गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कि खूने दिल में डुबो ली है ऊंगलियाँ मैंने

मित्रों,हमारे देश में लोकतंत्र की ट्रेन एक अजीब मोड़ पर आकर फँस गयी है.हमारी जनमोहिनी-मनमोहिनी केंद्र सरकार चाहती है कि ट्रेन उसकी मर्जी से उसके द्वारा बनाई हुई पटरी पर दौड़े.लेकिन अगर ट्रेन उस पटरी पर गयी तो दुर्घटना निश्चित है.मुश्किल यह है देश के शुभेच्छु विपक्षी दल,टीम अन्ना और जनता उसे बार-बार ऐसा करने से रोकना चाहते हैं लेकिन सरकार है कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है.उसका तो बस इतना ही मानना और कहना है कि देश की ट्रेन को जनता ने उसे पांच साल के लिए सौंपी है.अब वो उसको अप लाईन पर चलाए,डाऊन लाईन पर दौड़ाए या लूप लाईन पर भगाए या फिर बंगाल की खाड़ी में गिरा दे;कोई कौन होता है उसे टोकने और रोकनेवाला?इन मूर्खों की जमात को यह नहीं दिख रहा कि जो भी आदमी उसके जैसी पागल चालकवाली ट्रेन में सवार है उसे अपने जान और माल की चिंता तो होगी ही.
                मित्रों,पिछले सालों में हम समाचार पत्रों में यह खबर अक्सर पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन गूगल,फेसबुक आदि सामाजिक वेबसाईटों पर आने वाली सामग्री पर नियंत्रण करना चाहता है.चीन को ऐसा करना शोभा भी देता है क्योंकि वहां एकदलीय शासन है,तानाशाही है और वस्तु उत्पादन से लेकर विचारोत्पादन तक प्रत्येक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि पर सरकार का पूर्ण या यथासंभव नियंत्रण है.लेकिन क्या ऐसा प्रयास करने की सोंचना भी भारत सरकार के लिए शोभनीय है?क्या भारत में भी चीन की ही तरह एकदलीय शासन और तानाशाही है?कम-से-कम सैद्धांतिक और संवैधानिक रूप से तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है.फिर हमारी सरकार हमारी सोंच पर,हमारी विचार शक्ति पर कैसे प्रतिबन्ध लगा सकती है?हम गूगल,फेसबुक या किसी अन्य वेबसाईट पर कोई शौक से नहीं लिखते हैं बल्कि ऐसा करना हमारी मजबूरी है.हम भी चाहते हैं कि हमारे विचार मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में प्रकाशित हों लेकिन उन पर तो चंद पूंजीपतियों का कब्ज़ा है जो सरकार के खिलाफ कुछ भी छापने से डरते हैं.वे सब-के-सब सरकारी विज्ञापन की बीन की धुन पर बहरे,अंधे और गूंगे बनकर नाच रहे हैं.ऐसे में हम सामाजिक वेबसाईट्स पर नहीं लिखें तो कहाँ लिखें?सरकार अगर यह सोंचती है कि लोकतंत्र की ट्रेन को वह शौक से दुर्घटनाग्रस्त करा देगी और हम सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर मुंह ताकते रहेंगे तो उसे या तो इस अगहन पूणिमा के दिन प्राथमिक उपचार के तौर पर ठंडा ठंडा कूल कूल नवरत्न तेल के तालाब में डुबकी लगानी चाहिए और अगर फिर भी उसकी मानसिक स्थिति में सुधार नहीं हो तो उसके सभी मंत्रियों को सामूहिक रूप से मानसिक चिकित्सालय में बिना कोई देरी किए भर्ती हो जाना चाहिए.हमारी केंद्र सरकार आखिर यह कैसे भूल गयी कि हमारी भारतमाता कभी बंध्या नहीं हो सकती.भारतभूमि उससे उत्कट प्रेम करनेवाले वीरों से न तो कभी खाली रही है और न ही आगे कभी खाली ही होनेवाली है.इसलिए जब भी कोई सरकार देश को बेचने का अथवा देशहित को अपने लोभ और लालच के प्रदूषित जल में विसर्जित कर देने का प्रयास करेगी तो जान हथेली पर लेकर घूमनेवाले बच्चे,नौजवान और बूढ़े देश की लक्ष्मीबाई सदृश बेटियों सहित उसका और उसके प्रत्येक कदम का विरोध करने को उतावले हो उठेंगे.
               मित्रों,जहाँ तक मैंने पढ़ा है लोकतंत्र का मतलब ही होता है सहअस्तित्व और विरोधियों का और उनके विचारों का सम्मान.अगर हमारी सरकार सामाजिक साईटों को सरकारी बंदूकों या सत्ता की बेलगाम ताकत का भय दिखाकर झुका लेने में सफल हो जाती है तो फिर लोकतंत्र तो हमारे देश में अपने अर्थ ही खो देगा.अगर जनता अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगी तो फिर क्या मतलब रह जाएगा ऐसी दिखावटी और अर्थहीन स्वतंत्रता का?कहीं हमारी वर्तमान सरकार भारतीय लोकतंत्र को फासीवादी और नाजीवादी अंधकूप में धकेलने के चक्कर में तो नहीं है?सनद रहे कि इस सरकार की सूत्रधार सोनिया गाँधी की जन्मभूमि इटली में भी कभी फासीवाद लोकतंत्र की सीढियों पर चढ़कर ही सत्ता के शिखर पर पहुंचा था.तो कहीं सरकार की जनसामान्य के विचारों पर जंजीर डालने की कोशिश के पीछे सोनिया गाँधी का इटालियन मुसोलिनीवादी संस्कार तो नहीं काम कर रहा?
              मित्रों,कांग्रेस की वर्तमान सरकार की वर्ष २००४ से ही कोशिश रही है कि देश की जनता को बांटकर रखा जाए और फिर भ्रष्टाचार के माध्यम से छककर सत्ता की मलाई चाभी जाए.हिन्दू जनमानस को तो पहले ही जातीय राजनीति द्वारा बांटा जा चुका है इन दिनों आरक्षण की विभाजक दीवार हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खड़ी करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है.इन सबके बावजूद जनता के सभी तबकों के बीच सरकार की छवि में चुनाव जिताने के लायक सुधार नहीं हो पा रहा है.शायद इसलिए झुंझलाकर,घबराकर,हड़बड़ाकर,नाराज होकर,नासाज़ होकर और सत्ता के मद्यपान से मदमस्त होकर हमारी आम आदमी की अमीरपरस्त सरकार आम आदमी के विचारों पर ही ताला जड़ने का प्रयास करने लगी है.अगर सरकार सोशल वेबसाईट्स के संचालकों को भ्रष्टाचार के कीचड़ से सने अपने गंदे पैरों में झुका भी लेती है तो भी हम देशभक्त और आजादी के मतवाले उसकी देशविरोधी-जनविरोधी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए नए विकल्प तलाश लेंगे.वैसे वर्तमान वैश्विक ग्राम में कोई भी सरकार चाहे वो चीन की हो या भारत की विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रभावी रोक नहीं लगा सकी है और न ही लगा सकती है फिर यह चमचा शिरोमणि कपिल सिब्बल किस बंजर खेत का आलू है?बतौर फैज़-"मताए लौहो कलम छीन गई,तो क्या गम है/कि खूने दिल में डुबो ली है उंगलियाँ मैंने/जबान पे मुहर लगी है,तो क्या कि रख दी है/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जबाँ मैंने."      
           

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