बुधवार, 28 नवंबर 2012

कमांडो और कंडोम

मित्रों,मैं नहीं जानता कि आपने कभी कंडोम का सदुपयोग या दुरूपयोग किया है या नहीं लेकिन मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि आपको यह पता होगा कि एक कंडोम का दोबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता। एक बार उपयोग में लाने के बाद उसे फेंक देना पड़ता है। लेकिन इसके साथ ही मुझे इस बात का भी पक्का यकीन है कि आपने कभी सोंचा नहीं होगा कि 26-11 के आतंकवादियों की गोलियों को अपने जिस्म पर झेलकर देश का माथा गर्वोन्नत करनेवाले कमांडो की इन कंडोमों के साथ कोई समानता भी हो सकती है। परन्तु सच तो यही है कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन परमवीरों को कंडोमों से ज्यादा मूल्य नहीं देती। संकट के समय यूज किया और फिर छोड़ दिया अपने हाल पर जीने और मरने के लिए। एनएसजी में भर्ती होने या 26-11 को कार्रवाई के लिए जाते समय कमांडो सुरेंद्र सिंह या अन्य ने यह सोंचा भी नहीं होगा कि मुठभेड़ में अपंग होने के बाद उनके साथ उनकी केंद्र सरकार और सेना उनके साथ इस तरह का व्यवहार करेगी।
                 मित्रों,गत 23 नवंबर को एन.एस.जी. के घायल कमांडो सुरेन्द्र ने आरोप लगाया है कि उन्हें सरकार की ओर से आज तक मदद के नाम पर एक रुपया भी नहीं मिला। सरकार ने उनके इलाज के लिए भी कोई पैसा नहीं दिया। उसे 13 महीनों से कोई पेंशन भी नहीं मिली है। इस बीच सुरेन्द्र सिंह के आरोप का जवाब देते हुए सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने इस आरोप को झूठा बताते हुए कहा कि सरकार द्वारा सुरेंद्र सिंह को 31 लाख रुपए दिए जा चुके हैं और हर माह 25  हजार रुपए पैंशन के तौर पर दिए जा रहे हैं। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने साफ किया है कि कमांडो का मामला रक्षा मंत्रालय से जुड़ा है और वह इस मामले की जांच करेंगे। रक्षा मंत्रालय ने भी एनएसजी कमांडो की शिकायतों पर  गौर  करने  की बात कही है। मंत्रालय के सूत्रों ने कहा है कि कमांडो सुरेंद्र सिंह को इसी 16 नवम्बर को ही सूचित कर दिया था उनकी 31 लाख रुपए की पैंशन राशि उनके खाते में जमा हो रही है और 25 रुपए प्रतिमाह पैंशन भी स्वीकृत हो गई है। ऑपरेशन को अंजाम देते वक्त आतंकियों के ग्रेनेड से सुरेन्द्र बुरी तरह से घायल हो गए। धमाके की वजह से वह दोनों कानों से बहरे हो गए। साथ ही उनके कंधे और पांव में भी गहरी चोटें आईं। इसके बाद सुरेन्द्र को पता चला कि सेना के अफसरों ने अपने बहादुर सिपाहियों के हिस्से की आर्थिक मदद को डकार लिया है। सुरेन्द्र सिंह के मुताबिक ऑपरेशन मुंबई हमले में आतंकियों से मुकाबला करने वाले एनएसजी कमांडोज़ को 26 जनवरी, 2009 को वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया जाना था, लेकिन इसमें उनका और 8 ऐसे कमांडोज़ का नाम नहीं था, जो ऑपरेशन के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस बारे में जब इन 9 कमांडोज़ ने सीनियर ऑफिसर्स से पूछा कि अवॉर्ड लिस्ट में उनका नाम शामिल क्यों नहीं है, तो अधिकारियों ने बताया कि आपने आर-पार की लड़ाई में हिस्सा लिया है। इसलिए आपको बाद में बड़े अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा। उन्हें बताया गया कि 15 अगस्त, 2009 को राष्ट्रपति के हाथों उन्हें अवॉर्ड मिलेगा। ये कमांडो इंतजार करते रहे, 15 अगस्त को भी इन्हें अवॉर्ड नहीं मिला। दोबारा पूछने बताया गया कि अगले साल जनवरी में सम्मान दिया जाएगा, लेकिन उन्हें तब भी नहीं मिला। सुरेन्द्र का कहना है कि इसके बाद जब उनके एक साथी ने आरटीआई के माध्यम से अवॉर्ड्स के बारे में जानकारी ली, तो पता चला कि उन सभी 9 कमांडोज़ के नाम की सिफारिश ही नहीं की गई थी। साफ था कि सेना के ऑफिसर टाल-मटोल करके झूठे आश्वासन दे रहे थे। यही नहीं, इस दौरान यह भी पता चला कि जवानों के लिए आई आर्थिक मदद में भी हेराफेरी की गई है। कुछ रकम का हिसाब नहीं था, तो कुछ को 3-4 कमांडोज़ में ही आवंटित करके औपचारिकता निभा दी गई थी। सुरेन्द्र का आरोप है कि इन सब बातों का विरोध करने पर उन्हें मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर सेना में काम करने के लिए पूरी तरह से अयोग्य घोषित कर दिया गया। सुरेन्द्र का कहना है कि उन्हें जानबूझकर नौकरी के 15 साल पूरा करने से पहले ही रिटायर कर दिया गया। उन्हें तब सेवा मुक्त किया गया, जब उन्हें सर्विस में 14 साल, 3 महीने और 10 दिन हो चुके थे। रिटायरमेंट के बाद जब उन्होंने सेना के ग्रेनेडियर्स रेकॉर्ड्स में पेंशन के लिए अर्जी दी, तब तो उसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उन्होंने 15 साल की नौकरी पूरी नहीं की है। इस बात को 2 साल बीत गए हैं लेकिन अभी तक उन्हें पेंशन नहीं दी गई। वह अपनी जमा पूंजी से ही इलाज करा रहे हैं। अभी तक 1 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। सुरेन्द्र का आरोप है कि उन्होंने अपने हक के लिए आवाज उठाई, इसीलिए उसे 15 साल पूरा करने से पहले ही नौकरी से निकाल दिया गया। सुरेन्द्र ने कहा कि जेल में बिरयानी खाने वाला कसाब लोगों को याद है, लेकिन अपनी जान दांव पर लगाने वाले NSG कमांडो किसी को याद नहीं। उनके मुताबिक ऑफिसर्स की गड़बड़ी और रवैये से नाराज कुछ लोगों ने या तो नौकरी छोड़ दी, या फिर उन्हें मजबूर कर दिया गया।
                     मित्रों,उसी आपरेशन 'ब्लैक टार्नेडो' में शामिल रहे कमांडो सुनील जोधा को आतंकियों से आमने-सामने की लड़ाई के दौरान सात गोलियां लगीं थी। यहाँ तक कि अब भी उसके सीने में एक गोली मौजूद है। डॉक्टरों की टीम ने उन्हें छह महीने और अपनी निगरानी में रखे जाने की सिफारिश की थी। इसके बावजूद उन्हें एनएसजी से वापस मूल यूनिट में भेज दिया गया। इसी प्रकार कमांडो दिनेश साहू के पैर में कई गोलियां लगी थीं लेकिन सम्मान की बजाय उन्हें मीडिया में जाने पर गोली मार देने की धमकी दी गई। कमांडो सूबेदार फायरचंद को पैर में गोलियाँ लगीं। कोई सम्मान नहीं मिला तो हार कर वीआरएस ले लिया। कमांडो राजबीर गंभीर रूप से घायल हुए लेकिन जब उन्होंने पदक की बात की तो एनएसजी ने उन्हें भगोड़ा दिखा कर आठ-नौ महीने का वेतन रोक दिया और उनका सर्विस रिकार्ड भी खराब कर दिया गया। क्या देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देनेवालों के साथ दुनिया के किसी भी अन्य देश में ऐसा सलूक किया जाता है?
                               मित्रों,सवाल हजारों हैं और जवाब है कि है ही नहीं। अगर जवाब है भी तो इस सरकार के कहे पर यूँ तो विश्वास करना ही मुश्किल है फिर भी अगर यह विश्वास कर भी लिया जाए कि वह सच बोल रही है तो प्रश्न यह उठता है कि मुआवजा या अवकाश-प्राप्ति लाभ देने और पेंशन निर्धारित करने में इतनी देरी क्यों हुई? क्यों कुछ ही दिन या महीने के भीतर पैसा नहीं दे दिया गया? देश के लिए जान पर खेलने और अपंग हो गए इन जांबाजों को क्यों वीरता पुरस्कार नहीं दिए गए? क्या सरकार या सेना को इनकी वीरता पर संदेह था या है? क्या वीरता पुरस्कारों पर पहला हक इनका नहीं था या है? क्या इनकी वीरता सेना या सरकार द्वारा स्थापित वीरता की परिभाषा में नहीं आती? अगर इसी कारण से ऐसा हुआ है तो क्या सेना या सरकार बतायेगी कि उनके अनुसार वीरता की क्या परिभाषा होती है? क्या भ्रष्टाचार के कैंसर ने हमारी सेना को भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले लिया है? क्या वीरता पुरस्कारों में भी अधिकारी हिस्सा बाँटते हैं? कुछ भी संभव है वर्तमान परिवेश में,कुछ भी असंभव या अनहोनी नहीं। क्या सुरेंद्र सिंह को इसलिए एक भी पैसा देने में 4 साल नहीं लग गए क्योंकि उनके मामले को देखनेवाले सेना के अधिकारियों को उस राशि में से कुछ हिस्सेदारी चाहिए थी? सवाल तो यह भी है कि हर तरह से योग्य होने पर भी क्यों सेना में जवानों को बिना घूस दिए नौकरी नहीं मिलती? कम-से-कम बिहार में ऐसी ही हो रहा है। आज के बिहार में क्यों लगभग प्रत्येक गाँव में एक ऐसा दलाल मौजूद है जो पैसे लेकर सेना में नौकरी दिलवाता है? क्या इस कमांडो प्रकरण से यह स्पष्ट नहीं हो गया है कि वीरता पुरस्कार देने की प्रक्रिया पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं है? क्या सरकार को इसे निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के उपाय नहीं करने चाहिए? हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो समाज और राष्ट्र उसकी रक्षा के लिए जान पर खेलनेवाले वीर सपूतों का सम्मान नहीं करता उसको गुलाम होते देर नहीं लगती।

