित्रों,इस मुद्दे पर यानि जानवरों की क़ुरबानी पर बाद में मेरी अपने उन मित्र द्वय से बहस भी हुई.बड़ा अजीब तर्क था उनका.वे यह तो मानते थे कि जानवरों को भी खुदा ने ही बनाया है लेकिन वे यह भी मानते थे कि उसने इन्हें ईन्सान के भोजन के लिए बनाया है.फिर सूअरों,कुत्तो और बिल्लियों को क्यों नहीं खाना चाहिए,पूछने पर वे चुप्पी लगा गए?ईद-उल-जोहा के दिन पशु-वध पर उनका कहना था कि चूंकि गरीब मुस्लमान ग़ोश्त नहीं खरीद सकते या क़ुरबानी नहीं दे सकते इसलिए गाय-बैलों को काटकर उनका मांस बांटा जाता है.एक बात और उन्होंने कही कि बकरों के मुकाबले गाय-बैलों का मांस ज्यादा सस्ता पड़ता है.
                   मित्रों,क़ुरबानी क्या है और क्यों दी जाती है कभी सोंचा है आपने?क़ुरबानी का मतलब है त्याग और बलिदान जो हजरत इब्राहीम ने अपने जिगर के टुकड़े पुत्र की बलि देकर दी थी.मैं पूछता हूँ रूपयों से ख़रीदे गए इन मूक और निर्दोष जानवरों से मुसलमानों का कोई भावनात्मक लगाव होता भी है?क्या ये जानवर उन्हें अपने बेटे-बेटियों जितना ही अजीज होते हैं?क्या वे हजरत इब्राहीम की तरह अपने बेटे की बलि देने का नैतिक साहस रखते हैं?क्या उनका खुदा पर उतना ही अटल विश्वास है कि जितना हजरत इब्राहीम को था?अगर हाँ तो फिर आप भी जानवरों के बदले किसी अपने की बलि क्यों नहीं देते?अगर आपकी आस्था सच्ची होगी तो आपका अजीज भी बकरे में बदल जाएगा.लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि आप ढोंगी हैं,फरेबी हैं और झूठे हैं.आपकी आस्था झूठी है,आपका विश्वास कच्चा है.आपको खुदा पर पूरा विश्वास नहीं है.आप उसको और उसकी मेहर को लेकर उतने मुतमईन नहीं हैं जितने कि बेटे की बलि देते समय हजरत इब्राहीम थे.इसलिए आप झूठी क़ुरबानी देते हैं.वास्तव में यह क़ुरबानी सिर्फ पैसों की क़ुरबानी है.जरखरीद मूक और लाचार पशुओं की हत्या है,आस्था और विश्वास की हत्या है.
                    मित्रों,मैं यह भी नहीं चाहूँगा कि कोई मुसलमान धर्म के नाम पर अपने किसी अपने का गला रेत डाले परन्तु उसे यह हक़ भी नहीं बनता है कि किसी दूसरे के बेटे या बेटियों के गले पर धर्म के नाम पर छुरा चलाए.आखिर पशु भी किसी कि औलाद हैं.उन्होंने भी उसी प्रक्रिया के तहत जन्म लिया है जिस प्रक्रिया द्वारा हम जन्में हैं.हम आज सभ्यता के विकास के द्वारा प्रभुता की स्थिति में आ गए हैं और वे बेचारे आज भी वहीं हैं जहाँ वर्षों-सदियों पहले थे.हमने उन्हें गुलाम बनाया,उन्हें हलों और गाड़ियों में जोता.उनके दूध पर भी अधिकार कर लिया जो पूरी तरह से उनके बच्चों के लिए था फिर भी वे कुछ नहीं बोले,विरोध भी नहीं किया.लेकिन प्रभुता का मतलब यह तो नहीं कि हम उनका गला ही रेत डालें और उन्हें खा जाएँ.यह तो उनके द्वारा सदियों से मानवता की की जा रही सेवा का पारितोषिक नहीं हुआ.उन बेचारों को तो यह पता भी नहीं होता कि वे अंधी आस्था के नाम पर मारे जा रहे हैं.उन्हें तो बस अपने गले पर एक दबाव भर महसूस होता है और फिर दर्द का,भीषण दर्द का आखिरी अहसास.
                   मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि चाहे कोई हिन्दू पशु-बलि दे या मुसलमान;वह किसी भी तरह से उचित या तार्किक है.यह प्रथा हमारी असभ्यता को ही दर्शाता है इसलिए इसे तत्काल रोका जाना चाहिए.यह पूरी कायनात खुदा की बनाई हुई हैं.उस परमपिता की नज़र में सारे जीव बराबर हैं.गैर बराबरी चाहे वो ईन्सानों के बीच हो या जीवों के मध्य हमने बनाए हैं,खुदा ने नहीं;इसलिए हमें कोई हक नहीं है कि हम अपने द्वारा गुलाम बना लिए गए खुदा के अंश जानवरों पर अत्याचार करें.उसके भीतर भी उसी खुदा का वही नूर रौशन हैं जो ईन्सानों के भीतर हैं.उसे भी दर्द होता है,ख़ुशी होती हैं.वो भी हरी घास देखकर खुश होता है और गले पर चाकू फेरे जाने पर रोता-चिल्लाता है,पांव पटक-पटक कर हमसे दया की गुहार करता है.              

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