शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

हिन्दू हो या मुसलमान आँसुओं का रंग समान


महुआ (वैशाली)।(निसं) जाति और धर्म  के नाम पर समाज में बहुत से सही-गलत कारनामे चलते हैं, लेकिन जिंदगी, हादसा और मौत किसी का मजहब देखकर भेदभाव नहीं करते। महुआ के सिंघाड़ा गांव के दो दोस्त अलग-अलग समुदाय के थे पर दोनों की पीड़ा एक थी। दोनों धरती पर आविर्भाव के बाद से ही अपनी-अपनी गरीबी से जूझते रहे। दोनों ने साथ ही नौकरी की तलाश की। दोनों आंध्र प्रदेश गए । मालपुर सिंघाड़ा निवासी लालदेव पासवान के पुत्र 35 वर्षीय राजीव कुमार और  रामराय सिंघाड़ा निवासी 37 वर्षीय मो.फिरोज आंध्र प्रदेश में एक ही कंपनी में नौकरी भी करने लगे थे। होनी कुछ ऐसी कि पिछले सप्ताह एक भीषण सड़क हादसे में दोनों की मौत भी साथ-साथ हुई। दोनों के शव बुरी तरह क्षत-विक्षत थे। उन्हें पहचानना मुश्किल था। दोनों के शवों को साथ ही गांव लाया गया, लेकिन सही पहचान न हो पाने से राजीव का शव कब्रिस्तान में और फिरोज का शव श्मशान पहुंच गया। लगे थे। होनी कुछ ऐसी कि पिछले सप्ताह एक भीषण सड़क हादसे में दोनों की मौत भी साथ हुई। दोनों के शव बुरी तरह क्षत-विक्षत थे। उन्हें पहचानना मुश्किल था। दोनों का शव साथ ही गांव लाया गया, लेकिन सही पहचान न होने से राजीव अनजाने में ही सही, हिंदू युवक के शव के पास मुसलिम ग्रामीणों ने मातमपुर्सी की और मुसलिम नौजवान की देह के पास हिंदू परिजनों ने विलाप किया। आंसु बहानेवाले नेत्र अलग-अलग संप्रदायों के थे मगर उनका रंग एक था। सिसिकियां भी श्मसान और कब्रिस्तान में एक-जैसी थीं। इनकी कोई अलग मजहबी पहचान नहीं थी। फिरोज के परिजन राजीव के शव को फिरोज की देह समझकर सुपुर्द-ए-खाक कर चुके थे। इधर, श्मशान में शव को जलाने से पहले उसे साफ करने और स्नान कराने के दौरान लोगों को पता चला कि शव राजीव का नहीं, फिरोज का है । फिरोज का शव लेकर जैसे ही लोग सिंघाड़ा रामराय पहुंचे, मुसलिम समुदाय के लोग भौंचक्के रह गए। आनन-फानन में कब्र से राजीव का शव निकालकर उसके परिजनों को सौंपा गया। दोबारा उन दोनों का उनके अपने-अपने धर्म  के अनुसार क्रिया-कर्म हुआ। दो जिगरी दोस्तों की मौत से जहाँ पूरे गांव में मातम का वातावरण है, लेकिन शव की अदला-बदली ने मातमी माहौल की संजीदगी बढ़ा दी है और हिन्दू-मुसलमान दोनों समुदायों को यह सोंचने पर विवश कर दिया है कि जब दर्द और आँसू के रंग एक हैं तो फिर दोनों के बीच वैमनस्यता क्यों? (http://hajipurtimes.in/ से साभार)

सोमवार, 18 नवंबर 2013

जेहादी आतंकवाद पर चुप क्यों हैं मुसलमान?

मित्रों,यह बहुत बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हमारा भारतीय मुस्लिम समाज उनके धर्म के नाम पर हो रहे देशविरोधी आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता वहीं जब उसके मजहब को आतंकवादियों का धर्म कहकर आलोचना की जाती है तो विफर उठता है। अगर हम वैश्विक स्तर पर इस्लामिक आतंकवाद के पैदा होने और पनपने के कारणों की विवेचना करें तो हमारे कई ऐसे मित्र हैं जो मानते हैं कि जेहादी आतंक गरीबी की वजह से फलता-फूलता है। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। मैं नहीं मानता कि सिर्फ मुस्लिम समाज में व्याप्त गरीबी के चलते जेहादी आतंकवाद में बढ़ोत्तरी होती है। उदाहरण के लिए इस युग का दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन तो अरबपति था फिर वो आतंकवादी क्यों बना? उसको कौन-से रोटी के लाले पड़े हुए थे कि वो पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद का प्रतीक बन गया?
