मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

अन्ना हजारे देशभक्त हैं या देशद्रोही?

मित्रों,एक बार फिर से कथित गांधीवादी अन्ना हजारे जंतर मंतर पर धरना पर बैठे हुए हैं। उनका साथ महान धरनावादी नेता अरविंद केजरीवाल भी देने जा रहे हैं। कहने को तो अन्ना हजारे भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में धरना कर रहे हैं लेकिन वास्तव में धरने के पीछे की सच्चाई क्या है यह कोई नहीं जानता। क्या अन्ना निःस्वार्थ व्यक्ति हैं या धरना करना उनका पेशा है अर्थात् अन्ना पैसे लेकर धरना देते हैं? जिस तरह से अन्ना द्वारा पिछले सालों में किए गए अनशनों में जमा पैसों को ठिकाने लगा दिया गया और जिस तरह स्वामी अग्निवेश ने टीम अन्ना के अहम सदस्य अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाया था कि उन्होंने आईएसी के नाम पर मिलने वाले 80 लाख रुपये को अपने निजी ट्रस्ट में जमा कराया था को देखते हुए तो प्रथम दृष्ट्या यही प्रतीत हो रहा है कि अन्ना हजारे न केवल एक पेशेवर धरनेबाज और अनशनकर्ता है बल्कि वंदे मातरम् के नारे का दुरुपयोग करनेवाला देशद्रोही भी है,खद्दर की उजली धोती पहननेवाला बगुला भगत है। आईएसी के संस्थापकों में से एक अग्निवेश के मुताबिक केजरीवाल ने आईएसी के नाम से खाता खोलने में देरी की, जबकि कोर कमिटी ने आईएसी के नाम से खाता खोलने के कई बार निर्देश दिए। उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने आईएसी के नाम से खाता खोलने की बजाय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में प्राप्त दान को अपने निजी ट्रस्ट पब्लिस कॉज रिसर्च फाउंडेशन में जमा कराया।
मित्रों,क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जो व्यक्ति एक मंदिर में रहता हो और अपने-आपको सादगी की प्रतिमूर्ति कहता हो वो विशेष विमान से यात्रा करे और बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिलों के साथ चले। सवाल उठता है कि यह सादगी की प्रतिमूर्ति विमान-यात्रा और महंगे वाहनों से चलने के लिए पैसे कहाँ से लाता है? क्या इसके लिए उसको फोर्ड फाउंडेशन या फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान प्राप्त (अ)लाभकारी संस्थाओं या फिर आम आदमी पार्टी से पैसे मिले हैं? अन्ना ने घोषणा की थी कि उनके मंच पर कोई नेता नहीं आएगा फिर आप पार्टी से चुनाव लड़ चुकी मेधा पाटेकर उनके मंच से भाषण कैसे दे रही है? अन्ना अगर शुरू से अंत तक पूरी तरह से गैर राजनैतिक व्यक्तित्व रहे हैं तो फिर अरविंद केजरीवाल उनसे मिलने महाराष्ट्र सदन क्यों गए थे? 22 फरवरी को अन्ना ने कहा कि केजरीवाल का मंच पर स्वागत है फिर कल कहा कि वे केजरीवाल को मंच पर नहीं आने देंगे जबकि मनीष सिसोदिया का दावा है कि केजरीवाल अन्ना के साथ मंच साझा करेंगे। आखिर यह कैसा गड़बड़झाला है? अन्ना और केजरीवाल के संबंधों पर तो यही कहा जा सकता है कि खुली पलक पर झूठा गुस्सा बंद पलक में प्यार?
