सोमवार, 28 जनवरी 2013

हमारी न्यायिक-प्रणाली दुर्योधनवाली है या युधिष्ठिरवाली

मित्रों,अभी दिल्ली दुष्कर्म पर उबल रहा जनाक्रोश ठंडा भी नहीं पड़ा था कि इसी 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश के गोंडा में विचित्र और अतिशर्मनाक घटना घट गई। ऐसी शर्मनाक घटना जिसने पूरे भारतीय न्यायपालिका को ही शर्मिन्दा कर दिया। उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक जज पर अपने चैंबर में 13 साल की नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ का आरोप लगा है। लड़की के परिजनों द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत में कहा गया है कि सोमवार को जज ने अपने चैंबर में लड़की के नाबालिग होने की जांच करने के बहाने उसके कपड़े उतरवाए और उसके साथ शारीरिक छेड़छाड़ की। लड़की का आरोप है कि जज ने उससे शॉल हटाकर कपड़े उतारने को कहा, जिससे वह उसकी उम्र का पता लगा सके। लड़की ने अपने बयान में कहा है कि इसके बाद जज ने उसका सीना छुआ और सलवार उतारने को कहा। इस पर लड़की रोने लगी और कहा कि यह सब मुझसे नही होगा। 21-वर्षीय एक अन्य युवती ने भी उक्त जज पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया है, लेकिन अभी यह साफ नहीं है कि उसने पुलिस में इसकी शिकायत क्यों नहीं की। उसका कहना है कि जज ने कपड़े न उतारने पर गलत बयान लिखने की धमकी भी दी। दोनों लड़कियों ने गोंडा में पत्रकारों को आपबीती सुनाई। पुलिस ने 24 जनवरी की देर शाम तक जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की थी। पुलिस के मुताबिक, इसके लिए इलाहाबाद कोर्ट से अनुमति की जरूरत है। यह जज इन दोनों महिलाओं के अपहरण के मामले की सुनवाई कर रहा था।

                                             मित्रों,अब प्रश्न यह उठता है कि जब कानून के देवता ही इस प्रकार दानव बन जाएंगे तो कैसे मिलेगा लोगों को न्याय? प्रश्न तो यह भी उठता है कि अब इस जज को क्या सजा दी जाए? देश का अंधा कानून तो कहेगा कि पहले साबित करो कि उसने छेड़खानी की है।जो होगा ही नहीं क्योंकि इस घटना का कोई चश्मदीद गवाह तो है ही नहीं। मेडिकल जाँच में भी कुछ नहीं आएगा और फिर बात आई-गई हो जाएगी। जज साहब भविष्य में और भी निर्भीक होकर बंद कमरे में अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के बालिग या नाबालिग होने की डॉक्टरी जाँच करेंगे,बयान बिगाड़ देने की धमकी देकर उनसे कपड़े उतरवाएंगे और स्पर्श-सुख का आनन्द लेंगे।

                        मित्रों,दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत में एक ऐसी ही कथा आती है जो अक्षरशः ऐसी तो नहीं है लेकिन इस मामले पर हमारा मार्गदर्शन जरूर कर सकती है। हुआ यह कि जब कौरव और पांडव गुरूकुल से वापस आए तो उसी समय हत्या का एक मामला राजदरबार में पेश हुआ। ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र चारों जातियों से संबद्ध एक-एक अपराधी दरबार में लाए गए। चारों ने हत्या की थी। पहले महाराजकुमार दुर्योधन से न्याय करने को कहा गया। दुर्योधन ने चारों को एकसमान सजा सुना दी। फिर मामले को धर्मराज युधिष्ठिर के सामने लाया गया। धर्मराज ने शूद्र को सिर्फ कुछ कोड़े लगाकर छोड़ देने को कहा। वैश्य को कोड़े के साथ-साथ सम्पत्ति जब्ती का भी दंड दिया। क्षत्रिय को आजीवन कारावास की सजा दी और ब्राह्मण को मृत्युदंड देने का आदेश दिया। तब राजा धृतराष्ट्र ने उससे पूछा कि अपराध तो चारों ने एकसमान किए हैं फिर चारों की सजा अलग-अलग क्यों? धर्मराज ने उत्तर में कहा कि महाराज इन चारों ने कतई एकसमान अपराध नहीं किया है। यह शूद्र समाज द्वारा विद्या से वंचित है इसलिए भले-बुरे की पहचान नहीं कर सकता इसलिए इसका अपराध काफी कम और क्षम्य है। वैश्य अल्पशिक्षित है अतः इसका अपराध शूद्र से ज्यादा गंभीर है। क्षत्रिय शिक्षित तो है ही इस पर समाज में व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है अतः इसका अपराध अक्षम्य है। ब्राह्मण समाज के लिए नीतियाँ बनाता है,कानून बनाता है और अगर वह खुद आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त हो जाएगा तो फिर उन नीतियों और कानुनों पर कौन अमल करेगा और इस तरह राज्य और समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी, इसलिए इसका अपराध जघन्य है। महाराज,ऊपरी तौर पर इन चारों के अपराध समान दिखते जरूर हैं पर समान हैं नहीं और इसलिए मैंने इन चारों को सजा भी अलग-अलग दी है।

