गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

अनशन तोड़ना अन्ना का सराहनीय कदम

मित्रों,कोई भी आन्दोलन खड़ा करना और फिर उसे सफलतापूर्वक संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं होता.कांग्रेस गाँधी के पहले भी थी.उसके पास गाँधी से भी कहीं ज्यादा योग्य नेता भी थे लेकिन वे लोग लाख कोशिश करके भी ऐसा आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाए जिसे सही परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय कहा जा सकता हो.गाँधी ने १९२० में असहयोग आन्दोलन शुरू करने से पहले मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि दल स्वीकार करने की महान भूल करते हुए असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन से जोड़ दिया था.जैसे ही तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा सत्ता पर काबिज हुआ मुसलमान लोग कट लिए और केरल में तो हिन्दुओं के खिलाफ दंगा-फसाद भी शुरू कर दिया.इसी बीच गोरखपुर में चौरी-चौरा की दुखद घटना हो गयी और गाँधी को १२ फरवरी,१९२२ को न चाहते हुए भी अपनी सारी विश्वसनीयता को दांव पर लगाते हुए असहयोग आन्दोलन को असमय बिना किसी परिणति तक पहुंचे हुए ही वापस  ले लेना पड़ा.कुछ यही हाल १९३० के सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी हुआ.पहले तो १९३१ में गाँधी-इरविन समझौते के बाद उन्होंने आन्दोलन को स्थगित कर दिया.फिर द्वितीय गोलमेज सम्मलेन की विफलता के बाद फिर से आन्दोलन शुरू किया परन्तु इस बार आन्दोलन में वो खनक नहीं थी आने पाई जो इसके पहले भाग में थी.कारण यह था कि इस बार इसमें जनभागीदारी काफी कम थी.किसी भी देश-प्रदेश की जनता की संघर्ष की क्षमता सीमित होती है.वो लगातार अनंत काल तक संघर्ष नहीं कर सकती.हरेक की घर-गृहस्थी भी होती है और उसे भी देखना होता है.इसलिए गांधीजी ने समझदारी का परिचय देते हुए अप्रैल,१९३४ में आन्दोलन को वापस ले लिया.
                                मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान भी रही.धीरे-धीरे इसका भी प्रभाव कम होता गया और अंत में सितम्बर १९४२ के बाद यह आन्दोलन भूमिगत होकर रह गया.दिसंबर,१९४३ आते-आते भूमिगत क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ भी समाप्तप्राय हो गयी.हाँ,लेकिन गाँधी के साथ एक बात और भी थी.वे जब आन्दोलन नहीं कर रहे होते थे तब सामाजिक-रचनात्मक कार्य कर रहे होते थे.इससे समाज में नई चेतना का प्रसार तो होता ही था नए लोगों को भी कांग्रेस के साथ जोड़ा जाता था.जहाँ तक गाँधी के आंदोलनों में मुसलमानों की भागीदारी का प्रश्न है तो इस मामले में गाँधी भी भाग्यशाली नहीं थे और तब मुस्लिम लीग गाहे-बेगाहे इस बात का ढिंढोरा पीटती रहती थी कि कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं की पार्टी है और इस प्रकार एक सांप्रदायिक संगठन है.
