मंगलवार, 31 जनवरी 2012

सरस्वती के उद्दंड बेटे

मित्रों,वक़्त को आते हुए तो सभी देखते हैं पर कब वह चुपके से,दबे पांव सरक लेता है कोई नहीं जान पाता.देखते-देखते नववर्ष और मकर-संक्रांति की तरह ही वसंत पंचमी भी गुजर गयी और साथ ही सरस्वती पूजा भी.फिर शुरू हुआ विद्या और विवेक की अधिष्ठात्री भगवती सरस्वती की प्रतिमाओं को विसर्जित करने का सिलसिला.सरस्वती-पुत्र जुलूस की शक्ल में सड़कों से गुजरने लगे.ठेले पर देवी की प्रतिमा सबसे पीछे,उसके आगे भारी-भरकम साउंड बॉक्सों से लैस ट्रॉली और सबसे आगे शराब के नशे में धुत्त,अश्लील-फूहड़ गानों की बेहूदा धुनों पर लड़खड़ाते हुए नृत्य-जैसा कुछ करते सरस्वती के बेटे अथवा भक्त.कई बार तो जी में आया कि लाठी उठाऊँ और एक सिरे से सबकी पिटाई कर दूं परन्तु परिणाम की सोंचकर हर बार गुस्से को जज्ब कर गया.
                        मित्रों,लगभग पूरे बिहार से इस समय प्रतिमा-विसर्जन के दौरान नदियों-तालाबों में युवकों के डूबकर मारे जाने की ख़बरें आ रही हैं.क्या जरुरत है खतरा मोल लेकर ज्यादा गहरे पानी में प्रतिमा  को विसर्जित करने की?यहाँ तक कि खचाखच भरी नावों में भी इन नशेड़ियों की उच्छृंखलता नहीं रूकती जिसका परिणाम होती है जानलेवा दुर्घटनाएं.जुलूस के रास्ते में भी इनका रवैया निहायत अफसोसनाक होता है.कभी-कभी ये लोग रास्ते में वैध-अवैध आग्नेयास्त्रों से गोलीबारी भी करते चलते हैं.कल कुछ इसी तरह की एक दुखद घटना में सहरसा में रेशमा नाम की एक लड़की मारी गयी.इसी तरह की एक और हिंसात्मक घटना में मुजफ्फरपुर में विवेक नाम के एक सरस्वती-भक्त की दूसरे भक्तों ने चाकुओं से गोदकर हत्या कर दी.
                         मित्रों,आप सोंच रहे होंगे कि इस तरह की घटनाएँ क्यों हो रहीं है?निश्चित रूप से इसके लिए हमारी दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली और समाज का नैतिक-स्खलन तो जिम्मेदार हैं ही हमारे द्वारा दिया गया चंदा भी कम दोषी नहीं है.हम चंदा तो दे देते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि हमारे बच्चे उन पैसों का कर क्या रहे हैं जबकि यह हमारा ही कर्त्तव्य है.हम उन्हें चंदा देते हैं पूजा-पाठ में खर्च करने के लिए और वे जनाब उसका शराब पी जाते हैं.इतना ही नहीं कभी-कभी तो हमारे द्वारा प्रदत्त राशि से नृत्यांगनाएं भी बुलाई जाती हैं और उनसे कामुक और भौंडे नृत्य कराए जाते हैं.भगवान वैद्यनाथ की नगरी देवघर की  एक ऐसी ही घटना इनदिनों खूब चर्चा में है.आश्चर्य है कि ये लोग जाहिर तौर पर पूजा तो कर रहे हैं बुद्धि और विवेक की देवी सरस्वती की और कर रहे हैं बुद्धि और विवेक के सबसे बड़े शत्रु मदिरा का सेवन और अर्द्धनग्न स्त्रियों का साक्षात् दर्शन.मुझे नहीं लगता कि जिन स्थानों पर टिंकू जिया,शीला की जवानी और उ लाला उ लाला जैसे अतिअश्लिल गीत बजे जाते हैं वहां माता सरस्वती का क्षण भर भी टिक पाना संभव होता होगा.
                                       क्या सरलता,सादगी और पवित्रता की देवी की अर्चना सरल सामग्री-साधनों द्वारा,बिना किसी तड़क-भड़क के और सरल-सच्चे मन से नहीं की जानी चाहिए?अन्यथा पूजा का कोई मतलब भी नहीं रह जाता क्योंकि कोई भी पूजा अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए की जाती है न कि दिखावे,प्रदर्शन और अपने उच्छृंखल मन को संतुष्ट करने के लिए.सरस्वती पूजा कोई आप युवा सरस्वती-पुत्रों की ईजाद नहीं है.पूजा हमने भी की थी.तब यानि आज से कोई २५ साल पहले हम अपने नाजुक कन्धों पर उठाकर देवी को १० किलोमीटर दूर बांदे करनौती से जगन्नाथपुर लाया करते थे.कोई लाउडस्पीकर या साउंड बॉक्स नहीं होता था पूजा-स्थल पर.विसर्जन के समय भी हम प्रतिमा को अपने कन्धों पर ही उठाते थे और गाँव के प्रत्येक अमीर-गरीब के घर के सामने रखते थे ताकि महिलाएँ देवी को विधिवत-पुत्रीवत खोईछा भरकर विदाई दे सकें.तब सूरज पासवान की कमर में ढोलक बंधा होता था और जयलाल रविदास अति मधुर और भक्ति-भीना स्वर में 'हंसा पर सवार हे माता,हंसा पर सवार हे' गाते चलते थे.साथ में हम जैसे अन्य युवा-किशोर झाल-करताल बजा-बजाकर संगत करते चलते थे.कहीं कोई उच्छृंखलता या अश्लीलता नहीं;चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ भक्ति का पवित्र वातावरण.क्या वह युग फिर से वापस नहीं आ सकता?अगर नहीं तो क्यों नहीं?बंद करिए लाउडस्पीकर,डीजे और म्युजिक ट्रॉली का प्रयोग.उठाईये ढोलक और झाल-करताल.शराब पीना और अश्लील सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तो निर्विकल्प रूप से बंद होना ही चाहिए.अंत में,मेरी सरस्वती के सभी उद्दंड पुत्रों से हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन है कि जो हुआ सो हुआ आगे से अगर वे सचमुच माता सरस्वती को प्रसन्न करना चाहते हैं तो इन बातों का अवश्य ख्याल रखेंगे.लेकिन क्या मेरे युवा-किशोर अनुज मेरी यानि सरस्वती के इस तुच्छ साधक की सुनेंगे?