सोमवार, 26 नवंबर 2012

श्रीलंका में अविलंब प्रभावी हस्तक्षेप करे भारत सरकार

मित्रों,इतिहास गवाह है कि भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में बौद्ध धर्म सर्वप्रथम मौर्य सम्राट अशोक महान के शासन-काल में पहुँचा। अशोक ने अपने बेटे महेन्द्र और बेटी संघमित्रा को बोधिवृक्ष की टहनी देकर श्रीलंका भेजा था। जल्दी ही ऐसी स्थिति भी आई जब बौद्ध धर्म श्रीलंका का बहुसंख्यक धर्म बन गया और सनातन हिंदू धर्म अल्पसंख्यक। फिर भी दोनों के बीच कहीं कोई वैमनस्यता नहीं थी। यह जानकर आपको घोर आश्चर्य होगा कि श्रीलंका के बौद्धों की भाषा सिंहली मागधी अपभ्रंश से निकली हुई है और इसलिए भौगोलिक रूप से श्रीलंका के बिहार से काफी दूर होने के बावजूद बिहारी हिंदी से वह काफी मिलती-जुलती है।
                    मित्रों,भारत की ही तरह श्रीलंका में भी साम्प्रदायिकता का विकास आधुनिकता की देन है। जबतक देश गुलाम था श्रीलंका के हिंदू सांस्कृतिक रूप से आजाद थे लेकिन देश के आजाद होते ही श्रीलंकाई हिंदुओं के साथ व्यापक पैमाने पर भेदभाव शुरू हो गया। जिस श्रीलंका में वर्ष 1897 में शिकागो-वक्तृता के बाद स्वामी विवेकानंद का अभूतपूर्व स्वागत हुआ था और जिस श्रीलंका के तबके बौद्ध युवा स्वामी जी की गाड़ी में घोड़े की जगह जुत जाने को अपना सौभाग्य मान रहे थे उसी श्रीलंका में हिंदू धर्म के गर्भ से ही ढाई हजार साल पहले निकले धर्म के बहुसंख्यक अनुयायियों ने आजादी मिलने के साल में ही 1948 में हिंदुओं से उसकी नागरिकता छीन लेने का कुत्सित प्रयास किया। 1956 में बहुमत के बल पर सिंहली को श्रीलंका की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया और तमिल हिंदुओं ने जब इसका विरोध किया तो बौद्ध हिंसा पर उतारू हो गए। इस प्रकार श्रीलंका में पहली बार तमिल विरोधी दंगे 1956 में हुए और फिर तो इसका सिलसिला ही चल पड़ा। जब जी चाहा बौद्धों ने हिंदुओं का नरसंहार किया,बलात्कार किए और धन-धर्म सब लूट लिया। बाद के सालों में उनको जानबूझकर सरकारी नौकरियों में नहीं आने दिया गया। अंततः जब स्थिति असह्य हो गई तब मरता क्या न करता की नीति पर चलने को लाचार तमिल हिंदुओं ने एलटीटीई का गठन किया और ईट का जवाब पत्थर से देने लगे। इस कार्य में उनकी यथासंभव मदद की भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने। लेकिन जब उनका महामूर्ख बेटा प्रधानमंत्री बना तो उसने श्रीलंका सरकार की कूटनीति को समझने में भारी भूल कर दी और जबकि श्रीलंका की सरकार ने वादे के अनुसार तमिलों के कल्याणार्थ कोई भी कदम नहीं उठाया था तमिलों को निहत्था करने के लिए भारतीय शांति सेना भेज दी। अब श्रीलंका में बड़ी ही दुःखद स्थिति बन गई थी। हिंदू ही हिंदू के खिलाफ लड़ रहे थे और एक-दूसरे को मार रहे थे। श्रीलंका की सरकार ने फिर भी भारतीय सेना पर ही उल्टे अनगिनत आरोप लगाए और अंततः भारतीय सेना अपने एक हजार से ज्यादा जाबांजों को गंवाने के बाद अपने उद्देश्य को पूरा किए बगैर ही बेआबरू होकर वापस लौट आई।
                     मित्रों,1991 के मध्यावधि चुनाव में जब कांग्रेस के फिर से जीतने के पूरे आसार थे तभी अपने अस्तित्व और भविष्य को लेकर भयभीत तमिल टाईगर्स ने राजीव गांधी की हत्या कर दी और तभी से कांग्रेस श्रीलंकाई तमिलों के हितों के प्रति न केवल उदासीन हो गई बल्कि उसकी वर्तमान सरकार ने तो अस्त्र-शस्त्र और प्रशिक्षण द्वारा श्रीलंका सेना की भरपूर मदद भी की है और कर रही है। 17-18 मई,2009 को तमिल टाईगर्स की पराजय और गृह-युद्ध के समाप्त होने से पहले कई महीनों तक श्रीलंकाई सेना और बौद्ध नागरिकों ने तमिल हिंदुओं पर जुल्मों-सितम का ऐसा कहर ढाया जिसे देखकर कदाचित् उनके अराध्य करूणावतार भगवान बुद्ध की आत्मा भी काँप गई होगी। लगभग 40 हजार तमिलों की सामूहिक हत्या कर दी गई जिनमें बहुत-सी महिलायें और बच्चे भी शामिल थे। हजारों महिलाओं के साथ श्रीलंकाई सेना ने सामूहिक बलात्कार किया और फिर उनके हाल पर छोड़ दिया। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं किया और सितंबर 2008  में अपने कर्मचारियों को श्रीलंका से हटा लिया। मूंदहूँ आँख कतहूँ कछु नाहिं। यहाँ तक कि दक्षिणी प्रांत के प्रसिद्घ सैलानी शहर बेनटोटा में रहनेवाले तमिल समुदाय के लोगों को 2007 में ही पुलिस ने हिदायत दी थी कि वे अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वहां से बाहर चले जाएँ। आज जबकि गृह-युद्ध को समाप्त हुए साढ़े तीन साल बीत चुके हैं तब भी पुलिस किसी भी तमिल को घर-बाजार-खेत से उठा ले रही है और उन पर पूर्व तमिल टाईगर्स होने के आरोप लगा दे रही है। आज भी श्रीलंका के तमिल काफी डरे-सहमे हैं और कोई भी तमिल अपना मुँह तक खोलने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है सरकार का विरोध करने या कुछ मांग करने की तो बात ही दूर रही। आज भी वहाँ के आम सिंहली नागरिक सरकार की शह पर तमिल हिंदुओं का अपहरण,हत्या और बलात्कार कर रहे हैं। आज भी दर्जनों तमिल हिंदू रोज भारत में शरणार्थी बनकर आ रहे हैं। वर्तमान काल में श्रीलंका में हिंदुओं की जो स्थिति है उससे तो यही लगता है कि वहाँ की सरकार और बहुसंख्यक बौद्ध जनता यह चाहती ही नहीं है कि उसके देश में एक भी तमिल हिंदू रहे। उनको जब मानव माना ही नहीं जा रहा है तो फिर इस आलेख में उनके मानवाधिकारों की बात करना ही बेमानी होगी।
                              मित्रों,आज श्रीलंका में भले ही रावण नहीं हो लेकिन वहाँ के बौद्धों का हिन्दुओं के प्रति व्यवहार रावण से कुछ कम भी नहीं है। कभी राम ने श्रीलंका पर आक्रमण कर सीता का उद्धार किया था और श्रीलंका में धर्म का राज्य स्थापित किया था। आज के श्रीलंका में हिंदू जबरन खानाबदोश बना दिए गए हैं। खुलेआम उनका अपहरण हो रहा है,बलात्कार हो रहा है और बदले में भारत सरकार कोई प्रभावी कदम नहीं उठा रही है। आज भी वहाँ की सेना और पुलिस हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होने के जुर्म में घरों से उठा ले रही है और जबर्दस्ती यह स्वीकार करवाने की कोशिश करती है कि वह तमिल टाईगर्स का पूर्व सदस्य रह चुका है। क्या वे हिंदू मानव नहीं है और उनका कोई मानवाधिकार नहीं है? हमने देखा कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उनके मानवाधिकारों की रक्षा करने में कोई प्रभावी अभिरूचि नहीं दिखाई है। अब तक तो शायद मदर इंडिया सोनिया गांधी का बदला भी पूरा हो गया होगा क्योंकि एक राजीव गांधी के बदले पिछले 21 सालों में 1 लाख से भी ज्यादा तमिल मारे जा चुके हैं,हजारों तमिल महिलाओं की अस्मत लूटी जा चुकी है। क्या भारत सरकार ने श्रीलंका के हिंदुओं की रक्षा के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाने की कसम उठा रखी है? क्या वह भी श्रीलंका की कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार की तरह यह चाहती है कि श्रीलंका में सनातन धर्म का कोई नामलेवा ही नहीं रहे? क्या उस स्थिति में हम भारतीय हिंदू भी मूकदर्शक बने रहेंगे और शांतिपूर्वक कांग्रेस को ही वोट देते रहेंगे? क्या हमारे ऐसा करने से हमारा हिंदू धर्म मजबूत होगा या देश मजबूत होगा? माना कि हम हिंदुओं ने कभी तलवार के बल पर अपने धर्म का विस्तार करना नहीं चाहा लेकिन जब कोई दूसरा धर्म हमारे धर्म को तलवार के बल पर जड़-मूल से ही समाप्त कर देने की कोशिश करे तब भी तलवार तो क्या जुबानी आवाज तक नहीं उठाना क्या हमारी वीरता का परिचायक है या होगा?