मित्रों,जिस तरह अन्ना ने आंदोलन शुरू किया था और जिस तरह यह आंदोलन आगे बढ़ा और जिस तरह से आंदोलन के दौरान किरण बेदी को बदनाम कर केजरीवाल को महिमामंडित किया गया इस पूरे घटनाक्रम को देखकर बहुत ही आसानी से यह समझा जा सकता है कि अन्ना+टीम केजरीवाल का आंदोलन शुरू से ही एक राजनैतिक आंदोलन था और छिपे हुए राजनैतिक और भारत-विरोधी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आयोजित किया गया था जिसकी डोर कहीं दूर सात समंदर पार फोर्ड फाउंडेशन के हाथों में थी। ओबामा द्वारा सोनिया गांधी से मुलाकात और उसके बाद उनका धार्मिक सद्भाव पर प्रवचन देना कहीं-न-कहीं इस बात का इशारा कर रहा है कि अमेरिका भीतर-ही-भीतर मोदी सरकार से खुश नहीं है और नरेंद्र मोदी से उनकी नजदीकी स्वाभाविक नहीं बल्कि मजबूरी है।
मित्रों,सवाल उठता है कि धरना पर बैठे अन्ना के ईर्द-गिर्द कौन-से लोग हैं? क्या ये लोग भारत का विकास चाहते हैं,या ये लोग चाहते हैं कि भारत की ऊर्जा जरुरतों को पूरा किया जाए,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत विकास के मामले में दुनिया का सिरमौर बने,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत की सैन्य ताकत के मामले में इतना आत्मनिर्भर हो जाए कि दुनिया का कोई भी देश उसको आँखें न दिखाए,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन का स्थान ले ले और दुनिया की फैक्ट्री बने,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत की युवाशक्ति को अभिशाप से वरदान में बदल दिया जाए और दुनिया के दूसरे देशों के लोग उसी तरह भारत आने को लालायित हों जिस तरह आज भारतीय अमेरिका जाने का सपना देखते हैं,क्या ये लोग चाहते हैं कि सारी सरकारी सुविधा लोगों को मोबाईल पर ही प्राप्त हो जाए,क्या ये लोग चाहते हैं कि पूरे भारत में विश्वस्तरीय सड़कों का जाल बिछे,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत के हर खेत को पानी मिले,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारतीय रेल लेटलतीफी के लिए कुख्यात होने के बजाए अपनी रफ्तार के लिए जानी जाए,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत में सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हो,क्या ये लोग चाहते हैं कि भारत की जीडीपी 2 ट्रिलियन डॉलर के बजाए 20 ट्रिलियन डॉलर हो जाए? इन सारे सवालों का बस एक ही उत्तर है नहीं,बिल्कुल भी नहीं। बल्कि अन्ना और उनके साथ धरना देने वाले संगठन और संगठनों के लोग यह चाहते हैं कि भारत हमेशा साँपों और सँपेरों का देश ही बना रहे,भारत का बिजली-उत्पादन इसी तरह जरुरत से काफी कम पर बना रहे,युवाशक्ति के हाथों में कलम या कंप्यूटर का माऊस नहीं हो बल्कि बंदूकें हों,भारत दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बनने के बदले सबसे बड़ा आयातक बना रहे।