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

लोकतंत्र का पेड़ और जनांदोलनों की आंधी

मित्रों,जबसे भारत में अन्ना हजारे के प्रखर नेतृत्व में जनांदोलन शुरू हुआ है इसके भारतीय लोकतंत्र पर संभावित प्रभावों का लगातार विश्लेषण किया जा रहा है.ताजा विश्लेषण किया है हमारी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी ने.उनके मतानुसार भारतीय लोकतंत्र एक वृक्ष है और जनांदोलन उसे लगातार आंधी-तूफ़ान की तरह हिला रहे हैं,जिसके चलते हो सकता है कि यह पेड़ ही जड़ से उखड जाए.उन्होंने सीधे-सीधे जनांदोलनों का जिक्र तो नहीं किया है लेकिन उनके कथन के आशय को लेकर वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए किसी तरह के भ्रम की गुंजाईश भी नहीं है.अब प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच भारत में लोकतंत्र खतरे में है और अगर खतरे में है भी तो उसे किन-किन तत्वों से और किस तरह का और कितना गंभीर खतरा है?
                       मित्रों,चाहे कोई भी शासन हो,किसी भी तरह का शासन हो उसकी मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि आम जनता का उसके ऊपर कितना विश्वास है.इतिहास गवाह है कि किसी भी शासन को सबसे ज्यादा खतरा होता है भ्रष्टाचार से और गरीबी तथा बेरोजगारी से.चाहे फ़्रांस की क्रांति हो या रूस की या फिर मिस्र या लीबिया की;ये क्रांतियाँ इसलिए हुई क्योंकि पूर्व प्रचलित शासन समय रहते जनाक्षाओं के अनुरूप खुद को नहीं बदल सका.चीन में च्यांग काई शेक अमेरिका आदि अतिशक्तिशाली देशों द्वारा खुले दिल से सहायता मिलने के बाबजूद गृहयुद्ध में इसलिए हार गया क्योंकि उसके शासन में इतना अधिक भ्रष्टाचार बढ़ गया था कि उसके सैनिक चंद पैसों के लिए अपने हथियार और गोलियां तक माओवादियों के हाथों बेच डालते थे.बढ़ते भ्रष्टाचार ने उसके मजबूत शासन को अन्दर से खोखला कर दिया था और जनता का उसमें विश्वास भी समय गुजरने के साथ निराशा के कारण कम होता जा रहा था.
                          मित्रों,वर्तमान भारत की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है.निश्चित रूप से हमारा लोकतंत्र इस समय खतरे में है और खतरा भी बाह्य नहीं आतंरिक है शेक के चीन की तरह.हमारे लोकतंत्र को मधु कोड़ा,ए. राजा,सुखराम,मायावती,सुरेश कलमाड़ी,लालू प्रसाद यादव जैसे अनगिनत भ्रष्ट जनप्रतिनिधि मुँह चिढ़ा रहे हैं और वर्तमान केंद्र सरकार है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रभावी कदम उठाना चाहती ही नहीं.ऐसे में जब अख़बारों और सोशल मीडिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार आवाज उठाने और सरकार को कदम उठाने के लिए प्रेरित  करने का कोई प्रभाव होता नजर नहीं आ रहा था तब जनता के सामने सिवाय जनांदोलन करने के कोई विकल्प ही नहीं था.पहले तो आम जनता ने अपने खास जनप्रतिनिधियों से 'तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे,पढ़ते रहे छंद अनुनय के प्यारे-प्यारे.'शैली में हाथ जोड़कर विनती की और कहा कि "हे कृपानिधान!कृपया आप हमारी मांगों को मानते हुए जनलोकपाल कानून बनाईये जिससे हमें भ्रष्टाचार रुपी दानव से राहत मिल सके."परन्तु सत्ता की मद-वारुणी के पान में मस्त जनता द्वारा ही गलती से निर्वाचित हुई सरकार ने उनकी विनम्रता को उनकी कमजोरी का संकेत मान लिया.साथ ही वे आम जनता की ईच्छा को भी नहीं समझ सके.उन्हें लगा कि इस जनांदोलन में कोई आंतरिक ऊर्जा है ही नहीं और यहीं पर उन्होंने १६ अगस्त,२०११ को वह गलती कर दी जो ७-८ नवम्बर,१९१७ को रूस में जार निकोलस द्वितीय ने और १४ जुलाई,१७८९ को फ़्रांस में लुई १६वाँ ने की थी;उन्होंने क्रांति के सूरज को ही कैद करने की कोशिश की और नतीजे में अपना हाथ जला बैठे.बाद में उन्होंने भयभीत मन से अन्ना को अनशन की अनुमति तो दे दी लेकिन उनके हाव-भाव से आज भी ऐसा बिलकुल भी नहीं लग रहा है कि उन्होंने अपनी गलतियों से कुछ सीखा भी है.बाद में संसद में एक दन्त और विषविहीन लोकपाल की स्थापना का कुत्सित प्रयास भी सरकार द्वारा किया गया जो जनता के दबाव के चलते सौभाग्यवश असफल भी हो गया.इस बीच प्रधानमंत्री ने नए साल पर देशवासियों को भरोसा दिलाया कि वे नए साल में भ्रष्टाचार और कुशासन को दूर करने के लिए अपेक्षित कदम उठाएंगे परन्तु अभी तक इस तरह के कोई संकेत दृष्टिगत नहीं हो रहे हैं.
                         मित्रों,कुछ करने के लिए एक दिन ही काफी होता है और नहीं करने के लिए सदियाँ भी नाकाफी होती हैं.सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की ग़लतफ़हमी पालने की बीमारी अभी भी गई नहीं है.वह अन्ना के मुम्बई आन्दोलन की विफलता के बाद यह मान बैठी है कि उनके जनांदोलन में अब कोई ऊर्जा शेष ही नहीं रही और अगर पार्टी को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल होती है तब सीधे-सीधे यह मान लेना चाहिए कि जनता ने अन्ना और उनकी मांगों को ख़ारिज कर दिया है.हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि विधानसभा चुनावों की प्रकृति लोकसभा चुनावों से अलग होती है.इन चुनावों में ज्यादातर स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं और राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभाव कम ही होता है.यह बात कांग्रेस के नेता भी जानते हैं इसलिए इन चुनावों को किसी भी तरह अन्ना आन्दोलन पर जनमत संग्रह नहीं माना जा सकता है;नहीं माना जाना चाहिए.इस सत्य में कोई संदेह नहीं कि इस आन्दोलन में अभी भी पर्याप्त ऊर्जा है और अगर सही वक़्त में फिर से आन्दोलन छेड़ा जाता है तो हमारे मदांध शासकों को झुकाया जा सकता है और घुटनों पर आने के लिए मजबूर भी किया जा सकता है.इस आन्दोलन को न तो बैरम खान दिग्विजय सिंह के कुतर्क ही कमजोर कर सकते हैं और न ही अकबर राहुल गाँधी की कोरी राजनीतिक विरासत ही.यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह आन्दोलन लोकतंत्र के खिलाफ हरगिज नहीं है बल्कि यह तो शासन-प्रशासन में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार के विरुद्ध है इसलिए इससे लोकतंत्र के पेड़ के जड़ से उखड जाने का खतरा राष्ट्रपति जी को क्यों महसूस हो रहा है,शायद उन्हें ही इसका बेहतर पता होगा.राष्ट्रपति जी लोकतंत्र अगर एक पेड़ है तो उसकी जड़ें है भ्रष्टाचार-मुक्त सुशासन और उसके इर्द-गिर्द की मजबूत मिटटी है जनता का उसके प्रति अटूट विश्वास.अगर इस पेड़ को समय रहते भ्रष्टाचार की इस विषबेल से नहीं बचाया गया और इसका वक़्त पर उपचार नहीं किया गया तो फिर एक दिन निश्चित रूप से यह पेड़ खोखला होकर सूखे ठूंठ में बदल जाएगा और मर जाएगा.शायद वह दिन अब ज्यादा दूर रह भी नहीं गया है.तब न तो इसे हिलाने की आवश्यकता होगी और न ही ईलाज करने की ही.इसलिए हमें अब से और अभी से ही भ्रष्टाचार की इस विषबेल को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर देने चाहिए.तभी भारत में लोकतंत्र बच पाएगा और हमारे मदमस्त जनप्रतिनिधियों के पद भी शेष रह रह पाएँगे.वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के वटवृक्ष को खतरा भ्रष्टाचार से है न कि जनांदोलनों से.बल्कि जनांदोलनों की सफलता से ही हमारे लोकतंत्र की सफलता का मार्ग अग्रसर होने वाला है.अब तो सरकार द्वारा इस दिशा में कदम उठाये जाने की भी इन्तहां हो रही है.दुष्यंत कुमार के शब्दों में 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए;सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.'          