शनिवार, 24 नवंबर 2012

मटुकनाथ प्रेम विद्यालय बनेगा देश का गौरव

मित्रों,यह हम युवाओं के लिए बड़े ही हर्ष और बिहार के लिए गर्व का विषय है कि हम कंवारे और शादीशुदा प्रेमियों की चिंता में दोहरे हुए जा रहे कामदेव के दूसरे अवतार (शास्त्रों के अनुसार पहला अवतार श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न थे) गुरुओं के गुरू प्रेमगुरू श्री मटुकनाथ चौधरी जी और उनकी प्रेमाधिकारिणी शिष्या सह सहधर्मिणी रत्यावतार श्रीमती जूली जी बिहार के भागलपुर जिले में स्थित अपने गांव में एक 'लव स्कूल' खोलने जा रहे हैं। कभी इसी भागलपुर में पूर्व मध्यकाल में विक्रमशिला विश्वविद्यालय हुआ करता था। इस स्कूल में वह युवाओं को सिखाएंगे कि प्यार कैसे किया जाए। भारत के अपनी तरह के इस अकेले स्कूल को खोलने के लिए मटुकनाथ ने प्रेमिका जूली के साथ अपने गांव में तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। प्रोफेसर मटुकनाथ चौधरी अपने से आधी उम्र की स्टूडेंट के साथ एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर रखने पर चर्चा में आए थे। पटना यूनिवर्सिटी में हिन्दी के प्रोफेसर मटुकनाथ चौधरी का कहना है कि प्यार इंसान को भगवान का दिया सबसे कीमती तोहफा है, ऐसे में हमें इसका सम्मान करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'प्यार हमें कंस्ट्रक्टिव बनाता है। प्यार का मतलब है बलिदान; इसमें स्वार्थ के लिए कोई जगह नहीं होती। प्यार के दो चेहरे होते हैं- पहला डिस्ट्रक्टिव होता है और दूसरा कंस्ट्रक्टिव। दुख की बात है कि आज के युवा प्यार के सही तरीके को नहीं पहचान पा रहे। हम उन्हें सिखाएंगे कि कैसे सर्वोच्च बलिदान करते हुए समाज के लिए उदाहरण पेश किया जाए।' आहा हा दिल द्रवित होने लगा कितने उच्च विचार हैं प्रोफेसर साहब के! ऐसे ही कुछ महान लोगों अथवा प्रेमियों के कारण यह धरती इस कलियुग में भी घूम रही है।
                  मित्रों,खबर पढ़ते ही मैंने एक संकल्प लिया कि मैं अब इस विद्यालय में नामांकन लूंगा और प्रेम के ढाई आखर पढ़ूंगा। पोथी पढ़-पढ़कर डिग्रियों का ढेर लगा दिया फिर भी दुनिया मुझे बेकार कहती है। बाज आया मैं ऐसी बेकार की पढ़ाई से जिसने मुझे बेकार बना दिया। अब तो मैं प्रेम के सिर्फ ढाई अक्षर ही पढ़ूंगा और दुनिया की नजरों में मटुक सर की तरह पंडित बनूंगा। लेकिन नामांकन से पहले मेरी परम आदरणीय और फादरणीय मटुकनाथ जी से कुछ मांगें हैं जिनको अगर वे पूरी कर देते हैं तो मैं अवश्य ही उनके लव स्कूल में नामांकन ले लूंगा-
1). स्कूल में शिक्षक पद के लिए शत-प्रतिशत महिला आरक्षण होना चाहिए। इस मांग के पीछे मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं है मैं तो बस तहे दिल से महिलाओं का भला चाहता हूँ।
2). थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल की कक्षाएँ लगाई जाएँ और परीक्षाओं में प्रैक्टिकल के अंक ज्यादा रखे जाएँ। असल में दुनिया में बढ़ती हिंसा के पीछे कारण प्रेम का किताबी ज्ञान नहीं होना नहीं है बल्कि वास्तव में वर्तमान काल की एकमात्र समस्या प्रेम का प्रायोगिक ज्ञान नहीं होना है।
3). व्यक्तिगत महिला ट्यूटरों की व्यवस्था हो। क्योंकि हम इस विषय में काफी कमजोर हैं और हमें नहीं लगता कि बिना ट्यूशन पढ़े हम स्कूल में समय-समय पर ली जानेवाली परीक्षाओं में कोई अंक भी ला पाएंगे।
4). हम मटुक सर से मांग करते हैं कि छात्रों को सहपाठी छात्राओं और लावण्यमयी शिक्षिकाओं के साथ ईश्क लड़ाने की पूरी आजादी दी जाए और साथ ही भारत सरकार से मांग करते हैं कि इस तरह का प्रावधान संविधान में भी किया जाए क्योंकि प्रेम करने के अधिकार के बिना मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। इस अधिकार पर कुछ शर्तें जरूर लगाई जा सकती हैं।
5). विवाहित छात्रों की सुरक्षा का विशेष प्रबंध होना चाहिए और उनको मार्शल आर्ट का गहन प्रशिक्षण भी दिया जाए जिससे कि वे अपनी पत्नी के बेलन से अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकें।
6). प्रेमियों को चेहरे से कालिख मिटाने और जूते-चप्पल खाने का अभ्यास भी कराया जाए।
7). विद्यालय में झाड़ियों,खंडहरों और बाग-बगीचों की अच्छी व्यवस्था भी होनी चाहिए। इससे छात्र-छात्राओं को प्रेम-स्वास्थ्य उत्तम बना रहेगा।
8). विद्यालय का नाम प्रेमवीर श्री मटुकनाथ जी के नाम पर ही रखा जाए।
                    मित्रों,अगर अमरप्रेमी और जीवित रहते हुए ही किवदंती बन चुके श्री मटुकनाथ चौधरी जी मेरी इन 8 बेतुकी मांगों को मान लेते हैं तो ऐसा कोई कारण नहीं बचता कि मैं उनके विद्यालय में नामांकन न लूँ। इसके साथ ही मैं यह कसम भी खाता हूँ कि मैं उनके इस महान प्रस्तावित विद्यालय का चिर विद्यार्थी बनूंगा अर्थात् मैं हमेशा पाठ्यक्रम के पहले वर्ष में ही पढ़ता रहूंगा। कौन कमबख्त जाएगा ऐसे महान विद्यालय की कक्षाओं,सीढ़ियों और बगीचों को छोड़कर? मैंने तो सशर्त मन बना लिया है आपने अब तक मन बनाया या नहीं? न भी बनाया हो तो कोई बात नहीं फिर भी मैं अकेले विद्यार्थी के रूप में भी घाटे में नहीं रहूंगा,कैसे? अपने अत्यल्प दिमाग में से थोड़ा-सा दिमाग लगाईए आप भी समझ जाएंगे।