                           मित्रों,जहाँ तक बिहार में जेहादी आतंकवाद के पैर फैलाने का सवाल है तो प्रश्न उठता है कि जब वर्ष 2011 में चिन्नास्वामी स्टेडियम बम ब्लॉस्ट के मामले में दरभंगा से कबीर अख्तर को गिरफ्तार किया गया था तब से बिहार के मुस्लिम समाज ने आतंकवाद को मौन सहमति क्यों दे रखी थी? तब क्या सोंचकर राजद ने गिरफ्तारी के विरूद्ध धरना दिया था? क्या सोंचकर तब से लेकर अब तक नीतीश सरकार सबकुछ जानते हुए भी कान में तेल डाले पड़ी हुई थी? क्यों जेसीटीसी की बैठक में नीतीश ने केंद्र पर आतंकवाद के नाम पर बिहारी मुसलमानों को तंग करने का आरोप लगाया था? क्या राजद और जदयू का ऐसा मानना नहीं है कि एक आम मुसलमान उनके धर्म के नाम पर की जा रही देशविरोधी हिंसा को उचित मानता है?
                  मित्रों,सवाल तो यह भी उठता है कि क्यों आजतक मुस्लिम समाज ने कभी किसी आतंकी को पकड़कर स्वयं पुलिस के हवाले नहीं किया? जिस तरह बिहार में आतंकवाद के खिलाफ मुसलमान सड़कों पर उतरने लगे हैं इससे पहले उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? जिस तरह मोदी के प्रबल विरोधियों में 99 प्रतिशत हिन्दू हैं उसी तरह की स्थिति जेहादी आतंकवाद के संदर्भ में क्यों नहीं है? अगर किसी कौम का आतंक नहीं होता और आतंकवादी इस्लाम के नाम का दुरूपयोग कर रहे हैं तो फिर क्यों मुस्लिम समाज चुपचाप ऐसा अन्याय होने दे रहा है? क्यों कभी 56 इस्लामिक राष्ट्रों के संगठन में आतंकवाद को गैर इस्लामी घोषित और आतंकवाद की किसी भी तरह से मदद नहीं करने का संकल्प पारित नहीं किया गया? इस्लाम के नाम पर जेहाद तो उन इस्लामिक राष्ट्रों में भी चल रहा है और उन देशों में तो मुसलमान ही इस्लाम की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को मार रहे हैं। क्या इससे यह समझना चाहिए कि मुसलमान दूसरों के विश्वास का यहाँ तक कि इस्लाम के दूसरे सिलसिलों या पंथों का भी सम्मान नहीं कर पा रहे हैं और इसलिए मार-काट मचाकर अपने मत की श्रेष्ठता को जबर्दस्ती स्थापित करना चाहते हैं?
             मित्रों,वास्तविकता तो यह है कि न तो मुस्लिम समाज और न ही भारत के सत्ता प्रतिष्ठान मुसलमानों की असली जरुरत को समझ रहे हैं। सत्ता यह नहीं समझ पा रही है कि अगर कोई मुसलमान युवक देशद्रोही आतंकी कार्रवाई में लिप्त पाया जाता है तो उसको संरक्षण देने या बचाव करने से मुसलमानों का भला नहीं होनेवाला बल्कि अंततोगत्वा नुकसान ही होगा। आप किसी भी छोटे बच्चे को गोद से नहीं उतारिए जबकि उसकी उम्र चलना सीखने की हो। क्या आप उस बच्चे से वास्तव में प्यार करते हैं? क्या आप ऐसा करके उसको जीवनभर के लिए अपंग नहीं बना रहे हैं? ऐसा अक्सर देखा जाता है कि घर के जिस बच्चे को बेजा दुलार-प्यार देते हैं,बाँकियों को नीचा दिखाकर सिर पर चढ़ाते हैं वो बच्चा बिगड़ जाता है। इसी तरह अगर हम किसी बच्चे को सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ टॉफी खिलाएँ तो न केवल उसके दाँत सड़ जाएंगे बल्कि उसका स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा। बटाला-हाऊस मुठभेड़ पर प्रश्न-चिन्ह लगाकर जेहादी आतंकियों के मनोबल को बढ़ाना,मजहब के नाम पर आरक्षण देना,बाँकी मजहबों से ईतर अंधाधुंध अतिरिक्त सरकारी सुविधाएँ देना,दंगा करने की खुली छूट देना,अरब देशों से मदरसों और मस्जिदों के निर्माण और संचालन के लिए अकूत धन की आमद की खुली छूट देना छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों के कुछ ऐसे ही कदम हैं जो अंततः मुस्लिम समाज को नुकसान ही पहुँचाएंगे। यदि इस्लाम का आतंक से कोई रिशता नहीं है या आतंकी मुसलमान हो ही नहीं सकते तो क्या कारण है कि इस्लामिक आतंकवाद का प्रश्न ऑर्गनाईजेशन ऑफ
इस्लामिक कोऑपरेशन की बैठकों में चिंता का विषय नहीं बनता?  क्या इस संस्था को इसका जवाब नहीं देना चाहिए और इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठानी चाहिए? इस्लाम आज शांति के बजाए खून-खराबी करनेवालों का मजहब क्यों बन गया है क्या इसका कोई सीधा उत्तर ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के पास है? वो कौन-सी ताकतें हैं जो दुनियाभर में जेहादी आतंकवाद के पक्ष में फंडिंग करती हैं क्या ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन ने कभी इसका पता लगाने की कोशिश की?