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

आग,धुंआ और टीम इंडिया

मित्रों,हमारे गांवों में एक कहावत है कि जो पंडित विवाह का मंत्र जानता है उसे श्राद्ध का मंत्र भी पता होता है.मतलब  कि बीसीसीआई के जो अधिकारी किसी युवक को स्टार बनने का मौका दे सकते हैं नाराज होने पर उसे बर्बाद भी कर सकते हैं.जो दर्शक चौबीसों घंटे टीवी के परदे पर किसी प्यासे चातक की तरह नजरें गड़ाए रहते हैं उन्होंने सपने में भी यह नहीं सोंचा होता है कि भारतीय क्रिकेट का असली खेल टीवी के परदे पर नहीं बल्कि परदे के पीछे चल रहा होता है भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में.ये क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वाले पहले तो किसी कप्तान या खिलाडी की पतंग को खूब ऊंचाई तक उड़ने की ढील देते हैं और जब उनकी पतंग ऊंचाईयों की उनकी बनाई हुई हदों तक पहुँच जाती है तब चुपके से डोर को ही काट देते हैं.
                मित्रों,कुछ इसी तरह की शरारत भारतीय क्रिकेट इतिहास के तब तक के सबसे सफल कप्तान सौरव गांगुली के साथ भी की गयी और अब शायद महेंद्र सिंह धोनी के खिलाफ भी कुछ उसी तरह की साजिश रची जा चुकी है.वर्ना धोनी जैसा जीवटवाला कप्तान जिसके नेतृत्व में भारतीय टीम ने न केवल २८ साल बाद विश्वकप जीता बल्कि पहली बार टेस्ट क्रिकेट में नंबर एक का ताज भी पहना अब टेस्ट क्रिकेट से ही संन्यास लेने की बात नहीं करता.तर्कशास्त्र में एक सूक्ति खूब प्रचलित है कि धुंआ वहीं पर होता है जहाँ आग होती है.मतलब कि बिना धुंए की आग भले ही इस २१वीं सदी में जलाना संभव हो गया हो लेकिन बिना आग जलाए असली धुंआ उत्पन्न हो ही नहीं सकता;उसके लिए तो निर्धारित तापमान चाहिए ही.
                        मित्रों,कुछ ही दिनों पहले से ऑस्ट्रेलियन मीडिया में भारतीय क्रिकेट टीम से जुडी हुई कुछ इस तरह की ख़बरें छन-छन कर बाहर आ रही हैं कि इस समय भारतीय क्रिकेट टीम में कप्तान धोनी के खिलाफ विद्रोह भड़क उठा है और जिस तरह गांगुली को बेआबरू करके टीम से निकालने के समय विद्रोह का नेतृत्व राहुल द्रविड़ ने किया था उसी तरह इस समय वीरेंदर सहवाग विद्रोह की कमान संभाल रहे हैं.इन आशंकाओं को तब और भी बल मिल गया जब ब्रायन लारा और सौरव गांगुली ने ऑस्ट्रेलिया में टीम की हार पर धोनी का बचाव करते हुए कहा कि धोनी बहुत अच्छे कप्तान हैं और उनकी कप्तानी में अब भी कोई कमी नहीं है उन्हें अपनी टीम का सहयोग नहीं मिल पा रहा.ऐसा टीम के अन्य खिलाडी क्यों कर रहे हैं यह उन्होंने नहीं बताया.बस एक संकेत भर देकर चुप हो गए. क्रिकेट पिच पर तो अनिश्चितताओं का खेल है ही;भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की अंदरूनी राजनीति भी कम अनिश्चिततापूर्ण नहीं है.कब किसको बाहर बिठाना है और किसको अर्श से फर्श पर चढ़ाना है और फिर किसको सफलता की बुलंदियों पर चढ़ने के मौका देकर धक्का दे देना है;इसका फैसला खिलाडियों का प्रदर्शन नहीं करता हमारी बीसीसीआई के घाघ अधिकारी करते हैं.शायद इन शानिदेवों की वक्रदृष्टि के ताजा शिकार बने हैं क्रिकेट के तीनों संस्करणों में भारत के सबसे सफल कप्तान बन चुके महेंद्र सिंह धोनी.हो सकता है कि टीम के सहवाग सरीके खिलाडियों को और टीम प्रबंधन को भी अब एक जन्मना बिहारी का नेतृत्व खटकने लगा हो.टीम इण्डिया हमेंशा से ही भारतीय एकता का प्रतीक रही है.उसमें क्षेत्रवाद का उभार होना न केवल भारतीय क्रिकेट के लिए हानिकारक होनेवाला है वरन यह इस संक्रमण काल में देश की एकता को भी कमजोर करेगा अच्छा होता अगर टीम इण्डिया और प्रबंधन धोनी पर पूरा विश्वास करते और उसके साथ पूर्ण सहयोग करके भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाईयों तक पहुँचाने का अवसर देते क्योंकि धोनी जैसे कप्तान किसी देश और टीम को बार-बार नहीं मिला करते.अगर यह सच है तो धोनी की कप्तानी में जानबूझ कर कुछ खिलाडियों का ख़राब खेलना देश के साथ-साथ खेल-भावना के साथ भी धोखा है.