सोमवार, 19 नवंबर 2012

एकता और अखंडता के लिए खतरा थे बाल ठाकरे

मित्रों, एक बड़ी पुरानी कहावत हमारे बीच आज भी बड़े ही चाव से कही और सुनी जाती है कि जंग और प्यार में सबकुछ जायज होता है लेकिन आज का बदले वक्त में तो कुछ भी नाजायज रह ही नहीं गया है और अगर आज कोई क्षेत्र इसका सबसे कम अपवाद है तो वो है राजनीति का क्षेत्र। यद्यपि कुछ लोग आज भी राजनीति के क्षेत्र में ऐसे हैं जिन्होंने अब तक भी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया है लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपवादों की संख्या बड़ी तेजी से घटती जा रही है। हमारे राजनीतिज्ञ येन-केन-प्रकारेण अपने प्रति जनसमर्थन बढ़ाना चाहते हैं चाहे इससे देश को दीर्घकालिक संदर्भ में नुकसान ही क्यों न हो। हालाँकि देश की एकता और अखंडता को कमजोर करनेवाले कदम जानते-बूझते हुए वे लोग भी रोज ही उठा रहे हैं जो इसकी रक्षा करने और इसको अक्षुण्ण रखने की शपथ लेकर ही मंत्री और सांसद-विधायक बनते हैं फिर बाला साहब ने तो कभी कोई सरकारी पद ग्रहण ही नहीं किया। फिर भी उनकी राजनीति और रणनीति सिर्फ इस एक कारण से सही नहीं हो जाती। निश्चित रूप से बाल ठाकरे की सोंच संकुचित थी और विचारधारा संदूषित। बाल ठाकरे ने अपने प्रति समर्पित लोगों की एक विशाल सेना बनाई और वे यारों के भी यार थे परन्तु उनका प्रेम व्यापक संदर्भ में सिर्फ और सिर्फ मराठी मानुषों के लिए था।
                मित्रों, इस प्रकार बाल ठाकरे की राजनीतिक विचारधारा कुछ और नहीं थी बल्कि क्षेत्रीयता और गुंडागर्दी का खतरनाक और विस्फोटक सम्मिश्रण थी। अपने द्वारा खींची गई इसी रेखा को वे 2007 में तब भी पार नहीं कर पाए थे जब राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव हो रहा था। तब बाल ठाकरे ने योग्य और ईमानदार भैरों सिंह शेखावत को छोड़कर भ्रष्ट और अयोग्य प्रतिभा पाटिल का सिर्फ इसलिए समर्थन किया था क्योंकि वह मराठी थीं। बाल ठाकरे ने मराठी और गैरमराठी को मुद्दा बनाकर और उसके बल पर अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करके देश का ऐसे कर्महीन राजनीतिज्ञों को जो जाति और धर्म के नाम पर पहले से ही जनता को बाँटकर सत्तासुख भोग रहे थे अपनी राजनीति चमकाने का एक और ऐसा मानवताविरोधी हथियार दे दिया जो सिर्फ विध्वंस ही कर सकता था। उनकी गंदी राजनीति का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि महाराष्ट्र की मूल समस्याओं से वहाँ की जनता का ध्यान ही हट गया।
                     मित्रों,महाराष्ट्र का विकास तो हुआ है और खूब हुआ है लेकिन यह विकास भ्रष्ट्राचार के साथ हुआ विकास है और इसके साथ ही इस विकास ने सिर्फ विकास के चंद द्वीपों का निर्माण किया है। गरीब जहाँ था वहीं है और अमीरों की आय शिखर को छूने लगी है। विकास का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिल सका है। बाल ठाकरे ने बड़ी चतुराई से मराठी जनता को यह समझाया कि तुम्हारी सारी समस्याओं और गरीबी का एकमात्र कारण महाराष्ट्र में मजदूरी करने के लिए आनेवाले गैरमराठी हैं जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। सच्चाई तो हमेशा यह रही है कि मराठियों की समस्त समस्याओं का कारण उनके भ्रष्ट राजनेता थे और हैं। भारत के दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति है। वर्तमान सरकार में हुए आदर्श या सिंचाई या किसी अन्य घोटाले को ही लें, क्या इनको भैय्या लोगों ने अंजाम दिया है? जिस तरह मराठी दूसरे राज्यों में कारोबार और नौकरी करते हैं वैसे ही दूसरे राज्यों के लोग भी कमाने-खाने के लिए महाराष्ट्र आते हैं। वे मराठी नेताओं की तरह महाराष्ट्र को लूटते नहीं हैं बल्कि श्रम करते हैं,निर्माणात्मक कार्य करते हैं तो बदले में मजदूरी मांगते हैं और पाते हैं। मैं महाराष्ट्र के राजनेताओँ से पूछना चाहता हूँ और जानना चाहता हूँ कि आज से 30-40 साल पहले उनकी सम्पत्ति कितने की थी और कैसे यह इतनी जल्दी इतनी ज्यादा हो गई?  क्या बाल ठाकरे ने कभी प्रदेश के प्रशासनिक ढाँचे में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ कभी आवाज उठाई? अगर नहीं तो क्यों? क्यों उनकी शरद पवार से इतनी पटती थी?
               मित्रों,शोषण की सबसे खतरनाक अवस्था वह होती है जब शोषित को यह पता ही न चले कि उसका शोषण भी हो रहा है बल्कि उसको उल्टे शोषण में ही अपनी भलाई नजर आने लगे और मराठा मानुष के मन में कुछ ऐसे ही मानसिक इन्द्रजाल का निर्माण किया बाल ठाकरे ने वह भी तब जबकि वे खुद मूलतः बिहारी थे। कुछ लोग ठाकरे को साम्प्रदायिक और मुस्लिम विरोधी भी मानते हैं जबकि ऐसा था नहीं। वे मुसलमानों से नफरत तो करते थे परन्तु सिर्फ ऐसे मुसलमानों से जो भारत और भारत की संस्कृति से न तो प्यार ही करते हैं और न तो इसका आदर ही करते हैं। उन्होंने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने का कई बार विरोध किया था और इसमें कुछ भी गलत नहीं था। आतंकवाद और क्रिकेट एकसाथ कैसे चल सकते हैं? बालासाहब ने एक बार नहीं अपितु कई बार कहा है कि उनको सलीम खान और ईरफान पठान जैसे भारतीय मुसलमानों पर गर्व है और वे दाऊद इब्राहिम जैसे मुसलमानों से नफरत करते हैं। फिर वे साम्प्रदायिक कैसे हो गए? क्या दंगों के दौरान अपनी और अपने संप्रदायवालों की रक्षा करने को साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाना चाहिए या फिर अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण का विरोध करने को साम्प्रदायिकता कहा जाना चाहिए? मैं नहीं समझता कि सिर्फ बाबरी मस्जिद नामक विवादित और परित्यक्त ढाँचे को गिराने का समर्थन करने मात्र से कोई साम्प्रदायिक हो गया। यहाँ बिहार में ही पिछले वर्षों में न जाने कितने ऐसे मंदिरों को तोड़ा गया है जो सड़कों के चौड़ीकरण में य़ा फ्लाईओवर बनाने में बाधा बन रहे थे तो क्या हमारी राज्य सरकार साम्प्रदायिक हो गई? हमें प्रत्येक स्थिति में यह याद रखना चाहिए कि मानव ने धर्म को बनाया है न कि धर्म ने मानब को। इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि न तो अल्पसंख्यकवाद ही देश के हित है और न तो बहुसंख्यकवाद ही। दोनों ही समानरूप से देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं। हालाँकि यह साबित नहीं होता है कि बाल ठाकरे साम्प्रदायिक थे फिर भी हमने अपने व्यापक विश्लेषण में पाया है कि बाल ठाकरे भारत की एकता और अखंडता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा थे क्योंकि वे क्षेत्रियता की राजनीति करते थे। हालाँकि अब यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा कि उनके बाद भी क्या शिवसेना मराठा मानुष की राजनीति ही करती है जिसकी पूरी संभावना भी है या अपनी विचारधारा को परिवर्तित करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के अन्य कई नेताओं की ही तरह बाल ठाकरे भी जोड़ने की नहीं तोड़ने और बाँटने की राजनीति करते थे। इसके साथ ही बाल ठाकरे गुंडागर्दी और हिंसा को भी सर्वथा त्याज्य नहीं मानते थे। उनका संगठन शिवसेना वास्तव में गुंडों का गिरोह है न कि छत्रपति शिवाजी की महान विचारधारा से ओतप्रोत आदर्शवादी युवाओं से निर्मित महान संगठन जैसा कि इसके नाम से प्रतिबिंबित होता है। वर्ष 1997 में मैं खुद नागपुर में बैंकिंग की परीक्षा के दौरान अन्य गैरमराठियों के साथ शिवसैनिकों के हाथों अपमानित हो चुका हूँ।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