                 मित्रों,पैगम्बर ए इस्लाम (स. अ.व.अ.) के उत्तराधिकारी और दामाद हज़रत अली(अ.स.) के अनुसार तो वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है तो फिर जो लोग शत्रु देशों के हाथों में खेलकर हमारे देश के निवासियों के खून के ही प्यासे हो रहे हैं क्या उनको मुसलमान माना या कहा जाना चाहिए? अभी देश में जिस तरह से आतंक का माहौल बन गया है वैसा माहौल तो आजादी के समय में भी नहीं था। क्यों मुसलमानों को गुजरात के दंगे तो नजर आते हैं,मुम्बई के दंगे तो नजर आते हैं लेकिन गोधरा की आग दिखाई नहीं देती,मुम्बई के बम-विस्फोट नजर नहीं आते? जब सीधी बात है कि जो आतंकी है वो मुसलमान हो ही नहीं सकता तो फिर वो कौन-से लोग हैं जो इनको अपने घरों में पनाह देते हैं? क्या ऐसे तत्त्वों की मदद करना गैर इस्लामी नहीं है? मैं पूछता हूँ कि क्या यही सब करने के लिए उन्होंने और उनके पूर्वजों ने 1947 में मुसलमानों के लिए बने नए मुल्क पाकिस्तान को ठुकराकर भारत को अपनी मातृभूमि स्वीकार किया था?मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ पटना में अपनी मौत मारे गए आत्मघाती आतंकवादी तारिक उर्फ एनुल के परिजनों को जिन्होंने यह कहकर उसकी लाश लेने और उसका अंतिम संस्कार करने से इन्कार कर दिया कि एक आतंकवादी उनका बेटा-भाई नहीं हो सकता। भारत और दुनिया के सारे मुसलमानों में अगर इसी तरह का जज्बा आ जाए तो वह दिन दूर नहीं कि जब इस धरती से इस्लामिक आतंकवाद का नामोनिशान ही मिट जाएगा।                  
                मित्रों,अगर ऐसा न हुआ और अगर मुस्लिम समाज आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता है तो मेरा मानना है कि फिर उसको कोई हक नहीं है तब बुरा मानने या विरोध करने का जब कोई उसके मजहब को आतंकियों का मजहब कहता है। अगर मुस्लिम समाज अपनी आधी आबादी की बाजिब मांगों को कुचलने के लिए बमों और बंदूकों का सहारा लेता है तो उसे कोई अधिकार नहीं है कि वो खुद को तरक्कीपसंद कहे और तब आलोचक का विरोध करे जब उसके मजहब को दकियानूसी या कट्टर कहा जाता है। इसी प्रकार अगर मुस्लिम समाज आधुनिक शिक्षा और आधुनिक संचार उपकरणों के समुचित प्रयोग का विरोध करता है तो मेरा मानना कि उसे कोई हक नहीं है कि वो सरकार से नौकरियों में आरक्षण की मांग करे।

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

क्या खुर्शीद पाकिस्तान के विदेश मंत्री हैं?