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

शिकारी आएगा जाल बिछाएगा

मित्रों,मौसम विज्ञान के आंकड़ों पर अगर हम विश्वास करें तो भारत में सबसे ज्यादा ठंडा जनवरी का महीना होता है लेकिन अगर हम देश की राजनीतिक जलवायु की दृष्टि से विचार करें तो यह गुजर रहा मौजूदा महीना सबसे ऊंचे तापक्रम वाला है.सारे राजनीतिक दल इस समय अचानक पेशेवर शिकारी बन गए हैं और पाँच राज्यों की जनता को अतिमधुर लोरियाँ सुनाने में लगे हुए हैं और इस फ़िराक में हैं कि कब जनता सोए और वे उसका बहुमूल्य वोट ले उड़ें.कोई तो सीधे पैसे देकर वोट खरीद रहा है तो कोई जनता को वायदों की मीठी चाशनी में नहलाने में व्यस्त है.
                   मित्रों,मेरे गुरूजी श्रीराम बाबू जब मैं मध्य विद्यालय में पढ़ता था तब एक कहानी सुनाया करते थे.कहानी में भी एक गुरूजी थे लेकिन थे गुरुकुल के जमानेवाले.गुरूजी ने कई तोते पाल रखे थे जिन्हें अक्सर शिकारी बहेलिये जाल में फंसा लिया करते और बाजार में बेच देते.गुरूजी ने फिर अपने तोतों को बहेलिए से बचाने की एक फुलप्रूफ योजना बनाई.उन्होंने अपने तोतों को पाठ रटाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.अगली बार जब शिकारी आया तो पास के पेड़ पर बैठे गुरूजी के तोतों ने एक साथ शोर मचाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.शिकारी परेशान हो गया कि आज तो बहुत गड़बड़ है.तोते पहले से ही लोभ से नहीं फंसने का राग अलाप रहे हैं.फिर भी उसने अपने आराध्य का नाम लेकर डूबती हुई उम्मीद से ही सही जाल बिछाया और दाना डाला.परन्तु यह क्या लोभ से नहीं फँसने का तुमुल शाब्दिक नाद करनेवाले सारे-के-सारे तोते तो एक ही बार में आकर जाल में फँस गए.
                       मित्रों,कहीं फिर से यह पौराणिक प्रतीकात्मक कथा तो ५ राज्यों में नहीं दोहराई जाने वाली है.डर लगता है कि हमारी निरीह जनता कहीं फिर से वोटों के शिकारियों के जाल में तो नहीं फँस जाने वाली है.कोई उन्हें आरक्षण देने का दाना दाल रहा है तो कोई देश को केंद्र में कुशासन देने के बाद राज्यों में सुशासन देने का वादा किए जा रहा है.किसी को अपने जातिवादी सामाजिक समीकरण पर अटूट भरोसा है तो कोई दूसरे दलों के भ्रष्ट और रिजेक्टेड नेताओं को अपनाने के लिए पगलाया जा रहा है तो कोई जनता को जाति-धर्म में बाँटने के बाद राज्य को ही कई-कई भागों में बाँट देने का वादा कर रहा है.जोड़ने की बात कोई नहीं कर रहा सबके सब तोड़ने में ही लगे हैं.जनता भी विकल्पहीन है क्योंकि जब सबके सब रिजेक्ट करने के ही लायक हैं तो फिर वोट दिया जाए तो किसे?राईट टू रिजेक्ट का अधिकार होता तो इस समय उसका भरपुर लाभ उठा लिया जाता परन्तु वो तो अभी भी बहुत दूर की कौड़ी है.इसलिए किसी-न-किसी को तो वोट देना और चुनना है ही भले ही वो कितना भी डिफेक्टिव और रिजेक्टेबल क्यों न हो.फिर भी इस उपलब्ध अवस्था में भी अगर वे अपने विवेक का समुचित इस्तेमाल करें तो देश और प्रदेश की लगातार बिगडती स्थिति को समय रहते संभाला जा सकता है.बस उन्हें करना यही है कि वे भी इस सूत्र-वाक्य का रट्टा लगा डालें और गुरूजी के तोतों की तरह सिर्फ रट्टा ही नहीं लगाएँ बल्कि उस पर गंभीरता से अमल भी करें कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.बस!!
                  