                        मित्रों,कहना न होगा कि हमारे वर्तमान भारत की न्याय-प्रणाली भी दुर्योधनी है। यह दुर्योधन जैसा कि मैं अचूक भविष्यवाणी चुका हूँ इन जज साहब को बाईज्जत बरी कर देगा परंतु इस स्थिति में युधिष्ठिर क्या करते? वे कदाचित् इसे मृत्युदंड से कमतर सजा देते ही नहीं क्योंकि इसने न सिर्फ एक नाबालिग लड़की की मजबूरी का बेजा लाभ उठाया है बल्कि इसके कुकृत्य के चलते लोगों का कानून में विश्वास भी कम हुआ है,उसे गंभीर क्षति पहुँची है। परन्तु क्या भारत में हमें कभी युधिष्ठिर-सदृश न्यायपालिका देखने को मिलेगी? हमें कब तक दुर्योधनी न्यायिक-प्रणाली का बोझ उठाना पड़ेगा? मैं मानता हूँ कि न्याय को त्वरित तो होना ही चाहिए गतिशील भी होना चाहिए। फैसले सब धन बाईस पसेरी की तर्ज पर नहीं बल्कि प्रत्येक मामले के गुण-दोष के आधार पर आने चाहिए। इसके साथ ही फैसले सदियों पुरानी धूल से सनी जर्जर विदेशी पुस्तकों के आधार पर भी नहीं किए जाने चाहिए। मैं पूछता हूँ अपने देशवासियों से कि दिल्ली बलात्कार मामले में सबसे बड़ी भूमिका निभानेवाले अपराधी को सबसे सस्ते में छोड़ देना कैसा न्याय है,कहाँ का न्याय है? क्या पाँच-सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म और दुष्कर्म के बाद हत्या के मामले में सजा पूरी कर चुके सुनील सुरेश उर्फ पप्पू साल्वे को उसके पहले अपराध की गंभीरता को देखते हुए तभी फाँसी नहीं दे दी जानी चाहिए थी?  तब क्या हम एक और मासूम को उसका शिकार होने और मृत्यु को प्राप्त होने से नहीं बचा सकते थे जिसके साथ उसने जेल से छूटने के कुछ ही दिनों बाद दुष्कर्म किया और फिर मौत के घाट उतार दिया? मैं पूर्व न्यायाधीश श्री जगदीश शरण वर्मा जी से जानना चाहता हूँ कि दिल्ली दुष्कर्म कांड में अगर दामिनी के स्थान पर उनकी बेटी या पोती होती तब भी क्या उनकी रिपोर्ट वही होती जो अब है? लेकिन इसमें वर्माजी का क्या दोष? वे बेचारे भी तो इसी दुर्योधनी न्यायपालिका की उपज हैं जो न्याय करना जानती ही नहीं है,नाबालिग लड़कियों के कपड़े उतरवाना जरूर जानती है। नहीं तो वर्माजी यह कैसे भूल जाते कि जहाँ हत्या शरीर का हनन करती है बलात्कार सीधे आत्मा की हत्या करता है,हनन करता है। जहाँ हत्या ईन्सान को लाश में बदल देती है बलात्कार पीड़िता को जिंदा लाश में बदल देता है। इसलिए बलात्कारी को तो हत्यारे से भी ज्यादा सख्त सजा मिलनी चाहिए,दुनिया की सबसे सख्त संभव सजा मिलनी चाहिए। वर्माजी फरमाते हैं कि इस समय पूरी दुनिया में मृत्युदंड के खिलाफ माहौल बन रहा है। क्या वर्माजी को पूरी दुनिया के लिए सिफारिश करनी थी या फिर सिर्फ भारत के लिए? अर्जुन की तरह सिर्फ पक्षी की आँख देखने के बदले वर्माजी तो पेड़ और डालियों को भी देखने लगे। मैं वर्माजी से पूछना चाहता हूँ कि क्या भारत में भी इस समय मृत्युदंड के खिलाफ माहौल बना हुआ है? अगर नहीं तो फिर कैसे उन्होंने जनभावना की उपेक्षा कर दी? कोई भी कानून जनता के लिए होता है या जनता कानून के लिए होती है? क्या भारत के लोकतंत्र को भी,लोकतंत्र के प्रत्येक आधार-स्तम्भों को भी जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए नहीं होना चाहिए?

                                           मित्रों,मैं अपने पहले के आलेखों में भी अर्ज कर चुका हूँ कि सरकार ने वर्मा कमीशन का गठन जनता को सिर्फ मूर्ख बनाने के लिए और समय खराब करने के लिए किया था। उसे अगर सचमुच सख्त कानून बनाना होता तो वो अविलंब संसद का विशेष सत्र बुलाती जो उसने नहीं किया। आलेख के अंत में मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपको कौन-सी न्याय-प्रणाली चाहिए? नराधम दुर्योधनवाली जो अभी अपने यहाँ प्रचलन में है या धर्मावतार युधिष्ठिरवाली जो महाभारत-युद्ध के बाद कुछ ही समय के लिए सही भारतवर्ष में प्रचलन में थी।