मित्रों,काफी दिन हुए। हमारे गाँव में क्रिकेट का मैच हो रहा था। प्रतिद्वन्द्वी टीम बगल के गाँव की थी। गाँव की ईज्जत दाँव पर लगी थी। मैच अपने पूरे शबाब पर था और अंतिम ओवर प्रगति पर था कि हुआ यह कि गेंदबाज का मौसेरा भाई जो बगल के उसी गाँव का था अंतिम बल्लेबाज के रूप में पिच पर आया। गेंदबाज ने गेंद फेंकी। पहली ही गेंद पर बोल्ड। अंपायर ने भी ऊंगली उठा दी लेकिन गेंदबाज भाईचारे पर उतर आया और अंपायर से ही उलझ गया कि उसने तो नो बॉल फेंकी थी। अंपायर भी मरता क्या न करता मान गया। फिर तो ऐसा बार-बार हुआ,बार-बार हुआ। और इस प्रकार हमारे गाँव की टीम एक जीता हुआ मैच हार गई।
                मित्रों,कुछ ऐसा ही मैच इन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहा है। पाकिस्तानी सेना की मदद से आतंकवादी बार-बार भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रहे हैं। हमारे सैनिकों के सिर उनके सैनिक ट्रॉफी की तरह उतारकर ले जा रहे हैं लेकिन हमारे विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद कहते हैं कि पाकिस्तान को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए क्योंकि उनका मानना है कि पाक सैनिकों ने सिर काटा,गोलियाँ चलाईं,मगर किसी ने न देखा। पूरी दुनिया कह रही है यानि दर्शक कह रहे हैं, अमेरिका यानि अंपायर कह रहा है कि इन तरह की तमाम घटनाओं में पाक सेना का हाथ रहता है लेकिन गेंदबाज खुर्शीद कह रहे हैं कि बल्लेबाज को संदेह का लाभ मिलना ही चाहिए क्योंकि इसका वीडियो फुटेज तो उपलब्ध है नहीं। मैं नहीं जानता कि नवाज शरीफ खुर्शीद के किस तरह के रिश्तेदार हैं लेकिन इन दोनों के बीच कोई-न-कोई किसी-न-किसी तरह का मधुर रिश्ता तो जरूर है वरना कोई इस तरह मादरे वतन के प्रति यूँ ही बेवफा नहीं होता। खुर्शीद इतने पर ही रूक जाते तो फिर भी गनीमत थी लेकिन वे तो अपने मौसेरे भाई की तरफ से बल्लेबाजी भी करने लगे हैं। कहते हैं कि हमसे ज्यादा तो आतंकवाद का शिकार पाकिस्तान खुद है। जबसे वे विदेश मंत्री बने हैं पता ही नहीं चल रहा है कि वे भारत के विदेश मंत्री हैं या पाकिस्तान के। जब भी बोलते हैं तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान के पक्ष में ही बोलते हैं। ऐसा वे क्यों कर रहे हैं,ऐसा करने के बदले उनको क्या मिल रहा है,का पता लगाना निश्चित रूप से भविष्य में हमारी जाँच एजेंसियों के लिए चुनौती भरा कार्य होगा। दुर्भाग्यवाश एक तरफ तो पाकिस्तान हमारे देश के कोने-कोने में हमारे बच्चों को गुमराह कर आतंकी बना रहा है,उसके हिन्दुस्तानी चेले गांधी मैदान से लेकर गेटवे ऑफ इंडिया तक पर मानव-रक्त बहाकर दिवाली मनाते फिर रहे हैं और खुर्शीद साहब हैं कि उसके ही गम में पागल हुए जा रहे हैं जैसे इन शेरों में शायर अमीर मीनाई हुए जा रहे थे-
वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उनसे,
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

झूठों का सरताज अरविन्द केजरीवाल