शनिवार, 14 जनवरी 2012

अब तो भगवान भी नहीं रहे सुरक्षित


मित्रों,हमारा देश इस समय जनसंख्या-विस्फोट के युग से गुजर रहा है.जहाँ देखिए वहीं अनियंत्रित और अनुशासनहीन भीड़.नई पीढ़ी प्रत्येक पुराने मूल्य को नकारने पर आमादा है.मानो केवल पुराना होना ही सबसे बड़ा कलंक हो गया.पुराने मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं और नए मूल्यों की स्थापना भी नहीं हो रही.परिणाम यह है कि हमारा भारतीय समाज एक शाश्वत मूल्यहीनता के दौर में प्रवेश कर गया है.एक ऐसे दौर में जिसके दोनों सिरों पर अंधेरा-ही-अंधेरा है,अंधेरे का विकट साम्राज्य.
                    मित्रों,एक समय था जब हम लोग मंदिरों और देवमूर्तियों को सत्य का अंतिम ठिकाना मानते थे.दो लोगों में किसी बात को लेकर गंभीर विवाद पैदा हो गया और सच-झूठ का निर्णय नहीं हो पा रहा है तो फिर चलिए दोनों पक्ष देवमूर्ति को छूकर खाइए कसम कि पुत्र मर जाए या पति मर जाए जो मैं झूठ रहा/रही होऊँ.लोगों का अटल विश्वास था कि कोई बेईमान-से-बेईमान व्यक्ति भी देवमूर्तियों को छूकर झूठी कसमें नहीं खाएगा और अगर वह ऐसा करता है तब वह देवमूर्ति उसे अवश्य दण्डित करेगी.इस प्रकार समाज में धर्म और अधर्म व विश्वास और अविश्वास के बीच एक प्रभावकारी संतुलन बना रहता था.
                            मित्रों,फिर वो दौर भी आया जब झूठी कसमें खानेवालों ने पाया कि ऐसा करने से कोई नुकसान तो होता ही नहीं.फिर तो हमारे धर्मभीरु समाज में ऐसा करनेवालों की संख्या बढती ही चली गयी.साथ ही क्रमशः देव मूर्तियों और मंदिरों के प्रति लोक-आस्था में भी गिरावट का दौरे-दौरा चलता रहा और आज हमारा समाज एक ऐसे मुकाम पर आ पहुंचा है जहाँ इन मंदिरों और देवमूर्तियों के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो गया है.सबसे पहले २०१० में रजरप्पा स्थित महान छिन्नमस्तिका मंदिर से माता की पिण्डिका को चोरों द्वारा ध्वस्त कर देने और उसमें से मूल्यवान धातुओं और पत्थरों की चोरी की घटना घटी और फिर तो यह सिलसिला ही चल पड़ा.अब हालत ऐसी हो गयी हैं कि हमारे प्रदेश का कोई भी मंदिर या मूर्ति सुरक्षित नहीं है.ये मंदिर या इनमें स्थापित मूर्तियाँ केवल एक जड़-वस्तु नहीं हैं बल्कि ये लोक-आस्था के उद्दाम प्रतीक भी हैं.लोगों के इस विश्वास का प्रतीक कि जब भी मन निराश हो  जाए और चारों तरफ से पंगु हो जाए तब उसे ईश्वर सहारा देता है.लोगों की इस आस्था के प्रतीक हैं ये कि जब भी कोई पाप करेगा तो उसे उसका दंड अवश्य भुगतना पड़ेगा.अगर ये आस्था और विश्वास के दुर्ग ढह गए तो फिर कोई भी अधर्म करने से नहीं डरा करेगा और तब निश्चित रूप से समाज में कभी दूर नहीं हो सकनेवाली अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी और हम फिर से एकबारगी आदिकालीन सामाजिक स्थिति में पहुँच जाएँगे जिस समाज का सिर्फ एक ही धर्म होगा और आस्था भी एक ही होगी कि जिसकी लाठी उसकी भैंस.फिर तो बलवान अपने से निर्बलों पर इस कदर कहर ढाएंगे कि मानवता की रूह ही कांपने लगेगी.न तो किसी का धन ही सुरक्षित रहेगा और न ही स्त्री ही.तब भाई ही बहनों के साथ बलात्कार किया करेंगे अथवा बहनें ही भाइयों के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए बेहाल होने लगेंगी.
                मित्रों,प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई कारण होता है.नई पीढ़ी की मूल्यहीनता के भी कारण हैं.मेरी समझ से सबसे बड़ा कारण है दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली.हम उन्हें शिक्षित तो कर रहे हैं परन्तु दीक्षित नहीं कर रहे.हमने उन्हें यह तो रटा दिया की सत्यं वद,धर्मं चर परन्तु खुद कभी सत्याचरण नहीं किया और जीवनपर्यंत अधर्म और अनीति में लीन रहे.हमारी नई पीढ़ी को केवल कोरे शब्द नहीं चाहिए उन्हें तो उदहारण भी चाहिए और अगर हमें सनातन भारतीय सामाजिक मूल्यों की रक्षा करनी है,अपनी इस अमूल्य थाती को बचाना है तो हमें खुद ही उदाहरण बनना पड़ेगा.कोई राम या कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए नहीं आनेवाले जो भी करना होगा हमें ही करना होगा.परन्तु क्या हम ऐसा करेंगे.............?