कैग को पंचिंग बैग न समझें केंद्रीय मंत्री

मित्रों,इन दिनों भ्रष्टाचार के महान क्षेत्र में सारे पूर्व कीर्तिमानों को भंग कर चुकी कांग्रेस पार्टी माईक टाईसन हुई जा रही है और उसके लिए मुक्केबाजी के अभ्यास के लिए आसान पंचिंग बैग बन गई है वह संस्था जिसको संविधान ने खजाने का पहरेदार बनाया है। मौका मिला नहीं कि चला दिया एक घूसा। यह बात अलग है कि उनके घूसे अक्सर निशाने पर नहीं होते और तब वे टाईसन की तरह काट खाने की कोशिश करने लगते हैं। इन दिनों यह चलन बन गया है कि गलती सरकार करती है और ठीकरा फोड़ देती है बेचारे सीएजी पर। मंत्रियों के रवैय्ये से तो यही लगता है कि जैसे वित्तीय अनियमितताओं को उजागर कर सीएजी ने ही कोई गंभीर घोटाला या अपराध किया है। इन दिनों 2जी नीलामी में नाकामी को लेकर कैग पर आरोपों की बरसात पहले तो मनीष तिवारी ने की और अब बरस रहे हैं कुतर्क चूड़ामणि कपिल सिब्बल। आज 2-जी नीलामी के मुद्दे पर मंत्री समूह की बैठक हुई है जिसमें 2-जी नीलामी के मुद्दे पर सरकारी फैसले का बचाव किया गया और कहा गया कि सरकार लोगों का फायदा चाहती थी अगर ऐसा था तो यह सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए था कि 10 जनवरी,2008 को राजा के दोस्तों को कैसे फायदा हो गया? संचार मंत्री सिब्बल ने इशारों- इशारों में 2जी नीलामी में सरकार के फ्लॉप शो का सारा ठीकरा कैग के मत्थे मढ़ दिया। केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल फरमाते हैं कि पूरे मामले को सनसनीखेज बनाया गया लेकिन इस नकारात्मक प्रचार का क्या फायदा हुआ? शायद इस चोरी और सीनाजोरी पर ही किसी शायर ने कहा है कि वो रोज फटाखे फोड़ते हैं तो कोई बात नहीं,हमने एक दीप जलाया तो बुरा मान गए। सिब्बल कहते हैं कि सरकार का काम नीतियां बनाना है न कि कैग का। क्या सिब्बल साहब बताएंगे कि नीतियाँ बनाना अगर सरकार का काम है तो उन पर ईमानदार और पारदर्शी तरीके से अमल करना किसका काम है? क्या ए. राजा द्वारा रिश्वत लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम की बंदरबाँट करना भी सरकारी नीति के अंतर्गत आता है?
                            मित्रों,सिब्बल ने कहा कि सरकार को स्पेक्ट्रम नीलामी तथा मौजूदा दूरसंचार कंपनियों पर एकमुश्त शुल्क से 17,343 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे। उन्होंने कहा कि मैं इस बात से क्षुब्ध हूं कि उपभोक्ताओं को लाभ नहीं हुआ। पता नहीं सिब्बल साहब इस बात से क्षुब्ध हैं या फिर वे इस बात से क्षुब्ध हैं कि सर्वोच्च न्यायालय और सीएजी की कारस्तानी के चलते वे राजा की तरह अपने अपनों को उपकृत नहीं कर पाए। उनको देश की जनता की चिंता है या बाजार की? अगर उनको सही मायने में जनता की चिंता होती तो वे कल यह बयान नहीं देते कि बाजार को कैसे काम करना है यह बाजार को ही निर्धारित करने देना चाहिए। अगर ऐसा ही है तो फिर सरकार संविधान में संशोधन कर क्यों नहीं प्रस्तावना में समाजवादी गणराज्य के स्थान पर पूंजीवादी भ्रष्टराज्य लिखवा देती है? जब बाजार को ही अर्थव्यवस्था का नियंता बनना है तो क्या जरुरत है संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी गणराज्य शब्द को बनाए रखना? क्या सिब्बल का ऐसा कहना देश की जनता और संविधान के साथ धोखा नहीं है? इसके साथ ही सरकार को अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी को भी समाप्त कर देना चाहिए। क्यों नहीं बाजार ही अनाज के दाम और मजदूरी की न्यूनतम दरों का निर्धारण करे? इसके साथ ही रेलवे और सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को भी तत्काल बंद कर देना चाहिए और पूरे देश को, देश की हर एक सेवा को बाजार को परमेश्वर मानते हुए उसी के हवाले कर देना चाहिए फिर चाहे जनता जिए या मरे।
    मित्रों, सिब्बल ने कैग पर हमला बोलते हुए कहा कि 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का जो आंकड़ा दिया गया वह सिर्फ सनसनी फैलाने के लिए था। कैग न हुआ टीवी चैनल हो गया। इस बैठक में केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल, केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदबंरम और केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी मौजूद थे। वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि 2जी घोटाले में 1.76 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा भ्रामक है। चिदंबरम साहब को यह समझना चाहिए कि सीएजी ने जो रिपोर्ट दी थी वह देश की 10 जनवरी,2008 (जिस दिन 2-जी स्पेक्ट्रम की बंदरबाँट की गई थी) की आर्थिक स्थिति को देखते हुए दी थी न कि आज 12-14 नवंबर,2012 की आर्थिक स्थिति को देखकर। तब आर्थिक क्षेत्र में बहारों का मौसम चल रहा था और आज पतझड़ है। तब तेजी थी आज मंदी है और औद्योगिक सूचकांक तो शून्य से भी नीचे ऋणात्मक भी हो चुका है। तब ग्रोथ का ग्राफ 80-90 डिग्री पर था आज 10-20 डिग्री पर भी नहीं है। फिर कहाँ से आएंगे 2008 की तरह खरीददार?  2-जी क्या आज 3-जी स्पेक्ट्रमों की भी फिर से नीलामी की जाए तो भी उतने पैसे नहीं मिलेंगे जितने कि 2010 में मिले थे (106,219 करोड़ रु.)।                         
                                                                मित्रों,2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी जिस तरह उम्मीद से बहुत कम कीमत पड़ हुई है उससे स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस और केंद्रीय सत्ता को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग को नए सिरे से गलत ठहराने का स्वर्णिम अवसर मिल गया है, लेकिन इस निराशाजनक नीलामी के लिए कैग को ही पूरी तौर पर उत्तरदायी ठहराना सही नहीं होगा। कैग ने पूर्व में 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये की राजस्व हानि का जो अनुमान लगाया था उसमें कुछ खामी हो सकती है, लेकिन केवल इसी आधार पर कैग के निष्कर्षो को खारिज कर देना अथवा उन्हें आत्मनिरीक्षण की नसीहत देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं हो सकता। राजस्व हानि के आकलन के संदर्भ में तो कैग को आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर इस संस्था के निष्कर्षो पर तो वस्तुत: केंद्र सरकार को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। कैग ने न केवल 2जी स्पेक्ट्रम, बल्कि कोयला खदानों के आवंटन में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के तथ्यों से पर्दा हटाने का काम किया है। यदि ऐसा नहीं होता तो न तो उच्चतम न्यायालय को 2जी स्पेक्ट्रम के सभी लाइसेंस रद करने पड़ते और न ही तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा और उनके अजीज दोस्तों को जेल जाना पड़ता। वास्तव में कैग दूर तक छाए घनघोर अंधेरे में रोशनी का दिया बना हुआ है और सरकार है कि इसे भी बुझा देना चाहती है।
               मित्रों,जहां तक 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में अपेक्षा से कम राजस्व हासिल होने का सवाल है तो केंद्र सरकार के नीति-निर्धारकों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उन्होंने बाजार की परिस्थितियों का आकलन वास्तव में उचित तरीके से किया था? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि दूरसंचार कंपनियों की ओर से पहले से ही यह कहा जा रहा था कि 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए सरकार की ओर से जो आधार मूल्य तय किया गया है वह बहुत अधिक है। वैसे भी जबकि 3-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी हो चुकी है और 4-जी की चर्चा हो रही है तब 2जी स्पेक्ट्रम के लिए इतना अधिक आधार मूल्य रखने का कोई मतलब ही नहीं था। यदि आधार मूल्य वर्तमान बाजार की परिस्थितियों के हिसाब से रखा गया होता तो संभवत: नीलामी के नतीजे अच्छे भी हो सकते थे। जब पहले से ही इस तरह की आशंका व्यक्त की जा रही थी कि आर्थिक मोर्चे पर व्याप्त निराशा के माहौल के कारण स्पेक्ट्रम बाजार के मौजूदा हालात नीलामी पर भारी पड़ सकते हैं और दूरसंचार कंपनियां इस प्रक्रिया से अपने हाथ पीछे खींच सकती हैं तब फिर इसका कोई अर्थ नहीं है कि नीलामी में कम राजस्व हासिल होने का सारा दोष कैग के मत्थे डाल दिया जाए। 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में जिस तरह केंद्र सरकार बाजार की स्थितियों का आकलन करने में सक्षम साबित नहीं हुई और अब उसकी ओर से यह कहा जा रहा है कि नीलामी की प्रक्रिया नए सिरे से शुरू की जा सकती है उससे तो यही लगता है कि वह अभी भी देश के मौजूदा आर्थिक परिदृश्य से परिचित नहीं है। बेहतर होता कि केंद्र सरकार 2जी स्पेक्ट्रम की निराशाजनक नीलामी के लिए सारा दोष कैग के मत्थे मढ़ने के बजाय इस पर विचार करती कि उससे कहाँ-कहाँ गलती हुई और भविष्य में किस प्रकार इस तरह की गलती से बचा जा सकता है? ऐसा आत्मचिंतन इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि नीलामी की विफलता इस बात का संकेत है कि जिस दूरसंचार क्षेत्र को अब तक भारत की तीव्र आर्थिक प्रगति का आधार माना जा रहा था उसमें भी अब निराशा का वातावरण बनने लगा है।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