मित्रों,जहाँ तक भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का प्रश्न है तो अभी तक यह सिर्फ एक अध्यादेश है। इस पर विधेय़क आएगा,उस पर संसद में विचार होगा और तब तमाम संशोधनों के बाद वह कानून का रूप लेगा। मतलब कि अभी तो उबलते हुए पानी में चावल डाला तक नहीं गया है और अन्ना भात जल गया,भात जल गया चिल्लाने लगे हैं। फिर केंद्र सरकार बार-बार यह कह रही है कि वो इस मामले पर सदन में खुले दिमाग से चर्चा करवाएगी फिर अन्ना को धरने पर बैठने की जल्दी क्यों थी? केंद्र सरकार न तो भूमि अधिग्रहण को इतना आसान बनाना चाहती है कि कोई सरकार जब चाहे तब किसी किसान की जमीन छीन ले और न ही इतना कठिन कि विकास के कार्यों के लिए जमीन प्राप्त करना सर्वथा असंभव ही हो जाए फिर अन्ना को परेशानी क्या है? विदेशों से जो कंपनियाँ भारत में कारखाना खोलने के लिए आएंगी क्या वो हवा में कारखाने खोलेगी? केजरीवाल सरकार जब विद्युत तापघर स्थापित करेगी तो क्या वो जमीन के बदले आसमान में स्थापित करेगी? नए स्कूलों और नए महाविद्यालयों को हवा में बनाया जाएगा? केंद्र सरकार तो खुद ही कह रही है कि किसानों का हित उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है और इस दिशा में भूमि स्वास्थ्य कार्ड,प्रधानमंत्री सिंचाई योजना जैसे तरह-तरह के इंतजाम भी कर रही है फिर अन्ना हजारों को धरना पर बैठने की जल्दीबाजी क्यों थी या है? जब केजरीवाल सरकार को वादों को पूरा करने के लिए पूरा 5 साल चाहिए तो मोदी सरकार को 5 साल क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? मोदी सरकार ने कोयले की लगभग पूरी रायल्टी राज्य सरकारों को दे दी,कोयला खानों की पारदर्शी नीलामी करवाई,2 जी स्पेक्ट्रमों की पारदर्शी नीलामी करवाने जा रही है,सारी सब्सिडियों को सीधे गरीबों के खातों तक पहुँचाने की व्यवस्था करने जा रही है,केंद्रीय मंत्रालयों में रोजाना कारपोरेट चूहों की धरपकड़ हो रही है,अंबानी पर जुर्माना हो रहा है,बंगाल से लेकर केरल तक के घोटालेबाज-हत्यारे राजनेताओं को जेल भेजा जा रहा है,सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सांसदों और विधायकों पर चल रहे आपराधिक कांडों का स्पीडी ट्रायल करवाया जा रहा है। ऐसे में क्या अन्ना अंधे हैं या फिर उनका मोदी विरोध विपक्षी दलों की तरह सिर्फ विरोध के लिए विरोध नहीं है?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

मांझी प्रकरण में गलती किसकी,मांझी,भाजपा या नीतीश की?

मित्रों,बिहार की राजनीति के मांझी कांड का आज अंत हो गया। अब इस नाटक को ट्रेजडी कहा जाए या कॉमेडी इस बात का निर्णय करना उतना ही मुश्किल है जितना इस बात का फैसला करना कि नीतीश राज ज्यादा बुरा था या मांझी राज। खैर जो नहीं होना चाहिए था वो तो हो चुका है अब आगे यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा कि सुशासन बाबू किस तरह फिर से कथित सुशासन की स्थापना करते हैं क्योंकि मेरी राय में जबसे नीतीश कुमार ने भाजपाई मंत्रियों को सरकार से अलग किया है तभी से सुशासन की गाड़ी बेपटरी है।
मित्रों,मांझी जी ने इस्तीफा तो दे दिया है लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने और हटने के घटनाक्रम ने कई अहम सवालों को जन्म दिया है। पहला सवाल तो यही है कि क्या नीतीश कुमार जी ने इस्तीफा देकर सही किया था। हमने तब भी यही कहा था कि नीतीश कुमार को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था और अगर इस्तीफा देना ही था तो नए चुनाव करवाने चाहिए थे क्योंकि जनता ने उनको जो मत दिया था वह अकेले उनको नहीं था बल्कि जदयू-भाजपा गठबंधन को था। फिर उनको अपने बदले किसी और को मुख्यमंत्री बनाने अधिकार किसने दे दिया?