शनिवार, 7 जनवरी 2012

सुशासन मतलब अंधा,बहरा और बड़बोला शासन

मित्रों,यह घटना तब की है जब १९८० में स्वर्ग सिधार चुके मेरे दादाजी अनिवार्य रूप से जीवित थे.हुआ यूं कि मेरे गाँव जुड़ावनपुर के पडोसी गाँव चकसिंगार से नाई भोज का न्योता देने आया और गलती से मेरे घर भी न्योता दे गया जबकि उसे देना नहीं था.दो घंटे बाद वह सकुचाता हुआ दोबारा आया और मेरे दादाजी से बोला कि वह न्योता वापस लेने आया है.दादाजी ने भी छूटते ही कहा कि दरवाजे पर जो संदूक रखा हुआ है अभी तक न्योता उसी पर पड़ा हुआ है,उन्होंने न्योते को घर तो भेजा ही नहीं है.जाओ और संदूक पर से ले लो.बेचारे नाई की समझ में कुछ भी नहीं आया.न्योता कोई भौतिक वस्तु तो था नहीं कि दिखाई दे और वह उसे अपने साथ उठाकर ले जा सके.
                  मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति इन दिनों बिहार में सुशासन की है.प्रिंट मीडिया लगातार राज्य में सुशासन स्थापित होने का रट्टा लगे हुए है.उसे सरकारी तंत्र के कण-कण में सुशासन दिखाई दे रहा है.कैसे और क्यों दिखाई दे रहा है यह मीडिया ही जाने.कभी 'खींचो न कमान न तलवार निकालो,जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो' कहनेवाले अकबर इलाहाबादी ने अख़बारों से मोहभंग होने के बाद उन पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि 'मियां को मरे हुए हफ्ते गुजर गए,कहते हैं अख़बार मगर अब हाले मरीज अच्छा है.'अकबर इलाहाबादी को मरे सौ साल पूरे होने को हैं मगर देश के अख़बारों की स्थिति अब भी वैसी ही है.अभी कल ही पटना उच्च न्यायालय ने बिहार की सर्वोच्च नियुक्ति करनेवाली संस्था बीपीएससी को ५३वीं  से 55वीं प्रारंभिक संयुक्त प्रतियोगिता परीक्षा के प्रश्न-पत्र से ८ गलत प्रश्नों को हटाकर फिर से असफल परीक्षार्थियों की कापियों का मूल्यांकन कर १४२ को पूर्णांक मानते हुए अतिरिक्त परिणाम प्रकाशित करने का आदेश दिया है.क्या प्रतिष्ठित बिहार लोक सेवा योग द्वारा १५० सही-सही प्रश्नोत्तर तैयार नहीं कर पाने में दोबारा अक्षम रहने को सुशासन का नाम दिया जा सकता है?अभी कल की ही बात है कि मैं महनार से हाजीपुर बस से आ रहा था.मेरे बगल में एक महनार थाना के स्टाफ बैठे हुए थे.उन्होंने भाड़ा मांगने पर खुद को थाना स्टाफ बताया और सामान्य यात्रियों से १ रूपया कम मिलने पर भी १ घंटे तक बहस और गाली-गलौज करने की भरपूर क्षमता से युक्त कंडक्टर बिना प्रतिवाद किए चला भी गया.जब मैंने उनसे उनकी मुफ्तखोरी का विरोध किया तो वे मुझ पर ही आग हो गए परन्तु खुद को प्रेसवाला बताते ही फिर पानी-पानी भी हो गए और बताया कि चूंकि बस वाले कागजात ठीकठाक नहीं रखते हैं इसलिए वे भी उन्हें भाड़ा नहीं देते.दानापुर निवासी श्रीमान का यह भी कहना था कि जब नेता और अफसर बड़े-बड़े घोटाले करते रहते हैं तब तो प्रेस चुपचाप रहता है और आप मेरे द्वारा २५ रूपये बचाने पर मेरे पीछे पड़े हुए हैं?गजब चीज है यह कथित सुशासन भी.चाहे बिना परमिट के बसें चलाओ या फिर एक ही नंबर पर कई-कई बसें चलाओ कोई भी पुलिस अधिकारी आपको रोकेगा-टोकेगा नहीं बस थाना-स्टाफ को अपने बसों में मुफ्त में चढ़ाते रहो.
              मित्रों,कई वर्ष हुए.२००६-०७ में मेरे चचेरे मामा जिन्हें मैं शुरू से ही भ्रष्टाचारियों के लिए आदर्श मानता हूँ राजेश्वर प्रसाद सिंह जो तब जन्दाहा प्रखंड के नाड़ी महथी या नाड़ी खुर्द में प्रधानाध्यापक थे एक सहायक शिक्षक से घूस लेते रंगे हाथों निगरानी द्वारा पकडे गए.करीब डेढ़ साल तक जेल में रहने के बाद वे बाहर आए और बाहर आते ही न जाने कैसे राजकीय मध्य विद्यालय,बासुदेवपुर चंदेल के प्रधानाध्यापक बना दिए गए और साथ ही कई-कई अन्य विद्यालयों के सुपरवाईजर भी.सुशासन की कृपा से एक बार फिर इस भ्रष्टाचारी की बीसों ऊंगलियाँ घी में हैं और सिर कराह में.फिर से श्रीमान दोनों हाथों से घूस खाकर सच्चा सुशासन स्थापित करने में मशगूल हो गए हैं.निगरानी द्वारा वर्ष २००६-०७ में उन पर दर्ज मुकदमें का क्या हश्र हुआ यह शायद सुशाशन बाबू को बेहतर पता होगा.निगरानी द्वारा छापा मारने और फिर बाद में ले-देकर मामले को कमजोर कर देने ताकि मुजरिम आसानी से कानून के शिकंजे से छूटकर फिर से तंत्र को खोखला कर सके;का यह न तो पहला उदाहरण है और न तो अंतिम ही.हुआ तो मुजफ्फरपुर/हाजीपुर में ऐसा भी है कि राज्य खाद्य निगम के एक पदाधिकारी को जब निगरानी द्वारा घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया तब निगरानी के पदाधिकारी ने उससे उसके आधा दर्जन से अधिक एटीएम कार्ड छीन लिए और डंडे के जोर पर पिन भी जान लिया.बाद में अभियुक्त ने शिकायत की कि उसके बैंक एकाउंट से उक्त पदाधिकारी ने लाखों रूपये निकाल लिए हैं.क्या मिलेगा आपको इस भूमंडल पर गुड गवर्नेंस का दूसरा ऐसा नायाब उदाहरण?
                  मित्रों,बिहार में सुशासन ने सबको लूटने का समान अवसर दिया है.पूरी तरह से इस मामले में यहाँ साम्यवाद स्थापित हो गया है.जो जनवितरण प्रणाली के दुकानदार लालू-राबड़ी राज में फटेहाली की अवस्था में पहुँच गए थे इन दिनों दिन अढ़ईया रात पसेरी की दर से मोटे होते जा रहे हैं.साल में छह महीने भी अगर बी.पी.एल. के लिए आनेवाले अनाज की कालाबाजारी कर दी तो हो गए बिना के.बी.सी. में भाग लिए करोड़पति.आटा चक्की वालों की भी पौ बारह है.इन्हें भी बाजार से काफी कम कीमत पर गेहूँ-चावल मिल जाता है और फिर ये लोग जो पहले गेहूँ के साथ सिर्फ घुन को पीसते थे अब जबरदस्त तरक्की करते हुए गेहूँ में मिलाकर चावल पीसने लगे हैं.फिर यह अतिपौष्टिक मिश्रण किराना दुकानदारों के हाथों बेच दिया जाता है जिसे खरीदनेवाला ग्राहक भी परेशान रहता है कि आटे की रोटी क्यों अच्छी नहीं बन रही है?ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों का तो कहना ही क्या?सुशासनी भ्रष्टाचार की कृपा से गांवों में इस दिनों रामराज्य उतर आया है-काजू भुने प्लेट में व्हिस्की है गिलास में,उतरा है सुशासन ग्राम-प्रधान के निवास में.