सोमवार, 21 जनवरी 2013

मूर्खिस्तान की काग-रेस पार्टी की जय

नोट-यह आलेख पूरी तरह से कल्पना पर आधारित नहीं है। कृपया इस आलेख को पढ़ते समय बुद्धि और दिमाग का प्रयोग न करें क्योंकि इसे लिखते समय मैंने भी इनका प्रयोग नहीं किया है।
मित्रों,हमारे देश मूर्खिस्तान की ओर से आपका सादर अभिनन्दन। पक्षीराज उल्लू जी को शत-शत नमन। दोस्तों,हमारे देश मूर्खिस्तान में भी इन दिनों आपके हिन्दुस्तान की तरह ही मिलते-जुलते नामवाली काग-रेस पार्टी का शासन है। हमारे देश में भी लोकतंत्र है मगर कुछ अल्हदा। हमारे यहाँ वोट उम्मीदवारों की बुद्धिमानी को देखकर नहीं दिया जाता बल्कि हमारे संविधान में ही काफी बुलंद अक्षरों में लिखा हुआ है कि लोकतंत्र मूर्खों का,मूर्खों द्वारा और मूर्खों के लिए शासन है इसलिए हम जब भी वोट डालते हैं तो यह देखकर कि हमारे उम्मीदवारों में से सबसे विकट मूर्ख कौन है।
                    मित्रों,हमारे देश का वर्तमान प्रधानमंत्री जगमोहन सिंह देश का सबसे मूर्ख व्यक्ति है। आपका प्रधानमंत्री जहाँ भाषण खत्म होने के बाद पूछता है कि ठीक है यह भाषण से पहले ही पूछ लेता है कि उसका भाषण अतिमूर्खतापूर्ण है न? जहाँ आपके देश में घोटाला होने के बाद जाँच करवाई जाती है या नहीं करवाई जाती है वहीं हमारे मूर्खिस्तान में घोटाला होने से पहले ही इस बात की जाँच करवाई जाती ही किस-किस विभाग में घोटाला होने की कितनी संभावनाएँ हैं और फिर उन मंत्रियों को दंडित किया जाता है जिनके विभागों में घोटालों की संभावनाएँ कम होती हैं या नहीं होती हैं। हमारे मूर्खिस्तान के लोगों का इस वेदवाक्य में अटूट विश्वास है कि बिना घोटाले के विकास नहीं हो सकता,जितना ज्यादा घोटाला उतना ही ज्यादा विकास। हमारे देश में कोई सरकार जितनी ज्यादा जनविरोधी कदम उठाती है उसे उतना ही अच्छा माना जाता है।
                मित्रों,हमारे मूर्खिस्तान में लोगों को सूचना नहीं मिलने का अधिकार प्राप्त है। इसके तहत जनता को सूचना मांगने का और अधिकारियों को उनको किसी-न-किसी बहाने टरका देने या जेल भेज देने का अनन्य अधिकार दिया गया है। हमारे देश के बहार राज्य में इन दिनों अधिकारियों व कर्मचारियों को इस आधार पर प्रोन्नति दी जाती है या फिर सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी-अधिकारी होने का पुरस्कार दिया जाता है कि उसने कितने जागरूक लोगों को जेल भेजवाया या कितनी घूस खाई। दिखावे के लिए जरूर साल में एकाध ऐरे-गैरे की थोड़ी-बहुत सम्पत्ति जब्त कर ली जाती है लेकिन उनको जेल नहीं भेजा जाता। बाद में उनकी जब्त सम्पत्ति को कोर्ट की मूर्खता का पूरा लाभ देते हुए बाईज्जत वैध तरीके से कमाई गई घोषित कर दिया जाता है।