आंग सान को बुलाना नेहरू का अपमान है

मित्रों,इस समय पड़ोसी बर्मा की कथित लोकतंत्रवादी नेता आंग सान सू की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की यात्रा पर आई हुई हैं। वे यहाँ व्याख्यान देंगी और लोकतंत्र संबंधी अपने विचारों से भारत को लाभान्वित करेंगी। उन्हें जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल लेक्चर देने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से औपचारिक न्यौता दिया गया था। निश्चित तौर पर सू की प्रसिद्धि महान लोकतंत्रवादी नेता के रूप में रही है। लोकतंत्र के लिए आंग सान के संघर्ष का पिछले २० वर्ष में कैद में बिताए गए १४ साल इसके गवाह हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि नवीन घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में क्या आंग सान को लोकतंत्र का सच्चा सिपाही,सच्चा पुजारी या सच्चा पैरोकार कहा जा सकता है? जिस तरह से उन्होंने सुनियोजित तरीके से उनके देश में रोहिंग्या मुसलमानों के बौद्ध बहुसंख्यकों द्वारा किए जा रहे नरसंहार के प्रति तटस्थ-भाव प्रदर्शित किया है वह किसी भी तरह महान लोकतंत्रवादी के रूप में उनके यश के अनुरूप है? यह तो वही बात हुई कि हम बर्मा में लोकतंत्र तो चाहते हैं लेकिन ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जिसमें सिर्फ बहुसंख्यक बौद्धों के लिए स्थान हो और अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों को उस लोकतंत्र में दोयम दर्जे का नागरिक बनकर भी जीने का अधिकार नहीं हो। क्या इस तरह के दूषित और नाजीवादी लोकतंत्र के लिए किया है आंग सान ने 20 सालों तक संघर्ष?
                                                           मित्रों,लोकतंत्र का मूल मंत्र होता है असहमत होने की और अपना विश्वास मानने की समानतापूर्ण आजादी। अगर आप अल्पसंख्यकों को अपने ही देश में संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दुनिया का सबसे अभागा शरणार्थी बनाकर रखना चाहती हैं तो फिर आपको कोई हक नहीं है खुद को लोकतंत्रवादी कहने का। माना कि आप उनकी दुःखद स्थिति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन क्या उनको इस स्थिति में पूरी तरह से मौन या तटस्थ हो जाना चाहिए? क्या उनके इस मौन में अत्याचार के प्रति सहमति छुपी हुई नहीं है? जब कोई सबल समुदाय किसी निरीह और निर्बल समूह के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करता है,यहाँ तक कि उनकी सामूहिक हत्या तक करता है तब कैसे एक संवेदनशील मानव तटस्थता का भाव धारण कर सकता है? फिर आंग सान तो कथित रूप से अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए सक्रिय हैं। वे जिन महानुभाव की स्मृति में व्याख्यान देने के लिए भारत पधारी हैं अगर उनके सामने उनके जीते-जी ठीक इसी तरह की समस्या खड़ी हो गई होती तो क्या वे तटस्थ रह पाते। अगर नहीं तो फिर क्यों आंग सान को पं. नेहरू की स्मृति में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया और क्यों उनकी इस यात्रा को क्यों आधिकारिक दर्जा दिया गया? क्यों भारत सरकार ने कांग्रेस पार्टी की नासमझ अध्यक्ष के शौक को या बालहठ को पूरा करने के लिए भारत के नागरिकों की गाढ़ी कमाई को महंगाई के वक्त में बर्बाद होने दिया? मैं नहीं समझता कि ऐसे पाखंडी लोकतंत्रवादी को पं. नेहरू की स्मृति में आयोजित समारोह में व्याख्यान देने के लिए बुलाने से पं. नेहरू या भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा में रंचमात्र की भी अभिवृद्धि होनेवाली है बल्कि इसे बेकार की कवायद ही कहा जाना चाहिए। हाँ,यह जरूर संभव है कि आंग सान को बुलाने और सम्मानित करने से मेजबान और आमंत्रणकर्ता सोनिया गांधी का सम्मान देश और विदेशों में बढ़ जाए और लोग उनको भ्रष्टतंत्रवादी के स्थान पर महान और सच्चा लोकतंत्रवादी समझने लगें। मगर क्या ऐसा सचमुच होने जा रहा है?

शनिवार, 10 नवंबर 2012

क्यों मिलना चाहिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा?

मित्रों,कभी पिछड़ेपन का पर्याय रहा बिहार आज देश के विकास का ईंजन बना चाहता है। उसकी विकास दर इस समय देश के अन्य सारे राज्यों से ज्यादा है 16%  वार्षिक से भी अधिक। लेकिन देश के इस सबसे युवा प्रदेश को इतने भर से कतई संतोष नहीं है। वह और तेज गति से विकास करना चाहता है लेकिन इसके लिए उसको चाहिए करों में छूट जो बिना विशेष राज्य का दर्जा मिले संभव नहीं है। प्रश्न उठता है कि क्यों मिलना चाहिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा?  बिहार में ऐसा क्या है? बिहार को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि इस समय बिहार विकास का भूखा है और उसने अपने ही सीमित संसाधनों से वह करके दिखाया है जिसकी वर्ष 2005 तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। याद करिए कि जब बिहार का बँटवारा हुआ था तब बिहार को पूरी तरह से कंगाल करके रख देनेवाले तत्कालीन बिहार के शीर्ष नेता लालू प्रसाद यादव ने क्या कहा था?  उन्होंने कहा था कि अब बिहार में सिवाय लालू,आलू और बालू के कुछ नहीं बचा है। आज वही लालू,आलू और बालू वाला बिहार देश में सबसे तेज गति विकास कर रहा है,गुजरात से भी तेज और चीन से भी तेज। आप अगर रेडियो सुनते होंगे और दूरदर्शन देखते होंगे तो यकीनन आपको पता होगा कि इन दिनों केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के लिए विशेष छात्रवृत्ति योजना चला रखी है। इसका जाहिराना तौर पर क्या उद्देश्य है? यही न कि जो अल्पसंख्यक बच्चा पढ़ाई में तेज है लेकिन आर्थिक दृष्टि से कमजोर है उसको आर्थिक मदद दी जाए जिससे उसकी पढ़ाई न रूके और जिससे वह भी अन्य बच्चों की तरह अपना सर्वांगीण विकास कर सके। हालाँकि यह नीति बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ भेदभाव कर रही है ठीक उसी तरह जैसे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देकर बिहार के साथ द्विनीति बरती जा रही है। क्या हिन्दू गरीब नहीं हैं,क्या हजारों हिन्दू बच्चों की पढ़ाई धनाभाव के कारण नहीं रूक जा रही है? जो बच्चे विश्वविद्यालय में प्रथम आ सकते थे क्या वे होटलों में प्लेट धोने को बाध्य नहीं हैं? फिर मुसलमानों के लिए विशेष योजना क्यों और हिन्दुओं के लिए वही योजना क्यों नहीं? (यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों और ईसाई अल्पसंख्यकों की आर्थिक दशा तो हिन्दुओं से भी काफी अच्छी है इसलिए वे इन योजनाओं का शायद ही लाभ लेने जाएँ।) ठीक इसी तरह क्या सिर्फ पहाड़ी राज्य ही पिछड़े हुए हैं? क्या सिर्फ उनको ही विकास का अधिकार है? विशेष राज्य का दर्जा पाए कितने पहाड़ी राज्यों ने विकास में सर्वोच्च स्थान लाकर दिखाया है? फिर वास्तविक जरूरतमंद राज्य बिहार को स्कॉलरशिप देकर प्रोत्साहित क्यों नहीं किया जाना चाहिए जिससे वह आर्थिक मंदी की महादशा में देश के विकास का ईंजन बन सके और देश 1991 के ऐतिहासिक मोड़ पर फिर से पहुँच जाने से बच जाए?
                                    मित्रों,हो सकता है और हो सकता है क्या हो भी रहा है कि नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य के दर्जें के मुद्दे पर गंदी राजनीति कर रहे हैं। जो मुद्दा साढ़े 10 करोड़ लोगों का है उसे उन्होंने सिर्फ अपना और अपनी पार्टी का मुद्दा बनाने का महापाप किया है। यहाँ तक कि उन्होंने बिहार के गौरवपूर्ण विकास की महागाथा लिखने में सहयोगी रहे दल भाजपा को भी इस मुद्दे से अलग-थलग किया हुआ है। क्या इस तरह की कुत्सित राजनीति करने से मिलेगा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा? कदापि नहीं। वह तो तभी मिलेगा जब एक साथ पक्ष-विपक्ष के सारे बिहारी उठ खड़े होंगे और एक साथ दिल्ली में डेरा डाल देंगे,संसद को जाम कर देंगे।
                       मित्रों,क्या आपने कभी दो मिनट के लिए सोंचा है कि अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिल जाए को क्या-क्या हो सकता है? तब देश-विदेश के सारे उद्योगपतियों का गन्तव्य बिहार हो जाएगा। जब सिर्फ आलू और बालू (लालू अब अतीत बन चुके हैं) के बल पर बिहार ने 15-16% का विकास दर प्राप्त करके दिखाया है तो अगर उसे विशेष राज्य का दर्जा मिल जाए तो संभव है कि वह 50 या 100% की विकास दर भी प्राप्त कर ले और पूरी दुनिया के लिए संपूर्ण विनाश के बाद विकास का एक अद्वितीय उदाहरण बन जाए। इस मामले में केंद्र सरकार का हठ बेवजह है। क्या बिहार की जीडीपी के और तेज बढ़ने से भारत की जीडीपी भी तेज गति से नहीं बढ़ेगी? क्या बिहार भारत से बाहर है? भारत की जीडीपी को फिर से दहाईं अंकों में लाने का रास्ता आँखों के सामने है फिर भी केंद्र सरकार वैश्विक मंदी,राजस्व और राजकोषीय घाटे का रोना रो रही है और जनता पर बोझ-पर-बोझ डाले जा रही है। बल्कि उसको तो बिहार को एक अवसर की तरह लेना चाहिए और लपक लेना चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो विकास और अर्थव्यवस्था संबंधी उसकी सारी चिंताएँ व्यर्थ हैं,ढोंग और स्वांग हैं। वह नहीं चाहती कि भारत मंदी की अंधेरी सुरंग बाहर आए और पूरी दुनिया का आर्थिक महाशक्ति बनकर नेतृत्व करे। बल्कि यह तो वही बात हो गई कि बुढ़ा रही दुल्हन के दरवाजे पर बाँका जवान बारात लिए खड़ा हो और दुल्हन कहती हो कि अभी तो मुझे नींद आ रही है। अगर ऐसा है तो सोने दीजिए भारतीय अर्थव्यवस्था को और गोंता लगाने दीजिए जीडीपी की विकास दर को। मैं कहता हूँ कि सिर्फ एक बार आप बिहार को मौका तो दीजिए और फिर भूल जाईए जीडीपी की चिंता को और पीछे वर्णित दुल्हन की तरह पैरों में शुद्ध सरसों का ईंजन छाप तेल लगाकर सो जाईए। केंद्र की नकारा सरकार को यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि बिहार ऐसे ही विशेष राज्य का दर्जा नहीं मांग रहा है अपितु उसने प्रकाश झा की फिल्म अपहरण के अजय देवगन की तरह पहले हुनर दिखाया है,खुद को विशेष सिद्ध किया है तब जाकर विशेष राज्य का दर्जा मांग रहा है। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो इसका यह भी मतलब होगा कि उसको गोबर के उपले में घी सुखाने में मजा आता है अर्थात् आप भोंदू विद्यार्थी को तो भरपूर छात्रवृत्ति दे रहे हैं और जो यूनिवर्सिटी टॉपर है उसको गालियाँ देकर हतोत्साहित कर रहे हैं।                         