            मित्रों,सुशासनी अफसरशाही का तो नाम ही मत लीजिए.सुशासन और अफसरशाही का तो गठबंधन ही अनोखा है.'मेरे शासन में मेरा कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर,तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर?'इस समय पूरा बिहार अफसरों के हवाले है.कोई विधायक तो क्या मंत्री भी थाने तक में कदम रखने से हिचकिचाते हैं.पूरे बिहार में 'पहले पुलिस को बाखबर करना,फिर चाहे जुर्म रातभर करना' की तर्ज पर अपराध किए जा रहे हैं,घोटाले भी किए जा रहे हैं.कुछ लोग तो इस स्थिति से इतने अधिक निराश हो चुके हैं कि उनका मानना है कि अगर इसी तरह से चलता रहा तो २०५० आते-आते भगवान को प्रलय करना पड़ेगा.
                       मित्रों,चर्चा सुशासन की हो और शिक्षा की बात नहीं हो तो बात कुछ हजम ही नहीं होती.सुशासन छात्र-छात्रों के बीच लगातार साइकिल और पोशाक की राशि वितरित कर रहा है.चाहे पढ़ानेवाले मारसाहेब पढाई या लिखाई में जीरो-जीरो ही क्यों न हों या फिर सिर्फ खिचड़ी का अनाज बेचकर पैसे बनाने में ही मशरूफ क्यों न हों.छात्र-छात्राएं खुश हैं कि उन्हें सुशासन से मुफ्त में साइकिल और पोशाक के लिए पैसे प्राप्त हो रहे हैं.अभी से ही उन्हें मुफ्तखोरी की आदत लगाई जा रही है ताकि वे भी बड़े होकर बैठे-बैठे मनरेगा से पैसा उठाएं और सस्ता अनाज लक्षित जनवितरण प्रणाली की दुकान से खरीद कर पड़े-पड़े खाते रहें.परन्तु जब किसानों को मुफ्त में ही पैसा और अनाज मिल रहा है तो फिर खेती कोई क्यों करेगा और फिर कृषि-क्षेत्र में सुशासन बाबू की इन्द्रधनुषी क्रांति का क्या होगा?
                    मित्रों,अभी-अभी १८ दिसंबर को सचिवालय सहायक की परीक्षा कथित सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई है.परीक्षा के दौरान तीन किताबें साथ रखने की अनुमति थी.प्रश्न-पत्र मिला तो पता चला कि निगेटिव मार्किंग भी है.पृष्ठ उलटने पर पाया कि प्रश्न बहुत-ही कठिन प्रकृति के हैं.इतने कठिन कि पूरा बना पाना भी संभव नहीं था सो अधिकांश परीक्षार्थियों ने उत्तर-पत्रक पर कई प्रश्नों के उत्तर बिना रंगे ही छोड़ दिए.बस यहीं से बन गयी गड़बड़ी की गुंजाईश.अब अगर परीक्षा संचालित करनेवाले लोगों ने खाली खानों में जानबूझकर गलत उत्तर को रंग कर अंक कम करवा दिया तो परीक्षार्थी क्या कर लेगा?कुछ भी नहीं न!सूत्रों से पता यह भी चल रहा है कि इस परीक्षा के लिए सीटें बिक भी चुकी हैं और ज्यादातर पद मंत्रियों के परिवारवाले ले उड़ने वाले हैं.एक तो निगेटिव मार्किंग फिर उस पर सितम यह कि प्रश्न-पत्र भी वापस ले लिया जबकि बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षाओं की तरह ही इस परीक्षा में भी कई प्रश्नोत्तर गलत थे.अब तो परीक्षार्थी मुकदमा भी नहीं कर सकता.होना तो यह चाहिए कि यह परीक्षा फिर से ली जानी चाहिए.इस बार परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र परीक्षा के बाद घर ले जाने की इजाजत मिलनी चाहिए और निगेटिव मार्किंग भी नहीं की जानी चाहिए.ऐसा होने पर ही इस परीक्षा में गड़बड़ी की आशंकाओं को निर्मूलित किया जा सकेगा वर्ना यह परीक्षा और इसके द्वारा होनेवाली नियुक्तियाँ हमेशा संशय के घेरे में रहेंगी.
                मित्रों,अब थोड़ी बात कर लें बहुचर्चित सेवा का अधिकार कानून की जो हाथी का या यह भी कह सकते हैं कि सुशासन का दिखाने का दांत बनकर रह गया है.लोग रसीद हाथों में लिए महीनों से दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं और उन्हें बिना मेवा खिलाए सेवा प्राप्त ही नहीं हो रही.अगरचे अधिकतर प्रार्थियों को तो रसीद भी नहीं दी जाती.एक अदद आय प्रमाण-पत्र या आवासीय प्रमाण-पत्र के लिए लोग कहाँ-कहाँ अपील करते फिरें समझ में ही नहीं आता?कागजों पर तो सेवा का अधिकार मिल गया परन्तु हकीकत में क्या कभी मिल भी पाएगा;यह आज भी सबसे बड़ा प्रश्न बना हुआ है?सुशासन ने पहले ही सूचना के अधिकार में मनमाना संशोधन कर उसे मृतप्राय बना दिया है फिर जनता भ्रष्टाचार से पीड़ित होने या काम नहीं होने की दशा में करे भी तो क्या करे?कुछ ऐसा ही हाल अगर निकट-भविष्य में नवस्थापित लोकायुक्त का भी देखने को मिले तो किसी को भी उसकी परिणति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर सुबह को देखकर ही तो दिन के मौसम का अंदाजा लग जाता है.
               मित्रों,अंत में हम आते हैं नीतीश कुमार जी द्वारा समय-समय पर की जानेवाली यात्राओं पर.आज ही उनकी सेवा-यात्रा समाप्त हो रही है.कभी धन्यवाद्-यात्रा तो कभी कोई और यात्रा.कभी सम्राट हर्षवर्धन भी छठी शताब्दी में इसी तरह यात्राओं पर निकला करते थे और जनता के सुख-दुःख को समझा करते थे.परन्तु नीतीशजी तो अपनी यात्राओं के दौरान जनता और अधिकारियों को बोलने ही नहीं देते.धन्यवाद्-यात्रा के दौरान पिछली बार सुशासन बाबू ने धड़ल्ले से अनगिनत शिलान्यास कर डाले और फिर भूल भी गए.इस दौरान सारी जनता से मिलते भी नहीं और न ही सबका दुःख-दर्द ही सुनते हैं.उन्हें तो बस वही सुनाई देता है जो वे सुनना चाहते हैं,उन्हें तो सिर्फ वही दिखाई देता है जो वे देखना चाहते हैं और फिर प्रिंट मिडिया वही बोलता है जो वे उससे बोलवाना चाहते हैं.वरना सेवा-यात्रा के दौरान जदयू सांसद महाबली सिंह को नीतीश कुमार की मौजूदगी में जनता द्वारा सैंकड़ों की संख्या में मंच के सामने पंक्तिबद्ध होकर जूते दिखाए जाने और बाद में मुख्यमंत्री द्वारा स्वयं हस्तक्षेप करने पर शांत होने की खबर अख़बारों से गायब नहीं हो गयी होती.मैंने खुद कई बार कई तरह के मामलों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को ई-मेल किया है,खुले पत्र भी लिखे हैं और अपने पूर्व के लेखों की तरह ही अपने इस लेख को भी उन्हें ई-मेल करने जा रहा हूँ परन्तु मेरे पूर्व के सारे प्रयासों का परिणाम अब तक शून्य ही रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इस लेख को पढ़कर भी सुशासन बाबू के छोटे-छोटे कानों पर जूँ तक नहीं रेंगनेवाली है.कुल मिलाकर हमने अब तक की माथापच्ची से पाया कि सुशासन अंधा और बहरा होता है लेकिन गूंगा नहीं होता बल्कि बड़बोला होता है.हो सकता है कि मेरे किसी अन्य राज्य में रह रहे भाई-बन्धुओं द्वारा सुशासन की दी गयी परिभाषा मेरी परिभाषा से अलग हो लेकिन बिहार में तो फ़िलहाल सुशासन का मतलब यही है.