                    मित्रों,हमारे महान मूर्खिस्तान के पास बहुत-बड़ी सेना है। हमारे सैनिकों को सिर कटवाने की पूरी छूट दी गई है लेकिन उनको पड़ोसी नापाकिस्तान के सैनिकों को खरोंच तक लगाने की मनाही है। हमारे देश पर बार-बार हमारे पड़ोसी नापाकिस्तान और चील आतंकी हमले करते रहते हैं,उनके सैनिक हमारी सीमा में घुसते रहते हैं लेकिन हम कभी बुरा नहीं मानते बल्कि हमारे यहाँ इन घुसपैठियों का कांग्लादेशी घुसपैठियों की तरह अतिथि-सत्कार किया जाता है। वो कहते हैं न कि अतिथि देवो भव। हमने गलती से अपने एक अतिथि कसाबू को फाँसी पर लटका दिया था और तभी से 21 नवंबर को उस महान कसाबू जी (हमारी दूर-दूर तक आपके हिन्दुस्तान के महानतम नेताओं दिग्विजय सिंह या सुशील कुमार शिंदे से कोई रिश्तेदारी नहीं है) की अतिमहान आत्मा की याद में हमारे यहाँ राष्ट्रीय शोक दिवस मनाया जाता है।
                            मित्रों,जैसा कि हमने अपने इस मूर्खतापूर्ण आलेख के आरंभ में ही आपको बताया था कि हमारे देश में इन दिनों आपके हिन्दुस्तान की कांग्रेस पार्टी की ही तरह काग-रेस पार्टी का शासन है। सौभाग्यवश इस पार्टी की प्रधान भी एक विदेशी मूल की महिला है। उसने अपने नेताओं को आदेश दे रखा है कि चाहे जो भी बोलो एक स्वर में बोलो और हमेशा आक्रामक रहो। चूँकि इस पार्टी के लोग हमेशा एक स्वर में काग की तरह काँव-काँव करते रहते हैं इसलिए इस पार्टी का नाम काग-रेस पार्टी है। चूँकि हमारे प्यारे मूर्खिस्तान में दिमाग और बुद्धि का उपयोग करना दंडनीय अपराध है इसलिए काग-रेस पार्टी के नेताओं ने आपरेशन करवा कर अपना दिमाग निकलवा दिया है। कौन रिस्क ले और क्यों रिस्क ले? न रहेगा दिमाग और न रहेगी कोई गलती होने की संभावना। इस काग-रेस पार्टी ने अभी कल ही बिना बुद्धिवाले निश्चिंतन शिविर में अध्यक्ष जी के इकलौते पुत्र और पार्टी के सबसे बड़े प्रतिभावान और संभावनाशील मूर्ख श्री श्री 108 राहु बकलोली जी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है। हम मानते हैं कि हमारे देश के लिए वह दिन काफी गौरवशाली होगा जब हमारे देश की महामूर्ख जनता उनको अपना प्रधानमंत्री चुनेगी और इस तरह हमारा देश फिर से विकास की दौड़ में नीचे से अव्वल हो जाएगा।
                     मित्रों,इन दिनों एक बार फिर दुनियाभर के राजनीति-शास्त्र के शोधार्थी हमारे मूर्खिस्तान का रूख कर रहे हैं और पता लगा रहे हैं कि हमारे यहाँ लोकतंत्र इतना फल-फूल कैसे रहा है। आखिर हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र जो ठहरे। आपसे एक मूर्खतापूर्ण लेकिन विनम्र निवेदन है कि आप भी अन्य आगंतुकों की तरह सीमा चेक-पोस्ट पर अपना दिमाग और बुद्धि हमारे सीमा-रक्षकों को सौंपकर ही हमारे देश में प्रवेश करें अन्यथा अगर आपने हमारे महान श्री श्री अनंत मूर्खिस्तान में बुद्धि या दिमाग का प्रयोग किया तो आपके साथ कभी भी,कहीं भी और कुछ भी अनपेक्षित हो सकता है।