बुधवार, 7 नवंबर 2012

मेरे देश का एक-एक कतरा मेरे खून के काम आएगा

मित्रों,पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बराबर एक कालोत्तीर्ण उक्ति कहा करते थे कि अगर गंगा को साफ करना है तो पहले हमें गंगोत्री को साफ करना होगा। वाजपेई खुद भी कुछ समय के लिए भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पहुँचे लेकिन वे भी गंगोत्री को साफ नहीं कर सके और उनके हटने के बाद तो गंगोत्री पूरी तरह से गंदी ही हो गई। यहाँ गंगोत्री से मेरा आशय केंद्र सरकार से है और वाजपेई जी का भी यही मतलब था। वर्तमान काल में केंद्र की सत्ता संभाल रही कांग्रेस पार्टी इस कदर लुटेरी (सिर्फ भ्रष्ट कहना अब पर्याप्त नहीं रह गया है) और बेशर्म हो चुकी है कि पूरी दुनिया आश्चर्यचकित है कि क्या यह सचमुच वही कांग्रेस पार्टी है जिसका नेतृत्व कभी महात्मा गांधी के हाथों में था और जिसको कभी इंदिरा कांग्रेस के नाम से जाना जाता था। इंदिरा गांधी तानाशाह थीं पर भ्रष्ट नहीं थीं और अगर उनके समय में भ्रष्टाचार था भी परदे के पीछे था। इसके साथ ही इंदिरा जी देशभक्त भी थीं। जब प्रश्न देश की प्रतिष्ठा का होता था तब इंदिरा दुर्गा बन जाती थीं (जैसा कि इंदिरा के धुर विरोधी माननीय अटल जी ने उनके लिए कहा था)। इंदिरा का 30 अक्तूबर,1984 को दिया गया उनका अंतिम संबोधन तो आपको याद होगा ही जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरे खून का एक-एक कतरा मेरे देश के काम आएगा। परन्तु यह देखना हमारे लिए काफी दुःखद है कि आज उनकी बहू सोनिया ने हालाँकि अपने मुँह से तो ऐसा नहीं कहा है लेकिन उनकी करनी को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे कि मानों वे कह रही हों कि मेरे देश का एक-एक कतरा मेरे खून के काम आएगा। आज इंदिरा कांग्रेस बिल्कुल भी इंदिरा कांग्रेस नहीं रह गई है और पूरी तरह से सोनिया कांग्रेस बन गई है। इस सोनिया कांग्रेस का देशभक्त होना तो जैसे कल्पना ही लगता है। यह सोनिया कांग्रेस पूरी तरह से भ्रष्ट और देशविरोधी है। इसके सारे कदम देश को कमजोर करनेवाले होते हैं,देशविरोधी होते हैं। लगभग रोज-रोज ही केंद्र सरकार में एक नया घोटाला सामने आ रहा है। फिर भी सोनिया कांग्रेस भ्रष्टाचार को रोकने की दिशा में कोई कदम उठाने की कोशिश तक नहीं कर रही है बल्कि उल्टे भ्रष्टाचारियों को प्रोन्नत्ति देकर सम्मानित किया जा रहा है।
मित्रों,दुर्भाग्यवश इस समय कभी वाजपेई की रही मुख्य विपक्षी दल भाजपा का दामन भी भ्रष्टाचार के छींटों से दागदार है और इस बात का भरपूर फायदा उठा रही है सोनिया कांग्रेस। वह यह तो मानती है कि वह भ्रष्ट है लेकिन साथ में यह कहना भी नहीं भूलती कि उसको भ्रष्ट कहने वाला विपक्ष भी भ्रष्ट है। वर्तमान में उसकी काफी शक्ति सिर्फ विपक्ष को भ्रष्ट साबित करने में खर्च हो रही है। उसे लगता है कि भ्रष्ट होते हुए भी चुनाव को जीता जा सकता है बस विपक्ष को भी किसी तरह से भ्रष्ट सिद्ध कर दो। उसे यह मुगालता भी हो गया है कि उसके ऐसा करने से देश का शहरी और ग्रामीण मध्यमवर्ग जो उसके शासनकाल में सबसे ज्यादा घाटे में रहा है असमंजस और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता का शिकार हो जाएगा और फिर से उसी को वोट दे देगा। ऊपर से वह प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम के माध्यम से जमकर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण करने में लगी हुई है और फिर भी खुद को मात्र धर्मनिरपेक्ष ही नहीं महाधर्मनिरपेक्ष मानती है। इसके साथ ही उसका उत्तरी राज्यों की जनता पर बिल्कुल भी यकीन नहीं रह गया है और उसकी चुनावी रणनीति का पूरा नहीं तो ज्यादातर दारोमदार दक्षिणी राज्यों पर टिका हुआ है। तभी तो उसने केंद्रीय कैबिनेट को आंध्र प्रदेश कैबिनेट बना कर रख दिया है और चुनावी दृष्टिकोण से अतिमहत्त्वपूर्ण बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों को एक बार फिर से अंगूठा दिखा दिया है। फिलहाल सोनिया कांग्रेस की रणनीति 2014 के लोकसभा चुनावों में हिट होती है या फ्लॉप यह तो आनेवाले साल ही बतायेंगे मगर उसकी दूषित राजनीति और रणनीति से देश और देशवासियों का और भी नैतिक स्खलन होगा इसमें संदेह की कहीं कोई गुंजाईश नहीं है क्योंकि जनता और नीचे के लोग आमतौर पर वही करते हैं जो ऊपर के लोग करते हैं। सोनिया कांग्रेस न जाने क्यों जबसे सत्ता में आई है सामाजिक,राजनैतिक और न्यायिक सुधार की बात बिल्कुल भी नहीं कर रही है और उसका सारा जोर सिर्फ आर्थिक सुधार पर है मानो सिर्फ देश को देशी-विदेशी निजी हाथों में बेच देने से ही देश महाशक्ति बन जाएगा। बाँकी के सुधार भी कम जरूरी नहीं है बल्कि अपेक्षाकृत ज्यादा आवश्यक हैं लेकिन यह उसकी प्राथमिक सूची में तो दूर उसकी सूची में ही नहीं है जिससे देश में निश्चित रूप से निकट-भविष्य में अराजकता में वृद्धि होगी। आज के भारत को खतरा बाहरी शक्तियों से नहीं है बल्कि आंतरिक शक्तियों से है,दिनों-दिन बढ़ती अराजकता से है। मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि अमीर लेकिन आध्यात्मिक रूप से पतित राष्ट्र से बेहतर होता है भौतिक दृष्टि से गरीब परन्तु नैतिक रूप से उन्नत राष्ट्र। इसके साथ ही उसके कृत्यों से भारत की अंतर्राष्ट्रीय संभावनाओं को भी पलीता लगेगा क्योंकि सोनिया कांग्रेस आगे भी निश्चित रूप से ऐसे ही कदम उठाने जा रही है जिससे देश कमजोर होगा,उसकी एकता और अखंडता कमजोर होगी भले ही कांग्रेस को इससे छोटा-मोटा तात्कालिक लाभ प्राप्त हो जाए।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