                             मित्रों,इस समय अन्ना के आन्दोलन के सन्दर्भ में कुछ यही काम गाँधी की विरासत का दावा करनेवाली कांग्रेस पार्टी कर रही है.टीम अन्ना के लाख प्रयासों के बाबजूद कांग्रेसी प्रोपेगेंडे ने असर दिखाया और इस बार मुसलमान आन्दोलन से दूर ही रहे.साथ ही,दूसरी आम जनता की भी इस तीसरी बार हो रहे अन्ना के अनशन में काफी कम भागीदारी देखी गयी.कहाँ रह गयी कमी?शायद कमी रह गयी टीम अन्ना की रणनीति में.मेरे मतानुसार पहली कमी तो यह थी कि टीम अन्ना ने आन्दोलन के लिए गलत समय का चयन कर लिया.इस समय संसद में लोकपाल पर बहस चल रही है और पूरे देश की निगाहें उसी पर टिकी हुई हैं ऐसे में लोगों से यह उम्मीद कर लेना कि वे संसद पर पूरी तरह से अविश्वास प्रकट करते हुए अन्ना के समर्थन में सड़कों पर आ जाएँगे बेमानी थी.दूसरी कमी रही आन्दोलन के लिए स्थान चयन में.अन्ना ने अपनी और जनता की सुविधाओं का ख्याल करते हुए दिल्ली के बजाये मुम्बई को आन्दोलन का केंद्र बनाने का फैसला कर लिया.वे भूल गए कि आन्दोलन सुविधाओं को ध्यान में रखकर नहीं छेड़े जाते हैं बल्कि इसके लिए तो जनभावनाओं का उभार चाहिए होता है.दिल्ली और मुम्बई के लोगों के मिजाज में ही मौलिक अंतर है.मुम्बई एक बेहद व्यस्त शहर है.वहां के लोग इतने अधिक स्वयंसीमित होते हैं कि उनकी दिनचर्या पर २६-११ से भी कोई फर्क नहीं पड़ता.वहीं दिल्ली के लोगों के दिलों के किसी कोने में देशभक्ति भी बसती है.साथ ही,यहाँ का जीवन उतना व्यस्त भी नहीं है.११-१२ बजे दुकानों का खुलना दिल्ली के लिए आमबात है.इसलिए रामलीला मैदान चंद मिनटों में ही खचाखच भर जाता है चाहे आह्वान करनेवाला रामदेव हों या अन्ना हजारे.हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रामलीला मैदान में जमा लोगों में बहुत बड़ा हिस्सा दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों से आनेवाले लोगों का भी होता है जैसे मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड,झारखण्ड इत्यादि.जंगे आजादी में भी चाहे असहयोग आन्दोलन हो या सविनय अवज्ञा आन्दोलन या फिर भारत छोड़ो आन्दोलन उस समय भी इन्हीं क्षेत्रों में आंदोलनों का असर ज्यादा रहा था.दक्षिण भारत तो अंत तक लगभग निष्क्रिय बना रहा था.साथ ही,दिल्ली हमेशा से भारतीय संप्रभुता की प्रतीक भी रही है इसलिए लगभग सारे आन्दोलनकारी दिल्ली चलो का नारा देते हैं.
                   मित्रों,कोई भी आन्दोलन जनभागीदारी से ही सफल और विफल होती है.अन्ना कहते भी हैं कि समर्थकों की भीड़ से ही उन्हें भूखे रहकर भी ऊर्जा मिलती है.कुछ सरकारी और कांग्रेसी षड्यंत्रों के चलते और  कुछ टीम अन्ना द्वारा आन्दोलन के लिए गलत वक्त और गलत स्थान चुनने के चलते भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का तीसरा चरण दुर्भाग्यवश सफल नहीं हो पाया.कोई बात नहीं ऐसा तो गाँधी के साथ भी हुआ था.अच्छा रहेगा कि टीम अन्ना भी गाँधी की तरह ही खाली समय में यानि दो आंदोलनों या आन्दोलन के दो चरणों के मध्यांतर में कोई सामाजिक-रचनात्मक कार्यक्रम का सञ्चालन करे.इससे दो फायदे होंगे-एक तो देश व समाज में नई चेतना आएगी और दूसरी इससे उनके आन्दोलन से नए-नए लोगों के निष्ठापूर्वक जुड़ने से संचित ऊर्जा में बढ़ोत्तरी होगी.मैं टीम अन्ना और अन्ना हजारे द्वारा फ़िलहाल आन्दोलन वापस लेने के निर्णय का स्वागत करता हूँ क्योंकि जोश जरुरी तो है ही लेकिन उससे कम आवश्यक होश भी नहीं है.आप लोगों के बीच जाईये,उनके दुःख-दर्द में भागीदार बनिए,कोई निर्माणात्मक कार्यक्रम चलाईये;फिर जब लगे कि आपने आन्दोलन के लिए आवश्यक ऊर्जा अर्जित कर ली है तो फिर से आन्दोलन का शंखनाद करिए.याद रखिए,कभी-कभी जोरदार टक्कर मारने के लिए पीछे भी हटना पड़ता है.जय हिंद,वन्दे मातरम.                           

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