शनिवार, 19 जनवरी 2013

सफल बेटी के असफल पिता जगदीश माली

मित्रों,काफी साल हुए। बात शायद 1985-86 की है। मेरे पिताजी इतिहास के प्रोफेसर होने के बावजूद साहित्य में अच्छी अभिरूचि रखते हैं और साहित्यिक पत्रिका आजकल के पिछले 30-40 सालों से नियमित पाठक रहे हैं। तभी मैंने आजकल में एक बड़ी मार्मिक और दिल को छू लेनेवाली कहानी पढ़ी थी। संदर्भ शिव की नगरी बनारस का था। कहानी में सर्दी के दिन थे। एक गरीब ग्वाला सुबह की गुनगुनी धूप में अपने पिता को खाट पर लिटाकर सरसों तेल से मालिश कर रहा था। तभी वहाँ से एक अमेरिकी दम्पति गुजरा। उम्र यही कोई 60-65 की। वह वहाँ झोपड़ी के बाहर चलते-चलते रूक गया। ग्वाले ने उनको बैठने के लिए पीढ़ा दिया और फिर से पितृसेवा में लग गया। देखते-देखते वह अमेरिकन दम्पति भावुक होने लगा और रोने लगा। ग्वाला डर गया कि न जाने उससे क्या गलती हो गई। डरते-डरते रोने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि उनको अपना बेटा याद आ गया था जो उसकी तनिक भी चिंता नहीं करता और अपनी ही दुनिया में खोकर रह गया है। तभी उसी कहानी के माध्यम से मैंने जाना कि दुनिया के दूसरे कोने में वृद्धाश्रम भी होते हैं। दम्पति ने गद्गद भाव से अभिभूत होकर कहानी के अंत में भारत की धरती को प्रणाम करते हुए घोषणा करते हैं कि धन्य है यह भारत और धन्य हैं इस भारत के लोग जो अपने माँ-बाप को बुढ़ापे में अपने हाल पर तिल-तिल कर मरने के लिए नहीं छोड़ते और भगवान की तरह पूजते हैं।
                   मित्रों,वह कहानी तो 1985-86 में ही समाप्त हो गई और आज समय उसे काफी पीछे छोड़ता हुआ बहुत आगे निकल आया है। आज की तारीख में भारत और अमेरिका के माता-पिताओं की स्थिति में बहुत ज्यादा का फर्क नहीं रह गया है। आज के भारत में पहले ही काफी वृद्धाश्रम खुल चुके हैं और बहुत सारे खुल रहे हैं। अभी परसों की ही तो बात है बॉलीवुड की प्रख्यात अभिनेत्री अंतरा माली के पिता और गुजरे जमाने के मशहूर फोटोग्राफर जगदीश माली मुम्बई में किसी मंदिर के बाहर भिखारियों जैसी स्थिति में पाए गए। जब अभिनेत्री मिंक ने इसकी सूचना अंतरा को दी तो उसने साफ-साफ कह दिया कि उसके पास वक्त नहीं है। यह वही अंतरा है जो कभी माधुरी दीक्षित बनना चाहती थीं। यह मुझे तो नहीं पता कि वो माधुरी दीक्षित बन पाईं या नहीं लेकिन इतना तो निश्चित है कि वह इन्सान नहीं बन पाईं। क्या किसी बेटी के पास बाप के लिए समय नहीं होता? उस बाप के लिए जिसने कभी अपना सबकुछ उसके लिए दाँव पर लगा दिया होता है। क्या यह घनघोर कृतघ्नता नहीं है?
                                             मित्रों,यह कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आज सफलता के शिखर पर खड़ी अंतरा माली को अपने पिता की तनिक भी चिंता नहीं है और अगर कोई सलमान खान जैसा भलामानुष उनकी चिंता कर रहा है तो वह उसके प्रति कृतज्ञ होने के बदले उल्टे बेशर्मों की तरह उसी पर गरम हो रही है। लानत है ऐसी संतानों पर जो अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करते। ऐसे लोग अपने प्रोफेशनल जीवन में भले ही कितने भी सफल हो जाएँ इन्सानियत के इम्तिहान में मुकम्मल तौर पर फेल हैं। जानवर से भी गए-बीते हैं ऐसे लोग। इस संदर्भ में एक कथा उपनिषदों में भी मौजूद है। कथा कुछ इस प्रकार है-एक तपस्वी ब्राह्मण कहीं सुदूर वन में तपस्या कर रहा था कि तभी एक बगुले ने उसके सिर पर बीट कर दिया। तपस्वी ने क्रोधित होकर बगुले को देखा और बगुला क्षणमात्र में जल कर राख हो गया। तपस्वी के मन में अभिमान आ गया कि तभी आकाशवाणी हुई कि हे तपस्वी ब्राह्मण! अपने तपोबल पर इतरा मत तुझसे ज्यादा तपोधनी तो इस नाम का और इस नगर का कसाई है। तपस्वी के अभिमान को भारी ठेस लगी। वो निकल पड़ा कसाई को ढूंढ़ने। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कसाई की टूटी-फूटी झोपड़ी के दरवाजे पर जा पहुँचा और आवाज लगाई। भीतर से उत्तर आया कि कुछ देर इंतजार करिए अभी मैं व्यस्त हूँ। तपस्वी काफी नाराज हुआ लेकिन सिवाय इंतजार करने के वो कुछ कर भी नहीं सकता था। कुछ देर बाद जब कसाई सेवा में उपस्थित हुआ तो तपस्वी ने आँखें लाल-पीली करते हुए कहा कि तुझे मृत्यु का भय नहीं है कि तुमने हमसे प्रतिक्षा करवाई। कसाई ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया कि श्रीमान् मैं कोई बगुला नहीं हूँ कि दृष्टि डालते ही राख हो जाऊंगा। तपस्वी हतप्रभ रह गया और पूछा कि आपने यह तपोबल कैसे अर्जित किया और आपकी तो जीविका भी घृणित है। इस पर कसाई ने स्नेहासिक्त स्वर में कहा कि मैं अपने माता-पिता की पूरे तन-मन और धन से सेवा करता हूँ। बाँकी तप वगैरह मैं नहीं जानता। अभी जब आप आए और आवाज लगाई तब भी मैं अपने पिता की चरण-सेवा में ही लगा हुआ था।
             मित्रों,भारतीय संस्कृति बताती है,हमारे सद्ग्रंथ बताते हैं कि आप अगर अपने माता-पिता की नियमित सेवा करते हैं तो कोई जरुरत नहीं है पूजा-पाठ-तप-स्नान-ध्यान-योग करने की। फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि कोई जगदीश माली जैसा सफल और खुशनसीब संतान का पिता बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खाने लगता है। दोषी माता-पिता भी हैं जिन्होंने कदाचित् अपने माता-पिता की सेवा तब नहीं की जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरुरत थी। उनको अपने बच्चों के सामने उदाहरण पेश करना चाहिए और उदाहरण बनना चाहिए। कहते हैं कि रास्ता बताईए तो आगे चलिए सो मैं तो अपने माता-पिता की खूब सेवा कर रहा हूँ। पिछले एक साल से खाना भी मैं ही पका रहा हूँ और चरण-सेवा तो कर ही रहा हूँ क्योंकि मेरी पत्नी अभी गोद में छोटा बच्चा होने के कारण मायके में है। मेरे लिए तो मेरे माता-पिता ही भगवान हैं,शिव-पार्वती हैं और आपके लिए?