मित्रों,जहाँ तक मांझी जी के कामकाज करने के तरीके का सवाल है तो यह तो निश्चित है नीतीश कुमार ने मांझी को समझने में ठीक वैसे ही भूल कर दी जैसी भूल भाजपा ने खुद नीतीश के मामले में की थी। मांझी को पहले दिन से ही ठीक से काम नहीं करने दिया गया यह बात और है मांझी को काम करना आता भी नहीं था। मांझी लगातार उटपटांग बयान देते रहे जिससे पार्टी की जगहँसाई भी होती रही। धीरे-धीरे मांझी ने रिमोट के आदेश को मानना बंद कर दिया और मंत्रिमंडल में शामिल कई मंत्रियों को अपने पक्ष में कर लिया लेकिन वे यह भूल गए कि विधानसभा में वास्तविक शक्ति तो विधानसभा अध्यक्ष के पास होती है जो अब भी नीतीश कुमार के पाले में ही थे।
मित्रों,यद्यपि बिहार के दलित-महादलित मांझी सरकार के पराभव से उद्वेलित तो हैं लेकिन अब देखना यह है कि मांझी नई पार्टी बनाकर उनके गुस्से को कितना भुना पाते हैं। वैसे अभी भी चुनावों में 8 महीना बाँकी है और नीतीश कुमार निश्चित रूप से इस समय का भरपुर सदुपयोग करनेवाले हैं। वे दलितों-महादलितों सहित सभी जातियों और वर्गों के लिए नई-नई घोषणाओं की झड़ी लगानेवाले हैं जिसका असर होना भी निश्चित है।
मित्रों,जहाँ तक भाजपा की संभावनाओं का सवाल है तो आगामी चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि नीतीश कुमार कहाँ तक जंगल राज को मंगल राज में बदल पाते हैं। वैसे भाजपा को मांझी का समर्थन करने से अलावे और विकल्प ढूँढ़ने चाहिए थे क्योंकि जबतक मांझी-नीतीश में गहरी छनती रही तबतक भाजपा की निगाहों में मांझी निहायत अयोग्य शासक थे और जैसे नहीं मांझी ने विद्रोह किया तो वही मांझी अच्छे हो गए?
मित्रों,लगता है कि भाजपा ने दिल्ली की हार से कोई सबक नहीं लिया है। भाजपा को अब से भी सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि बिहार में भी उसको वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ सकता है जैसी स्थिति दिल्ली में थी। बिहार में भी हिन्दू बँटे हुए हैं और मुसलमान एकजुट। इसलिए भाजपा को सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए काफी सोंच-समझकर कदम उठाने होंगे। साथ ही,केंद्र की मोदी सरकार को काफी तेज गति से इस तरह के काम करने होंगे जिनका असर दूरदराज के गांवों तक में आसानी से दिखाई दे। दिल्ली से लेकर गांवों तक में भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार करना होगा,शासन-प्रशासन को ज्यादा-से-ज्यादा पारदर्शी और सूचना-प्रोद्योगिकी आधारित करना होगा,शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार लाना होगा और मेक इन इंडिया में बिहार भी लाभान्वित हो यह सुनिश्चित करना होगा क्योंकि बिहार की सबसे बड़ी समस्या आज भी बिहार में बिहारियों को रोजगार का नहीं मिलना है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

न मोदी नेपोलियन हैं और न दिल्ली वाटरलू


13 फरवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,10 फरवरी को दिल्ली में भाजपा को मिला करारी हार के बाद से ही मीडिया का एक हिस्सा दिल्ली को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए वाटरलू बताने में जुटा हुआ है जबकि वास्तविकता ऐसी है नहीं। नेपोलियन तलवार और बंदूकों के बल पर यूरोप को जीतना चाहता था जबकि नरेंद्र मोदी अपने अच्छे कामों से भारतीयों का दिल जीतना चाहते हैं। यहाँ संघर्ष जमीन जीतने के लिए नहीं बल्कि दिल जीतने के लिए हो रहा था और वास्तव में दिल्ली की हार मोदी की हार नहीं बल्कि खुद भारतीयों की हार है।