मित्रों,मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर टीम केजरीवाल के महत्त्वपूर्ण सदस्य व सर्वेक्षणवीर योगेन्द्र यादव भी इस बात को लेकर देश की जनता के बीच सर्वेक्षण करवाएँ कि देश में सबसे ज्यादा झूठ किस पेशे से संबंधित लोग बोलते हैं तो यकीनन देश की 99 प्रतिशत जनता यही कहेगी कि इस कला में राजनीतिज्ञ लाजवाब हैं। यह राजनीति ही है जिसने कथित रूप से पूरी तरह से सच्चे रहे मनमोहन सिंह को परले सिरे का झूठा व मक्कार बना दिया। नेताओं के प्रति यह घनघोर निराशा का भाव ही था जिसके चलते जब विकट सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने पिछले साल गांधी जयन्ती पर राजनीतिज्ञों को राजनीति सिखाने के लिए नई राजनैतिक पार्टी की स्थापना करने की घोषणा की तो जनता के एक बड़े वर्ग को काफी हर्ष हुआ। हालाँकि मेरे जैसे कुछ शक्की किस्म के इंसान अब भी ऐसे थे जो केजरीवाल पर आँख मूँदकर विश्वास करने के पक्ष में नहीं थे। (पढ़िए मेरा 17 अक्तूबर को लिखा गया आलेख http://brajkiduniya.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html)। इस शक की पीछे जो ठोस कारण था वो यह था कि राजनीति में उतरकर केजरीवाल ने न केवल अपने पुराने वादे को तोड़ा था बल्कि उनके ऐसा करने से उनके राजनैतिक गुरू अन्ना हजारे का दिल भी टूटा था। तब जनसामान्य के मन में यह सवाल उठा था कि क्या केजरीवाल ने सीधे-सादे अन्ना का दुरुपयोग किया और समय आने पर उनके दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्कुरा के सत्ता की राह में चल दिए? क्या अन्ना आंदोलन में अन्ना को आगे करके जनभावना को उभारना और बाद में उनके मना करने पर भी राजनीति में आ जाना उनकी सोंची-समझी रणनीति थी? हमारे जैसे कुछ भाइयों को यह भी लग रहा था कि केजरीवाल कांग्रेस के धनुष से छोड़ा गया वाण है जो चुनावों में भाजपा का वोट काटने के लिए छोड़ा गया है।
                                             मित्रों,अभी बमुश्किल एक साल ही बीते हैं और अरविन्द की कलई पूरी तरह से उतर गई है। आज उनको देखकर हर कोई यही कहता है कि या तो सालभर पहले का अरविन्द असली था या फिर आज का अरविन्द असली अरविन्द है क्योंकि दोनों अरविन्दों में मात्र एक साल में ही जमीन और आसमान का फर्क आ गया है। सालभर पहले जो अरविन्द सच्चाई का पुतला माना जाता था आज झूठ की फैक्ट्री में तब्दील हो चुका है। सालभर पहले जो अरविन्द वोट बैंक की राजनीति करनेवालों की लानत-मलामत करता था आज खुद ही वोट बैंक की राजनीति कर रहा है। सालभर पहले जिस अरविन्द को वंदे मातरम् कहने में गर्व महसूस होता था आज वो न तो भारतमाता का जयकारा लगाता है और न ही वंदे मातरम् का नारा ही क्योंकि उसे भय है कि उसके ऐसा करने से मुस्लिम मतदाता उसकी पार्टी से हड़क जाएंगे। मुस्लिम वोट बैंक को अपनी तरफ करने के प्रयास में वे कई-कई बार जामा मस्जिद दिल्ली के विवादास्पद ईमाम मौलाना बुखारी की परिक्रमा कर चुके हैं। हद तो तब हो गई जब उन्होंने बरेली दंगों के मुख्यारोपी तौकीर रजा से मुलाकात कर उनसे अपनी पार्टी के लिए समर्थन मांगा। अभी तक रजा कांग्रेस और सपा के लिए मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करते आ रहे थे। मैं श्री केजरीवाल से पूछता हूँ कि अगर उनको कांग्रेस और सपा की नीतियों पर ही चलनी थी तो क्यों उन्होंने आम आदमी पार्टी की स्थापना की?