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

समय की जरुरत है अध्यक्षीय शासन-प्रणाली

मित्रों,जब भारत के संविधान का निर्माण हो रहा था तब संविधान-निर्माताओं के समक्ष भी यह प्रश्न उठा था कि नवोदित राष्ट्र भारत के लिए कौन-सी शासन-प्रणाली अच्छी रहेगी। काफी विचार-विमर्श के बाद स्थायित्व पर उत्तरदायित्व को वरीयता दी गई और इंग्लैंड की तर्ज पर संसदीय शासन-प्रणाली को स्वीकार कर लिया गया। हमारे संविधान-निर्माता तपःपूत थे और स्वतंत्रता-आंदोलन की देन थे इसलिए उन्होंने सोंचा कि उनके उत्तराधिकारी/वंशज भी उनकी ही तरह नेक विचारों वाले होंगे और यहीं पर वे वह गलती कर गए जिसका खामियाजा आज पूरे भारतवर्ष को भुगतना पड़ रहा है।
                                    मित्रों,आज की तारीख में खासकर छोटे-छोटे राज्यों में सरकारों का स्थायित्व इतनी बड़ी समस्या बन गई है कि झारखंड जैसे खनिज-संपदा से धनी राज्य का विकास भी अवरूद्ध पड़ गया है। आज राज्यों और केंद्र में भी अवसरवादी और अपवित्र गठबंधन किए जा रहे हैं जिससे राज्यों और देश को लाभ के स्थान पर सिर्फ घाटा होता है। तेजी से राजनीति का स्थानीयकरण और भूमिपुत्रकरण हो रहा है। प्रदेशों में छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का तेजी से उभार हो रहा है और राष्ट्रीय दलों का वोट-बैंक उतनी ही तेजी से छिज रहा है। जितने जिले उतने दल। आज केंद्र में कई-कई दर्जन दल मिलकर सरकार बनाने लायक बहुमत जुटा पा रहे हैं जो किसी भी तरह भारतीय लोकतंत्र और भारत के हित में नहीं है। प्रत्येक चुनाव के बाद सांसदों,विधायकों,जिला पार्षदों और नगर पार्षदों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। लाखों-करोड़ों खर्च कर पहले तो उम्मीदवार चुनाव जीतता है और फिर जनता को धोखा देते हुए खुद को लाखों-करोड़ों में बेच देता है। अगर यह केंद्र सरकार के स्थायित्व की समस्या नहीं होती तो शायद ए.राजा जैसे विश्व-रिकार्डधारी घोटालेबाज भी पैदा नहीं हुए होते। चूँकि चुनाव लड़ना काफी खर्चीला हो चुका है और चुनावों के बाद भी जनप्रतिनिधियों को बिना खरीदे सरकार बनाना लगभग असंभव होता है इसलिए प्रत्येक दल को अपना-अपना धनपति रखना पड़ता है। परिणामस्वरूप जनप्रतिनिधियों को चुननेवाली आम जनता दिन-प्रतिदिन हाशिए पर चलती चली जा रही है और सरकारों को पैसे के रिमोट से चला रहे है पूँजीपति।
                                 मित्रों,आज हमारी केंद्र सरकार अपने अस्तित्व और स्थायित्व को लेकर इतनी परेशान या आश्वस्त (?) है कि वह आम जनता को ही भूलती जा रही है और भूलती जा रही है देशहित को और लगातार जनविरोधी और देशविरोधी कदम उठाती जा रही है। उसे पता है कि तिकड़म के बल पर वह हर बार सरकार को बचा लेगी और बहुमत का जुगाड़ कर ही लेगी फिर जनता या देश जाए तेल बेचने तो जाए। आज देश की जनता के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सीधे-सीधे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को नहीं चुनती है। वह चुनती है विधायक या सांसद को और हमारे विधायक या सांसद या छोटे क्षेत्रीय दल हैं कि आसानी से पैसों या पद के लालच में आकर बिक जा रहे हैं। आज विधायिका कानून बनाने का मंच रह नहीं गई है,वह बनकर रह गई है जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोख्त का मछली-बाजार। आज वहाँ कानून नहीं बनते सिर्फ सरकारें बनाई और बचाई जाती हैं जो बहुत ही दुःखद स्थिति है। आम-जनता के दुःख-दारिद्रय की,भ्रष्टाचार की,न्याय में देरी की,भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की चिंता आज न तो हमारे जनप्रतिनिधियों को ही है और न इसके परिणामस्वरूप हमारी सरकारों को ही।
                      मित्रों,भारतीय लोकतंत्र के स्तर में नित आ रही गिरावट को रोकने का मेरी समझ से बस एक ही उपाय शेष रह गया है कि भारत में संसदीय शासन-प्रणाली का अविलंब परित्याग कर अध्यक्षीय शासन-प्रणाली का वरण किया जाए। राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिका की तरह सीधे जनता करे और चुनाव के दूसरे चरण में फ्रांस की तरह पहले चरण में सर्वाधिक मत पाने वाले सिर्फ दो उम्मीदवार ही मैदान में रहें और उनमें से जिसको भी 50% से ज्यादा मतदाताओं के मत प्राप्त हों उसे विजयी घोषित किया जाए। अमेरिका की तरह यह जरूरी नहीं कि राष्ट्रपति के बदलते ही बहुत-सारे सरकारी अधिकारियों को भी बदल दिया जाए। राष्ट्रपति संसद के प्रति जिम्मेदार नहीं हो मगर संसद को उसको महाभियोग द्वारा हटाने का अधिकार जरूर प्राप्त हो। इसी तर्ज पर राज्यों में राज्यपालों को सीधे जनता द्वारा चुना जाना चाहिए और उसको भी विधानसभा के प्रति जिम्मेदारी से मुक्त रखना चाहिए मगर विधानसभा को जरूर उसको हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
                        मित्रों,वास्तव में हमारे द्वारा चुने गए हमारे प्रतिनिधि इस लायक रह ही नहीं गए हैं कि हम अपना भविष्य आँख मूंदकर उनके हाथों में सौंप दें। अध्यक्षीय शासन-प्रणाली में अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल गलत करेगा तो जनता उसको सीधे-सीधे ही नकार देगी और इस प्रकार शासक और शासित के बीच बिचौलियों (सांसदों व विधायकों) की भूमिका भी स्वतः काफी कम हो जाएगी। दो मिनट के लिए कल्पनाभर करके तो देखिए कि एक तरफ राहुल गाँधी हों और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी या अरविन्द केजरीवाल और इनमें से किसी एक को पूरे भारत की जनता सीधे-सीधे वोट देकर चुने तो क्या समाँ बंधेगा? कहना न होगा कि उस स्थिति में राहुल गांधी या कोई भी युवराज इस तरह देश के ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साधे नहीं रह सकता उसको अपनी भावी योजनाओं से देश की जनता को अवगत करवाना ही पड़ता अन्यथा देश की जनता उसे सीधे-सीधे नकार देती। इसमें कोई संदेह की गुंजाईश ही नहीं है कि भारत में जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनने की व्यवस्था पूरी तरह से असफल सिद्ध हो चुकी है इसलिए इसके स्थान पर जनता को सीधे अपना राष्ट्रपति/राज्यपाल चुनने का अधिकार देना ही पड़ेगा और प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पदों को समाप्त करना ही पड़ेगा तभी भारत में लोक का विश्वास बचेगा,तंत्र में सुधार आएगा और लोकतंत्र बचेगा।