मित्रों,दिल्ली के चुनाव परिणामों का अगर हम विश्लेषण करें तो आसानी से यह समझ सकते हैं कि कैसे मुट्ठीभर अंग्रेजों ने विशालकाय भारत पर कब्जा कर लिया था। इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने दक्षिण में निजाम और मराठों को बारी-बारी से लालच देकर आपस में ही लड़वाया और वे अंग्रेजों की चाल को समझ ही नहीं सके। इसी तरह अंग्रेजों ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला,बंगाल के सेनापति मीरजाफर को भी लालच देकर अपना उल्लू सीधा किया और जब मतलब निकल गया तब दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया। कभी निजाम का पक्ष लेकर मराठों को हराया तो कभी मराठों को साथ में लेकर निजाम को। इसी तरह इतिहास बताता है कि जब ग्वालियर के किले में रहकर रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लोहा ले रही थी तब उनके किले के किसी द्वारपाल ने सिर्फ एक सोने की ईट के बदले 16-17 जून 1858 की आधी रात को किले के द्वार को खोल दिया था फिर अंजाम जो हुआ उसे सारी दुनिया जानती है।
मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है लालच हम भारतीयों के खून में है और उसी गंदे खून का दुष्परिणाम है दिल्ली का चुनाव-परिणाम। किसी ने एक लैपटॉप,एक साईकिल या एक मिक्सी दे दिया तो हम बिना यह देखे-परखे कि वह कैसा आदमी है उसे अपना राज्य अपना सबकुछ सौंप देते हैं। दिल्ली में भी वही हुआ जो अब तक यूपी,बिहार और तमिलनाडु में होता आ रहा था। दिल्ली में हमने यह नहीं देखा कि 40 हजार करोड़ रुपये के बजट वाली दिल्ली के लिए कोई व्यक्ति या पार्टी कैसे 15 लाख करोड़ रुपये के वादे कर रहा है? हमने यह भी नहीं देखा कि पिछली बार उस व्यक्ति या पार्टी ने कितने वादों को पूरा किया था?
मित्रों,अभी तो दिल्ली में मुख्यमंत्री का शपथ-ग्रहण भी नहीं हुआ है और स्वंघोषित एकमात्र सत्यवादी जी की पार्टी ने गीता,बाईबिल और कुरान से भी ज्यादा पवित्र अपने घोषणा-पत्र से पलटना शुरू भी कर दिया है। उसने घोषित कर दिया है कि दिल्ली में सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर ही मुफ्त वाई-फाई की सुविधा मिलेगी। वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिए और उसमें भी फेसबुक आदि सोशल वेबसाईटों पर प्रतिबंध रहेगा। लो कल्लो बात। फिर फ्री के वाई-फाई का हम क्या अँचार डालेंगे? इतना ही नहीं कथित आम आदमियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि हम वादों को तभी पूरा कर सकेंगे जब केंद्र सरकार हमें पर्याप्त आर्थिक सहायता देगी। तो फिर इन लोगों ने घोषणा-पत्र में इस बात की घोषणा क्यों नहीं की कि हम वर्णित घोषणाओं और वादों को तभी पूरा करेंगे जब केंद्र सरकार पैसे देगी? घोषणा-पत्र में अगर यह लिखा गया था कि मुफ्त वाई-फाई,मुफ्त पानी,झुग्गी के स्थान पर मकान और सस्ती बिजली में नियम और शर्तें लागू होंगी तो फिर अखबारों में क्यों नहीं वादों के साथ-साथ उन नियमों और शर्तों को प्रमुखता से छपवाया गया? क्यों नियमों और शर्तों को जनता से छिपाया गया? अभी एक और खबर आई है कि सस्ती बिजली और फ्री में पानी देने के लिए नई सरकार के पास विकास की राशि को सब्सिडी के रूप में बर्बाद करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। अगर हर राज्य में इसी तरह होता रहा और हो भी रहा है तो फिर कहाँ से आएगी विकास के लिए राशि और कैसे होगा देश का विकास?