रविवार, 1 जनवरी 2012

नए साल की प्रातः बेला में

नए साल की प्रातः बेला में,
आओ मिलकर दिया जलाएँ;
ईश्वर से हम करें प्रार्थना,
उच्च आदर्शों के  पुष्प चढ़ाएँ.

सरक जाता है जिस तरह रेत
समझ ले मानव मुठ्ठी से,
निकल गया यह कालखंड भी
सरककर आज हमारी मुठ्ठी से;
दुर्गुणों पर विजय करें हम
देश का जग में मान बढाएँ;
नए साल की प्रातः बेला में,
आओ मिलकर दिया जलाएँ.

क्या खोया क्या पाया हमने,
देखी प्रभु  की माया हमने?
भटक रहे हम जिसकी खोज में
क्या उसे पाकर भी पाया हमने?
भटक गए हम स्वयं के अरण्य में
आओ खुद का पता लगाएँ;

नए साल की प्रातः बेला में,
आओ मिलकर दिया जलाएँ.

क्या सीखा हमने इस बीते वर्ष से?
क्या किया हमने इस बीते वर्ष में?
सोंचा है कभी शांतचित्त होकर
करना क्या है नए वर्ष में?
आओ मिलकर सोंचें-विचारें
नववर्ष की योजना बनाएँ;

नए साल की प्रातः बेला में,
आओ मिलकर दिया जलाएँ.

आया है समय नए अवसर लेकर
करें प्रयत्न हम नव निर्माण का;
बीते दिनों के ध्वंस भुलाकर
करें स्वागत हम नवविहान का;
जाना है हमें मंजिल तक
आओ मिलकर कदम बढाएँ;  

नए साल की प्रातः बेला में,
आओ मिलकर दिया जलाएँ;
ईश्वर से हम करें प्रार्थना,
उच्च आदर्शों के  पुष्प चढ़ाएँ.