रविवार, 6 जनवरी 2013

तब नाबालिग दरिन्दे को सजा जनता देगी

मित्रों,दिल्ली पुलिस की ओर से बताया जा रहा है कि चूँकि 16 दिसंबर के सामूहिक दुष्कर्म का मुख्य अभियुक्त 18 साल का नहीं है इसलिए उसके खिलाफ पुलिस ने चार्ज-शीट दायर नहीं किया है और उस पर बाल-न्यायालय में अलग से मुकदमा चलाया जाएगा। इतना ही नहीं उस दरिन्दे को वर्तमान कानून के अनुसार मात्र 3 साल अधिकतम की सजा होगी और फिर उसके बाद वह आजाद होगा फिर से किसी दामिनी की अस्मत और जान के साथ खुलेआम खिलवाड़ करने के लिए। मैं आप सभी देशवासियों से पूछना चाहता हूँ कि उसने जो कुछ भी किया है वह क्या मासूमियत में किया गया नाबालिगोंवाला काम था? क्या जब कोई कथित नाबालिग बलात्कार करता है तो पीड़िता को कम दर्द होता है या कम मानसिक आघात का सामना करना पड़ता है? अगर नहीं तो फिर क्यों इस हवश के पुजारी को बाँकी नरपिचाशों से कम सजा दी जाए? बाँकी पाँचों को फाँसी और जो सबसे बड़ा अपराधी है उसको अधिकतम सजा मात्र 3 सालों की कैद? यह सजा तो सजा हुई ही नहीं यह तो ईनाम हो गया। प्रोत्साहन हो गया कि जाओ बेटे और लड़कियों की जिन्दगियों से खेलो,मर्द होने का पूरा लाभ उठाओ। अगर बाँकी 5 समाज के लिए खतरा हैं और इसलिए उनको जिंदा छोड़ना खतरनाक है तो फिर कैसे यह छठा समाज के लिए खतरा नहीं है क्योंकि वह अभी मात्र 17 साल 9 महीने का है? पहले सुनता था कि कानून अंधा होता है लेकिन अब तो साबित भी हो रहा है कि कानून वाकई अंधा होता है। क्या आवश्यकता है ऐसे अंधे कानून की? कानून ही जब अंधा होगा तो देश में क्यों नहीं अव्यवस्था और अराजकता रहेगी?
                   मित्रों,अगर कानून उस दरिन्दे को जिसने कथित रूप से दामिनी के साथ दो-दो बार सर्वाधिक बेरहमी से बलात्कार किया और भीषण शारीरिक-मानसिक क्षति पहुँचाई, सजा नहीं दे सकता क्योंकि उसके हाथ बंधे हैं तो देश की 125 करोड़ जनता खोलती है कानून के बंधे हाथों को और हुक्म देती है कि इसको भी फाँसी पर चढ़ाओ। अगर कानून फिर भी ऐसा नहीं कर सकता तो सौंप दे इसको जनता के हाथों में,इन्साफ जनता खुद करेगी। नाबालिग रेपिस्ट का इन्साफ हम करेंगे। तीन-तीन बेटियों का बाप होने की दुहाई देनेवाले मनमोहन सिंह और सुशील कुमार शिंदे से मैं पूछना चाहता हूँ कि अगर दामिनी उनकी बेटी होती (हालाँकि ऐसा होना नितान्त असंभव है क्योंकि इनकी बेटियाँ तो हमेशा जेड प्लस सुरक्षा में रहती हैं) तब भी क्या सरकार का रवैया इसी तरह उदासीन रहता? क्यों नहीं बुलाया जा रहा है संसद का विशेष सत्र? क्या जरूरत थी विधि आयोग के अस्तित्व में रहने पर भी एक और आयोग बनाने की? ऐसे कितने आयोगों या समितियों की सिफारिशों को सरकार ने लागू किया है? क्या सरकार ने सिर्फ टालने की सोंचकर ऐसा नहीं किया है? मैं पूछता हूँ कि कानून आयोग बनाएगा या संसद बनाएगी? फिर आयोग बनाने जैसे विलंबकारी कदम उठाकर क्यों जनता के धैर्य की सरकार परीक्षा ले रही है? पिछले कई सप्ताहों से अनशन पर बैठे जागरूक युवाओं में से कोई अगर मर जाता है तो उसकी मौत के लिए जिम्मेदार कौन होगा,सोनिया गांधी का चमचा मनमोहन सिंह या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या कई बेटियों का बाप मनमोहन सिंह? इसलिए वक्त की नजाकत को समझते हुए सरकार को तुरन्त संसद का विशेष सत्र बुलाना चाहिए और बलात्कारियों को फाँसी की सजा का प्रावधान करना चाहिए। इतना ही नहीं इस नाबालिग दरिंदे को भी फाँसी पर चढ़ाने का इन्तजाम करना चाहिए। संसद देश से है देश संसद से नहीं इसलिए भी सरकार और संसद को जनभावना का ख्याल रखना चाहिए। अगर संसद ऐसा नहीं कर सकती तो नहीं चाहिए हमको ऐसी संसद और ऐसी व्यवस्था जो निर्दोषों पर कहर ढाती हो और बलात्कारी-हत्यारे को इनाम देती हो। याद रखिए कि जब तक दामिनी के कातिल जिन्दा हैं दामिनी की आत्मा को तब तक शांति नहीं मिल सकती। फिर उसकी अंतिम इच्छा भी तो यही थी कि इन दरिन्दों को जिन्दा जलाकर मारा जाए। अंत में कवयित्री डॉ. संगीता अवस्थी द्वारा रचित कविता "माँ की व्यथा" के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहूंगा-
माफ करना हे प्रभु
जिस साँप को मैंने जन्मा
उसने तमाम बहन बेटियों को
डसने से नहीं बख्शा
वो दरिन्दा भूल गया कि वो भी
किसी औरत की कोख से ही जन्मा है
लानत है उस वहशी को जो अपनी दरिन्दगी से
न देख पाया अपनी माँ-बहन का रूप