टूटने लगा है नीतीश कुमार का तिलस्म

मित्रों,बिहार में नीतीश कुमार की सरकार जब 2005 में पहली बार सत्ता में आई तो उसके समक्ष जैसे समस्याओं का पहाड़ खड़ा था। दुर्भाग्यवश उसको ऐसी सरकार का उत्तराधिकारी बनना पड़ा था जिसने बिहार को हर तरह से बर्बाद करके रख दिया था। नीतीश सरकार ने सबसे पहले आशानुरूप कानून-व्यवस्था को दुरूस्त किया। मुख्यमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल में फिरौती के लिए अपहरण और रंगदारी का धंधा लगभग बंद ही हो गया। शांति का माहौल बना तो बिहार का विकास भी होने लगा और इतनी तेजी से हुआ कि देश के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए विकास का नीतीश मॉडल चर्चा और शोध का विषय बन गया। स्वयं भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार पिछले कई सालों से बिहार में जीडीपी की वृद्धि-दर पूरे भारत में सबसे तेज रही है।
        मित्रों,नीतीश कुमार जब पिछले विधानसभा चुनावों में वोट मांगे जनता के दरवाजे पर पहुँचे तो उन्होंने वोट नहीं मांगा बल्कि सेवा के बदले मजदूरी मांगी और बिहार की गद्गद् जनता उनको क्या खूब मजदूरी दी! तीन चौथाई से भी ज्यादा (लगभग 84%) बहुमत से जिताकर फिर से बिहार सजाने-संवारने की जिम्मेदारी उनको सौंप दी। परन्तु इस बार जब नीतीश मुख्यमंत्री बने तो जैसे उनका कायांतरण हो चुका था। अब उनके मन में सेवकभाव का अभाव था और स्वामीभाव जन्म ले चुका था। उन्होंने लगातार विध्वंसात्मक व उटपटांग निर्णय लिए। योग्यता की जगह अब चापलूसी उनको ज्यादा रास आने लगी थी। शनैः-शनैः अच्छे और योग्य अधिकारी किनारे लगा दिए गए। चापलूसों की मौज हो गई जिसका असर जल्दी ही शासन-प्रशासन पर पड़ने और दिखने लगा। कानून-व्यवस्था पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने लगी और आपराधिक तत्त्व फिर से सिर उठाने लगे। तृणमूल स्तर पर पुलिस का रवैय्या भी बदलने लगा। अब वह फिर से जनपीड़क की सनातन भूमिका में खुलकर आने लगी। अपहरण का बाजार फिर से गर्म होने लगा। बलात्कारियों ने कुछ इस प्रकार से आतंक मचाया कि लड़कियाँ अपने घर में भी सुरक्षित नहीं रह गईं। बिना रंगदारी दिए अब कोई न तो बिहार की सड़कों पर टेम्पो-बस ही चला सकता है और न तो सड़क य़ा पुल ही बनवा सकता है। जनता को भुलावा देने के लिए बिहार में सेवा का अधिकार कानून लागू कर दिया गया परन्तु बिना समुचित तैयारी के। परिणाम यह हुआ कि इसके कारण जनता को सुविधा मिलने के स्थान पर पहले से भी ज्यादा कष्ट होने लगा। क्या मजाल कि अब बिना घूस दिए जनता को किसी सरकारी योजना का लाभ मिल जाए या उसका काम हो जाए। मुद्रा-स्फीति के नित-नई ऊँचाइयाँ छूने के साथ ही रिश्वत की दरें भी बढ़ती रहीं। निगरानी ने कुछ लोगों को घूस लेते पकड़ा भी,कुछ टायर्ड-रिटायर्ड अफसरों की सम्पत्ति भी जब्त की परंतु उसके सारे कदम ऊँट के मुँह में जीरा के समान स्थितियों को सुधारने में नाकाफी और सांकेतिक साबित हुए। बाद में घूस लेते पकड़े गए लोगों को जब जनता ने फिर से पुराने पदों पर आसीन होते हुए देखा तो उसे यह बात समझते देर नहीं लगी कि घूस लेते हुए पकड़े गए लोग घूस देकर छूट जा रहे हैं। आज बिहार की जनता इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी है कि नीतीश-राज में निगरानी के अफसर ही सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं और सबसे ज्यादा आय से ज्यादा सम्पत्ति जोड़ रहे हैं। सबसे पहले तो इनकी सम्पत्ति की ही जाँच होनी चाहिए सिर्फ सम्पत्ति की स्वैच्छिक घोषणा करवा लेने से काम नहीं चलनेवाला। बीच में घूस लेते पकड़े गए कुछ लोगों को नौकरियों से बर्खास्त भी किया गया लेकिन अब न जाने क्यों ऐसा नहीं किया जा रहा है। भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति जब्ती का काम भी काफी कम पैमाने पर किया गया जबकि इसे अभियान की शक्ल में हर गांव और शहर में चलाया जाना चाहिए था। सूचना के अधिकार के नाम पर भी इन दिनों खूब दिखावा किया गया है और सिर्फ जुर्माने की घोषणा ही की जा रही है दोषियों से जुर्माने की राशि वसूली ही नहीं जा रही है फिर क्यों कोई अधिकारी-कर्मचारी जनता को सूचना दे? एक बार फिर से राशन-किरासन ग्रामीण गरीबों तक नहीं पहुँचने लगा हे और आपूर्ति अधिकारी रिश्वत खाकर खुद ही कालाबजारी को बढ़ावा दे रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा की गाड़ी तो उनके पहले कार्यकाल में ही उनकी अयथार्थवादी नीतियों के कारण पटरी से उतर गई थी इस बार उच्च शिक्षा का भी उन्होंने बंटाधार कर दिया है और कर रहे हैं।
                       मित्रों,जनता नाराज और बेहाल थी कि नीतीश कुमार ने उसे भरमाने की ठान ली और रचा अधिकार-यात्रा का इंद्रजाल। मगर इस बार उनका तिलिस्म और उनका जादू बिल्कुल भी नहीं चल पाया। जनता हर जगह उनको हूट करने लगी और चेताने लगी कि विशेष राज्य का रोना रोना बंद करो और काम पर लग जाओ नहीं तो हम तुमको वहीं पहुँचा देंगे जहाँ कभी हमने लालू को पहुँचाया था। नीतीश ने भी देर से ही सही जनता की नाराजगी को महसूस किया और अधिकार-यात्रा को बीच में ही स्थगित कर दिया। मगर फिर भी अभी तक ऐसा लग नहीं रहा है कि वे जनता की वास्तविक समस्याओं को दूर करने के लिए व्यग्र हुए जा रहे हैं। हो सकता है कि उनको कोई मार्ग ही नहीं सूझ रहा हो। लेकिन ऐसा कैसे संभव है जबकि उन्होंने अपनी पहली पारी में कुल मिलाकर अच्छा काम किया था और जनता भी कुल मिलाकर उनसे खुश भी थी। जिस कानून-व्यवस्था को सुधारने को लेकर नीतीश सरकार को अब तक सबसे ज्यादा वाहवाही मिल रही थी आज उसी की बदहाली उनके लिए बदनामी का सबब बन रही है। नीतीश सरकार के लिए यह घोर शर्म की बात है कि मुजफ्फरपुर के मुख्य बाजार स्थित जवाहरलाल रोड से जिस लड़की नवरुणा का खिड़की तोड़कर घर में से 18 सितंबर को अपहरण कर लिया गया था उसका पुलिस डेढ़ महीने बाद भी पता नहीं लगा पाई है। न जाने वह अबला कहाँ और किस हाल में होगी? आतताइयों ने न जाने कितनी बार उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया होगा? इसी तरह वैशाली जिले के बिदूपुर थाने के मजलिसपुर गाँव से 4 सितंबर से ही गायब सविता देवी के 12 साला इकलौते बेटे मुन्ना कुमार का भी स्वयं मुख्यमंत्री के द्वारा हाजीपुर में सार्वजनिक तौर पर निर्देश देने के बावजूद पुलिस पता नहीं लगा पाई है। सविता देवी का रो-रोकर बुरा हाल है। इतना ही नहीं पुलिस द्वारा बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड को भी नहीं सुलझा पाना भी सरकार की अक्षमता को ही दर्शाता है और दुर्भाग्यवश इस तरह के उदाहरणों की संख्या सैंकड़ों में है। जदयू के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला द्वारा मुजफ्फरपुर केंद्रीय कारागार से ही पटना साहिब इंजीनियरिंग कॉलेज, भगवानपुर (वैशाली) के एमडी से दो करोड रूपये रंगदारी मांगने की घटना ने तो नीतीश सरकार पर से जनता के विश्वास की जैसे नींव ही हिला दी है। प्रश्न यह भी है कि जब जेल में मोबाईल फोन की सुविधा कैदी को उसके रसूख को देखकर या रिश्वत खाकर इस निजाम में भी दी जा रही है तो फिर यह शासन लालू-राबड़ी के शासन से अलग कैसे है या फिर इसे क्यों अलग मानना चाहिए? सच्चाई तो यह है कि जिस तरह पिछले महीनों में बिहार में कानून-व्यवस्था के मामले में अराजकता उत्पन्न हो रही है उससे तो अब बिहार की दस करोड़ जनता को फिर से लालू-राबड़ी का सर्वविनाशकारी शासन याद आने लगा है और यह डर भी सताने लगा है कि कहीं बिहार में फिर से जंगल-राज की वापसी तो नहीं होने जा रही। खगड़िया,नवादा,बेगूसराय और मधुबनी में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उसके पीछे भी निश्चित रूप से विपक्षी पार्टियों की राजनीति से कहीं ज्यादा जनता का सरकार और उसकी नीतियों के प्रति बढ़ते अविश्वास का हाथ था। जनता ने राज्य के विभिन्न स्थानों पर विरोध दर्ज कराके नीतीश जी को बता दिया है,जता दिया है कि अब सिर्फ घोषणाओं से वह खुश नहीं होनेवाली है। घोषणाएँ करने और योजनाएँ बनाने का समय काफी पहले बीत चुका है अब एक्शन की घड़ी है और उसको धरातल पर काम चाहिए। तंत्र से भ्रष्टाचार कम होना चाहिए और उनका जीवन आसान और अधिक सुविधाजनक होना चाहिए। जंगल-राज उसे न तो पहले मंजूर थे और न तो आगे ही मंजूर होगा। नीतीश जी बिहार की दुःखी आम जनता की चीत्कारों को सुन रहे हैं या उन्होंने बिहाररूपी अनसुलझी पहेली को हल करने से हार मानकर फिर से विपक्ष में बैठने का मन बना लिया है यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा?