मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

कहीं यह कांग्रेस-केजरीवाल का फिक्स मैच तो नहीं?

मित्रों,अभी कुछ दिन जब अरविन्द केजरीवाल अपने कथित पूजनीय गुरू अन्ना हजारे पर कांग्रेस के हाथों की कठपुतली होने और दोनों के बीच सबकुछ पूर्वनिर्धारित होने का आरोप लगा रहे थे तब मैं यह सोंचने में लगा था कि कहीं कांग्रेस और केजरीवाल के बीच फिक्स मैच तो नहीं चल रहा है? वरना ऐसा न तो पहले देखा गया था और न ही सुना गया था कि कोई पार्टी उसी पार्टी की सरकार को बिना शर्त समर्थन दे जिसने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया हो और कांग्रेस जैसी धूर्त पार्टी ऐसा महामूर्खता तो बिना वजह के कर ही नहीं सकती।
                    मित्रों,जहाँ तक मुझे लगता है कि आप पार्टी कांग्रेस की प्रयोगशाला में तैयार तजुर्बा है जो मोदी रथ को रोकने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। याद कीजिए कि केजरीवाल को प्रमोट किसने किया-केंद्र की कांग्रेस सरकार ने। अन्ना हों या केजरीवाल दोनों ही कांग्रेस द्वारा फिक्स किए गए मैच को खेल रहे हैं। कहना न होगा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का आप पार्टी प्रयोग बेहद सफल रहा है। सत्ता का जाम भाजपा के होठों तक पहुँचते-पहुँचते दूर हो गया है। सोंचिए,कल्पना कीजिए कि अगर कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन देकर आप को सत्ता में आने का अवसर नहीं दिया होता तो क्या होता? तब केजरीवाल अभी तक मीडिया से सिरे से गायब हो चुके होते और यह चर्चा शुरू ही नहीं होती कि क्या केजरीवाल अब मोदी का रथ रोकेंगे? जाहिर है कि अगर दिल्ली विधानसभा की तरह ही लोकसभा चुनावों में भी त्रिशंकु की स्थिति बनती है तो सबसे ज्यादा संतोष कांग्रेस को होगा। चाहे मुख्यमंत्री केजरीवाल हों या शीला दीक्षित या फिर प्रधानमंत्री अरविन्द केजरीवाल हों या मनमोहन सोनिया गांधी परिवार को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण सहित अधिकांश मुद्दों पर आप और कांग्रेस की विचारधारा एक है। कांग्रेस को अगर नफरत है तो सिर्फ हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व से जिसके उभार को रोकने के लिए वो केजरीवाल तो क्या ड्रैकुला से भी हाथ मिला सकती है। जो मित्र केजरीवाल के बार-बार जनता के पास जाने और हर काम को जनता की ईच्छा बताकर करने को नई तरह की राजनीति की शुरुआत मान रहे हैं उनको मैं हिटलर का इतिहास पढ़ने की सलाह दूंगा जो केजरीवाल की ही तरह जनता की ईच्छा बताकर बुरे-से-बुरे काम को अंजाम दिया करता था। जनलोकप्रियता की राजनीति हमेशा अच्छा परिणाम नहीं देती बल्कि कई बार शासन को देश-प्रदेश के हित में जनाकांक्षाओं की अनदेखी भी करनी पड़ती है।
                               मित्रों,इस बीच आप पार्टी के नेताओं के सुर भी आरोपों और वादों को लेकर बदलने लगे हैं। पहले जहाँ ये स्वयंभू-स्वघोषित ईमानदार बिजली कंपनियों से कमीशन खाकर कांग्रेस सरकार पर बिजली के दर बढ़ाने के आरोप लगा रहे थे और यह दावा भी कर रहे थे कि वे बिजली कंपनियों का ऑडिट करवाएंगे और अगर जरूरी हुआ तो उनको हटाकर नई कंपनियों को राष्ट्रीय राजधानी में बिजली वितरण का ठेका देंगे अब सरकारी खजाने से सब्सिडी देकर बिजली बिल को आधा करने और प्रत्येक परिवार को 750 लीटर पानी मुफ्त में देने की बातें कर रहे हैं। मियाँ जब सब्सिडी देकर ही वादों को पूरा करना था जो कि एक छोटा-सा बच्चा भी कर सकता है तो फिर चुनाव से पहले हथेली पर दूब जमा देने के वादे किए ही क्यों थे? ये लोग फरमाते हैं कि जनता का पैसा जनता के ऊपर ही खर्च कर देंगे। मगर यह खर्च करना तो हुआ नहीं लुटा देना हुआ जो बाँकी दल पहले से ही टीवी-लैपटॉप-साईकिल जनता के बीच बाँटकर कर रहे हैं। क्या केजरीवाल एंड कंपनी यह बताएगी कि 36000 करोड़ रुपए के कुल वार्षिक बजटवाले दिल्ली राज्य के लिए वो 20-तीस हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी के लिए पैसे कहाँ से लाएगी? इस 36000 करोड़ रुपए में से भी कुछ राशि योजनागत व्यय के लिए होगी जिसमें से वे राशि डाईवर्ट कर नहीं सकते ऐसे में दिल्ली के विकास,नए निर्माण, मेंटनेंस और वेतन के लिए पैसा कहाँ से आएगा? ऐसे में लगता है कि आप पार्टी सरकार बनाने से पहले ही यानि परीक्षा शुरू होने से पहले ही अनुत्तीर्ण हो गई है। केजरीवाल जी चुनाव में मुद्दा बिजली-पानी था न कि यह कि मुख्यमंत्री या विधायकों-मंत्रियों को जेड श्रेणी की सुरक्षा और अन्य सुविधाएँ मिलनी चाहिए या नहीं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी एक साथ प्रकाशित)

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