चीत्कार करती माँ की ममता को
तभी मिलेगा त्राण
जब दरिन्दे का शरीर होगा छलनी और
तड़प-तड़प कर निकलेंगे उसके प्राण।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

मिट्टी के शेर घर में भी ढेर

मित्रों,भारतीय क्रिकेट टीम के बारे में अक्सर यह कहा जाता रहा है कि वह विदेशों में भले ही अच्छा नहीं खेले मगर अपनी जमीन पर तो वह शेर ही होती है। मगर आज यह मिथक भी टूट गया है। भारतीय टीम के लिए इन दिनों अपने देश की पिच पर सीरिज जीतना तो दूर की बात रही एक मैच जीत पाना भी दूर की कौड़ी बन गया है। पहले हमारी टीम के शेरों ने इंग्लैंड को कई दशकों के बाद काफी आसानी से टेस्ट सीरिज जीत जाने दिया और आज पाकिस्तान के खिलाफ तीन एकदिवसीय मैचों की शृंखला में वह दो-शून्य से निर्णायक तरीके से पीछे हो गई है।
           मित्रों,इन दोनों देशों ने हमारे घरेलू मैदान के शेरों को माटी का शेर साबित कर दिया है। इन दिनों न तो हमारी गेंदबाजी ही चल पा रही है और न तो बल्लेबाजी ही,क्षेत्ररक्षण के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति दयनीय होती जा रही है। समझ में नहीं आता कि करोड़ों का सालाना पैकेज पानेवाले हमारे खिलाड़ियों को हो क्या गया है?क्यों उनको मैदान में उतरते ही साँप सूंघ जाता है?हालाँकि कप्तान धोनी ने अपना कर्त्तव्य आज भी बखूबी निभाया है लेकिन सिर्फ कप्तान के ही अच्छा खेलने से कोई टीम क्या जीत सकती है?क्यों टीम के बाँकी बल्लेबाज लगातार फ्लॉप हो रहे हैं समझ में नहीं आता?क्या उनका मन अब खेलने में नहीं लग रहा और उनको सिर्फ विज्ञापनों में काम करना ही रास आ रहा है।
             मित्रों,अब टीम में प्रयोग करने का समय भी नहीं रह गया है। अब टीम के चयनकर्त्ताओं को टीम में आमूल-चूल परिवर्तन करने पड़ेंगे। खिलाड़ियों के साथ-साथ टीम के कोच को यथाशीघ्र बदलने की आवश्यकता है और टीम में अच्छे गेंदबाजी,बल्लेबाजी और क्षेत्ररक्षण प्रशिक्षकों को भी नियुक्त करने की जरुरत जान पड़ती है तभी टीम में फिर से जान आ सकेगी और भारतीय टीम की गाड़ी एक बार फिर से जीत की पटरी पर सरपट भाग सकेगी।