सोमवार, 3 नवंबर 2014

तो क्या अब भारत के हिन्दू-मुस्लिम अलग-अलग मनाएंगे त्योहार?

3 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमने बचपन में अपनी पाठ्य-पुस्तक में कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी की एक कहानी जो सच्ची घटना पर आधारित थी पढ़ी थी। कहानी का नाम था सुभान खाँ। इस कहानी के सुभान खाँ धर्मनिष्ठ मुसलमान हैं और हज भी कर आए हैं। जब गांव के बहुसंख्यक मुसलमान सांप्रदायिक तनाव कायम होने के बाद मंदिर पर हमला करने और प्रतिमा-भंग करने की योजना बनाते हैं तो सुभान खाँ मंदिर के द्वार पर पाँव रोपकर खड़े हो जाते हैं और मुसलमानों को चुनौती देते हैं कि परवरदिगार के पाक घर में वे लोग तभी घुस पाएंगे जब अपनी तलवार से उनके सिर को धड़ से अलग कर देंगे। अंत में मुसलमान अपने कृत्य पर शर्मिंदा होकर वापस लौट जाते हैं।
मित्रों,इन दिनों भारत के सांस्कृतिक क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है उसे देश के भविष्य के लिए किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। सुभान खाँ कहानी की कथानक के विपरीत उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से उठी सांप्रदायिकता की आग अब दिल्ली को भी झुलसाने लगी है और जिसका ताजा परिणाम यह हुआ है कि इस बार दिल्ली के बवाना इलाके में मुहर्रम के जुलूस को हिन्दुओं के मुहल्लों से होकर नहीं गुजरने दिया जाएगा।
मित्रों,हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के विसर्जन के समय हम देखते हैं विसर्जकों पर अक्सर पथराव कर दिया जाता है तो कभी हिन्दू मंदिर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया जाता है। निश्चित रूप से मुसलमानों को कतई ऐसा नहीं करना चाहिए लेकिन बवाना के हिन्दुओं ने जिस तरह से मुहर्रम के जुलूस को अपने मुहल्लों में आने से रोकने का निर्णय लिया है उसे भी किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। भारत में सदियों से हिन्दू और मुसलमान एकसाथ रहते आ रहे हैं और एकसाथ पर्व-त्योहार भी मनाते आ रहे हैं। मुझे तो पहले महनार और अब हाजीपुर में रहते हुए कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुहर्रम सिर्फ मुसलमानों का त्योहार है फिर आज क्यों माँ के दूध में जहर घोला जा रहा है या घुलता जा रहा है? हमने तो बचपन से ही होली और मुहर्रम एकसाथ मनाए हैं और हमने तो कभी यह सोंचा भी नहीं था कि भारत में एक समय ऐसा भी आएगा जब होली पूरे भारत का त्योहार न होकर सिर्फ हिंदुओं का और मुहर्रम सिर्फ मुसलमानों का त्योहार बनकर रह जाएगा। चाहे वो हमारे पिताजी के मित्र जलाल साहब हों या अंसारी जी हमें तो कभी इस बात की भनक तक नहीं लगी कि वे लोग मुसलमान हैं और हमसे अलग हैं। महनार स्टेशन पर जब जलाल साहब रहते थे तो न जाने कितनी ही रातों को देर से ट्रेन से उतरने के बाद हमने चाची के हाथों का बना खाना खाया और वहीं पर ओसारे पर सो गया। होली में भी हमने अपने बाँकी बड़े-बुजुर्गों की ही तरह उनके पाँव पर भी अबीर रखे और आशीर्वाद लिया। ये लोग भी जब भी पिताजी से मिलते तो वालेकुमअस्सलाम नहीं कहते बल्कि हाथ जोड़कर प्रणाम करते। महनार में तो कई मुसलमान आज भी धोती पहनते हैं और मुरौवतपुर के मुसलमान जो पहले चकेयाज के उज्जैन राजपूत थे आज भी चकेयाज के राजपूतों से बेटियों की शादियों में न्योता चलाते हैं।
मित्रों,हमने माना कि मुजफ्फरनगर,मेरठ और मुरादाबाद में जो कुछ भी हुआ या सपा सरकार की शह पर किया-कराया गया वह गलत था लेकिन क्या हमें तनाव को कम करने के प्रयास नहीं करने चाहिए? क्या मुजफ्फरनगर की घटनाओं के पीछे बवाना के मुसलमानों का हाथ था? अगर नहीं तो फिर उनका बहिष्कार क्यों? मुजफ्फरनगर के पीड़ितों को निष्पक्ष रूप से न्याय मिलना ही चाहिए इससे भला कौन इंकार कर सकता है लेकिन क्या हमारे विभाजनकारी कदमों से हमें इंसाफ मिल जाएगा? बल्कि पूरे भारत के देशभक्त हिन्दुओं और मुसलमानों को आवश्यक तौर पर ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे भारत की एकता और अखंडता को मजबूती मिले। इस दिशा में हमें उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी के गोवध संबंधी बयान का स्वागत करना चाहिए और भारत के सभी मुसलमानों से हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि खाने के लिए बहुत सारी स्वादिष्ट और पौष्टिक खाद्य-सामग्री जब देश में मौजूद है तो फिर गो-मांस को लेकर जिद क्यों जबकि यह आपको भी पता है कि न केवल भारत के बहुसंख्यक समाज के गाय पूज्य है बल्कि खुद मोहम्मद साहब ने गो-मांस के सेवन को वर्जित बताया है।
मित्रों,भारत सदियों तक विश्वगुरू रहा है और उसने दुनिया को शून्य के अलावे भी बहुत-कुछ दिया है,मिलजुलकर शांति और प्रेम से जीने का सलीका सिखाया है। भारत को अगर सिर्फ स्वामी श्रद्धानंद जैसे हिन्दू चाहिए जो दिल्ली में हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए शहीद हो जाए तो भारत को एक भी लादेन या बगदादी जैसा मुसलमान भी नहीं चाहिए बल्कि 20 के बीस करोड़ सुभान खाँ चाहिए।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

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