                मित्रों,इतना ही नहीं तौकीर रजा मामले में तो उन्होंने झूठ बोलने की प्रत्येक सीमा को मीलों पीछे छोड़ दिया। उनसे मिलने के बाद जब मीडिया में विवाद पैदा हो गया तो उन्होंने तत्काल कहा कि तौकीर साहब एक ईज्जतदार ईंसान हैं फिर जब उनसे पूछा गया कि उन पर तो बरेली में दंगा करवाने का आरोप है तो उन्होंने गुलाटी मारते हुए कहा कि आरोप तो है लेकिन कोर्ट ने अभी सजा नहीं दी है। उनका यह भी कहना था कि यह मुलाकात पूर्वनियोजित नहीं थी बल्कि अकस्मात् थी लेकिन तौकीर रजा ने स्वयं यह कहकर उनके इस दावे को झूठा साबित कर दिया कि केजरीवाल ने कई दिन पहले ही उनसे मुलाकात के लिए समय मांगा था। जब सरदार ही झूठ बोल रहा हो तो कारिंदे क्यों पीछे रहते? कुमार विश्वास जी अब निर्लज्जतापूर्वक यह कहते फिर रहे हैं कि तौकीर से तो उनसे पहले कांग्रेस और सपा ने भी सहायता ली थी। वाह,क्या तर्क है कि वो जो करते हैं वही हमने किया तो फिर आपने क्यों यह दावा किया था कि आप राजनेताओं को यह सिखाने के लिए राजनीति में आए हैं कि राजनीति कैसे की जानी चाहिए? इसी तरह जब केजरीवाल से इंडिया टीवी के कार्यक्रम आपकी अदालत में यह पूछा गया कि उन्होंने राशन माफिया सहित कई-कई दागियों को कैसे टिकट दे दिया तो उन्होंने इसकी जानकारी होने से मना कर दिया। आप ही बताईए कि जिस व्यक्ति को यह पता है कि स्विस बैंक में किस भारतीय के कितने पैसे जमा हैं उसे यह नहीं पता कि उसके किस उम्मीदवार के खिलाफ कौन-कौन से और कितने आपराधिक मामले चल रहे हैं?कौन मानेगा कि वे सच बोल रहे हैं?
                                           मित्रों,अब बात करते हैं उनपर लगाए गए इस आरोप की कि वे कांग्रेस के मोहरे हैं। इस बारे में सबसे पुख्ता प्रमाण मिला है इस खुलासे से कि जिस सर्वे को दिखा-दिखाकर अरविन्द ने पूरी मीडिया को दिग्भ्रमित करने के साथ-साथ पूरी दिल्ली में पोस्टर्स लगवा दिए और दावा करते फिरते हैं कि आप को 37 सीटें मिलेंगी उस सर्वे के पीछे कोई और नहीं बल्कि दिल्ली कांग्रेस का एक पदाधिकारी था। जैसा कि हम सब जानते हैं कि वो सर्वे आप के ही योगेन्द्र यादव ने किसी 'Cicero Associates' नाम की सर्वे फर्म से करवाया था। जब एक चुनावी विश्लेषक को शक़ हुआ कि आखिर आप के सर्वे के परिणाम बाकी बड़ी सर्वे कंपनियों जैसे कि सी-वोटर और एसी नेल्सन से इतने अलग क्यूँ आ रहे हैं तो उसने जांच शुरू की जिसमें पता चला कि यह फर्म (Cicero Associates) इतनी नई थी कि इसकी वेबसाइट मात्र 3 महीने पहले ही बनाई गई थी। जब आगे अनुसंधान किया गया तो पता चला इस फर्म का निदेशक है-'सुनीत कुमार मधुर' और पता है यह मधुर कौन है? दिल्ली कांग्रेस कमिटी का महासचिव। मतलब कि फर्जी फर्म, फर्जी सर्वे, फर्जी सर्वेक्षणकर्त्ता-सबके सब कांग्रेस के द्वारा खड़े किए हुए। ईधर-उधर से तो बहुत ख़बरें आती थी लेकिन अब इस खुलासे के बाद यह बात सप्रमाण साबित हो गई है कि केजरीवाल को किसी अन्य ने नहीं,बल्कि कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ा किया है।
                                        मित्रों,यह तो हम पहले से ही जानते थे कि व्यवस्था-परिवर्तन की मांग करना और बात है और उसके लिए लंबा संघर्ष करना दूसरी लेकिन हम यह नहीं जानते थे अरविन्द केजरीवाल का एकमात्र उद्देश्य सत्ता पाना है। मुझे आज यह आलेख लिखते हुए अपार दुःख हो रहा है क्योंकि मैं कई-कई बार अरविन्द केजरीवाल का समर्थन इस उम्मीद में कर चुका हूँ कि कम-से-कम कोई एक राजनेता तो ऐसा है जो व्यवस्था-परिवर्तन की बात कर रहा है बाँकी तो सिर्फ सत्ता-परिवर्तन की बात करते हैं। भाइयों एवं बहनों,अन्ना का आंदोलन कोई छोटा-मोटा आंदोलन नहीं था बल्कि सन् 74 के बाद यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसने पूरी व्यवस्था की चूलों को हिलाकर रख दिया था। अब क्या पता कि ऐसा व्यापक आंदोलन फिर से निकट-भविष्य में कभी हो भी या नहीं जबकि देश की हालत तो इस समय पहले से भी कहीं ज्यादा खराब होती जा रही है और दिन-ब-दिन एक और व्यवस्था-परिवर्तक आंदोलन की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है। लेकिन यह भी सही है कि आंदोलन होने से ज्यादा जरूरी है उसका परिणति तक पहुँचना। चाहे जेपी आंदोलन हो या अन्ना आंदोलन दुर्भाग्यवश दोनों को पलीता दोनों के चेलों ने ही लगाया और दोनों ही मामलों में ऐसा सत्ता-प्राप्ति के लिए कांग्रेस के इशारे पर किया गया।

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

काश हिन्दू भी वोट-बैंक होते!

मित्रों,जब भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव सिर पर होता है तब एक खास तरह के बैंक पर चर्चा तेज हो जाती है। जी हाँ,मैं वोट बैंक की ही बात कर रहा हूँ। भारत में वोट बैंक भी कई तरह के हैं और पिछले कई दशकों से उनमें से सबसे प्रमुख है मुस्लिम वोट बैंक। कहने को तो यह वोट-बैंक अल्पसंख्यक है लेकिन बकौल कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर यही वह वोट बैंक है जो भारत में शासक और विपक्ष का निर्धारण करता है। पूरा दुनिया में ईट हैप्पेन्स ऑनली इन ईंडिया। है न अजीब बात कि जो अल्पसंख्यक है वही निर्णायक है और जो बहुसंख्यक है वो मुँहतका,चुनाव से पहले भी और चुनाव के बाद में भी। क्या आप जानते हैं कि वर्तमान सरकार को देश और देशवासियों की चिंता क्यों नहीं है? क्योंकि सरकार बनाने में सक्षम जो मुख्य अल्पसंख्यक या तथाकथित अल्पसंख्यक है उसकी संस्कृति अभारतीय है,आयातित है,उसके लिए भारत एक निवास-स्थान मात्र है माता नहीं है,उसके अधिकांश अनुयायियों को भारत से ज्यादा सऊदी अरब से प्यार है,वो भारत की स्वतंत्रता के लिए कम खिलाफत प्रथा को बनाए रखने के लिए ज्यादा चिंतित रहता है,उसकी पितृ या मातृभूमि भारत नहीं सऊदी अरब है,उसको भारतभूमि की वंदना में वंदे मातरम् गाने या कहने में हिचक है फिर उसके बल पर चुनी जानेवाली सरकार क्यों कर भारत और भारतीयों की संस्कृति और हितों की चिंता करे? केंद्र सरकार तो सऊदी अरब की भक्ति में इस कदर अंधी हो गई है कि उसे सऊदी सरकार द्वारा भारतीय श्रमिकों के हितों के विरुद्ध कदम उठाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती जबकि इस नए तरह के आरक्षण से सबसे ज्यादा छँटनी भारतीय मुसलमानों की ही होनेवाली है और इससे देश में विदेशी मुद्रा की आवक में कमी आएगी सो अलग।
                          मित्रों,प्रश्न उठता है कि भारत में हिन्दुओं को वोट बैंक क्यों नहीं माना जाता जबकि उनकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग 80 प्रतिशत है? क्यों बहुसंख्यक होने पर भी राजनैतिक दलों को हिन्दुओं को खुश करने की वैसी चिंता नहीं है जैसी कि मुसलमानों के लिए है? कारण कई सारे हैं जिनमें से कुछ के लिए हमारा इतिहास जिम्मेदार है तो कुछ के लिए वर्तमान हिन्दू नेता। इतिहास या पूर्वज इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में सदियों से अति अमानवीय जाति-प्रथा प्रचलित है। इस प्रथा में कुछ इस तरह की कमियाँ रहीं कि कुछ लोग जन्म लेते ही सबकुछ से स्वामी हो जाते थे और कुछ लोगों के पास कुछ भी नहीं रह जाता था। यहाँ तक कि वे भविष्य में अपनी योग्यता के बल पर भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते थे। यद्यपि ऋग्वैदिक काल में जन्म जाति का निर्धारक नहीं था लेकिन बाद में जाति-प्रथा इतनी कठोर होती गई कि व्यक्ति अपने पूर्वजों के पेशे से इतर कोई वृत्ति अपना ही नहीं सकता था चाहे इसके चलते उसका जीवन नारकीय ही क्यों न बन जाए। इन कारणों से हिन्दू या सनातन धर्म एक एकांगी धर्म रह ही नहीं गया और छोटे-छोटे जातीय हितसमूहों का अंतर्विभाजित समूह बनकर रह गया। इन्हीं परिस्थितियों में जब इस्लाम का भारत में आगमन और आक्रमण हुआ तो वंचितों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ हो लिया क्योंकि इस्लाम इस तरह के भेदभावों से पूर्णतया मुक्त था। आज भी भारतीय मुसलमानों का 90 प्रतिशत से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा उन्हीं वंचित हिन्दुओं की संतानें हैं।
                           मित्रों,भारत में आधुनिकता के आगमन के बाद से ही हिन्दू धर्म में जातिप्रथा काफी तेजी से कमजोर होने लगी। तार्किकता और वैज्ञानिकता ने छुआछूत को लगभग मिटाकर ही रख दिया। ऋग्वैदिक काल के बाद पहली बार सभी हिन्दुओं के आर्थक,सामाजिक और राजनैतिक हित एक होने लग गए थे कि तभी मेरे ही सजातीय व 1989 में प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति ने हिन्दू जनमानस को बुरी तरह से बाँटकर रख दिया। उस बँटवारे की जड़ें इतनी गहरी थी कि आज 23 सालों के बाद भी हिन्दू धर्म में जातीय कटुता लगभग जस-की-तस है। कभी बिहार में माई समीकरण के प्रणेता लालू प्रसाद यादव ने 1995 के विधानसभा चुनावों के समय महनार की जनसभा में कहा था कि उनके मतदाता तो अविभाजित होकर मतदान करते हैं जबकि सवर्णों के मत तो सत्यनारायण भगवान के प्रसाद की तरह सभी राजनैतिक दलों में बँट जाते हैं। कुछ साल तक तो भारतीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका निभानेवाले यूपी-बिहार में अगड़ी जाति के हिन्दुओं को छोड़कर बाँकी पूरा-का-पूरा जनमत एकमत रहा लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न हिन्दू पिछड़ी और दलित जातियों के मतों के अलग-अलग ठेकेदार उभरने लगे। 
                         मित्रों,इस प्रकार इस समय ठीक वही स्थिति हिन्दू मतों की हो गई है जो 1995 में बिहार में सवर्ण मतों की थी जबकि मुस्लिम इस मामले में पहले भी एकजुट थे और आज भी एकजुट हैं। अगर हम हिन्दुओं को राजनैतिक दलों की नीतियों को अपने सापेक्ष बनाना है तो एक होकर मत देना ही होगा। ऐसा कैसे संभव होगा मैं नहीं जानता क्योंकि कुछ राज्यों में कई राजनैतिक दल कुछ जातियों के वोटों के स्वाभाविक हकदार बन गए हैं। दुर्भाग्यवश ऐसे जातिआधारित राजनैतिक दलों का झुकाव भी अपनी जाति-विशेष से ज्यादा मुस्लिम मतों के प्रति ही ज्यादा है। इस समय भारत में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर ऐसा कोई राजनैतिक दल नहीं है जिसकी पहली प्राथमिकता हिन्दू हित या हिन्दू मत हों। बल्कि बाँकी सारे राजनैतिक दलों का पहला उद्देश्य मुस्लिम मतों को पाना है और दूसरा उद्देश्य हिन्दू धर्म के किसी जाति-विशेष का मत प्राप्त करना। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी जिस पर कभी जिन्ना ने हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाया था,भी इन दिनों मुस्लिम मतों के लिए मरी जा रही है और जैसे हिन्दू मतों से उसका कोई लेना-देना ही नहीं है।
                          मित्रों,भारत के सभी हिन्दुओं को यह अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि जब तक वे एकमत होकर मतदान नहीं करेंगे,जब तक उनके आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक हित एक नहीं होंगे तब तक वे हाशिए पर ही बने रहेंगे। इतना ही नहीं तब तक भारत का विकास भी अवरुद्ध रहेगा क्योंकि हिन्दुओं के लिए भारत जमीन का एक टुकड़ा-मात्र नहीं है बल्कि अपनी माता से भी हजारों गुना बढ़कर भारतमाता है। जाहिर है कि जब हिन्दू भी एक वोट बैंक बन जाएंगे तभी जाकर उनको मान मिलेगा,उनके हितों को ध्यान में रखा जाएगा और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा भारत को लूट का चारागाह समझ लेने की गुस्ताखियों का अंत हो सकेगा। याद रखिए-यूनाईटेड वी स्टैंड,डिवाईडेड वी फॉल।