मित्रों,ठगों को तो ठगी करनी ही थी अगर उन्होंने ठगी की तो इसमें उनका क्या दोष? दोष तो उनका है जिनका कबीर के इस 600 साल पुराने दोहे में आज भी अटूट विश्वास है कि कबिरा आप ठगाईए और न ठगिए कोए। आप ठगे सुख उपजै और ठगे दुःख होए।। तो ठगाते रहिए और सदियों तक लंगोट में फाग खेलकर चरम सुख का अनुभव करते रहिए। आप यकीनन देश के दुश्मनों द्वारा अभी दिल्ली में ठगे गए हैं,कल बिहार,परसों पश्चिम बंगाल और तरसों उत्तर प्रदेश में ठगे जाएंगे और इस तरह लगातार अपने लिए सुख उपजाते रहेंगे। मेरा यह पूरा आलेख विशेष तौर पर भारत के हिन्दुओं के लिए है। मुसलमानों का तो फिक्स है कि वे किसको वोट करेंगे फिर चाहे कोई कितने भी लैपटॉप,साईकिल क्यों न दे दे लेकिन दुनिया के सबसे पुराने धर्म के अनुयायियों का कोई ईमान-धर्म है क्या? फिर कोई दल या नेता क्यों इनके हित की बात करेगा,क्यों इनकी भलाई के लिए लड़ेगा?
मित्रों,शपथ-ग्रहण से पहले ही कथित आम आदमी कहने लगे हैं कि सोशल-साईट्सविहीन आधे घंटे के फ्री वाई-फाई के आने में कम-से-कम 6 महीने लग जाएंगे तो क्या नरेंद्र मोदी स्विटजरलैंड या जर्मनी के बाप लगते हैं जो उनके एकबार फोन घुमाते ही 10 दिन के भीतर ही सारा-का-सारा कालाधन देश में वापस आ जाएगा। मोदी को तो वह कोट जिसका मूल्य भले ही कितना भी हो उपहार में मिला था और मोदी हर साल जुलाई में उपहार में मिली वस्तुओं को नीलाम करके प्राप्त राशि को सरकारी खजाने में जमा करवा देते हैं। बाँकी के नेताओं में क्या कोई एक भी ऐसा है जो ऐसा करता हो? बाँकी के नेता तो जब सरकारी आवास को खाली करते हैं तो बल्ब और कुर्सियाँ तक उठाकर ऐसे ले जाते हैं जैसे उनके बाप का माल हो। अभी हाल ही में हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने जब अपना कार्यकाल पूरा किया तब अपने साथ देश-विदेश में मिले कीमती उपहारों को भी साथ ले गईँ जिनको बाद में भारत सरकार को पत्राचार कर वापस मंगवाना पड़ा। और ऐसी लुटेरी पार्टियों के लुटेरे नेता भारत के प्रधानमंत्री के शूट पर सवाल उठा रहे हैं? खुद तो इनलोगों ने 200 रुपये मीटर का कपड़ा पहनकर देश को हजारों करोड़ का चूना लगा दिया और सवाल उठा रहे हैं पीएम के शूट पर?
मित्रों,कल ही बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने स्वीकार किया है कि बिहार में जो पुल बनते हैं उनके पायों के निर्माण पर जितना खर्च होता है उससे कहीं ज्यादा तो कमीशन दे दिया जाता है और वह कमीशन मुख्यमंत्री तक पहुँचता है। उन्होंने यह भी माना है कि पुल 20 करोड़ में बन जाता है लेकिन बिल 200 करोड़ रुपये का बनाया जाता है। और जिस व्यक्ति ने इस सारी कमीशनखोरी पर केंद्र सरकार में पूर्ण विराम लगा दिया उसी से आज बेईमान ईमानदार पार्टियों के लोग शूट का दाम पूछ रहे हैं और जनता भी उनके झाँसे में आ जा रही है! सवा सौ साल पहले भारत-दुर्दशा लिखकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भारत की अंतरात्मा को जगाने का प्रयास किया था लेकिन भारत की अंतरात्मा तो आज तक भी सोयी हुई ही है। सवा सौ साल पहले की तरह आज भी हमारे लिए हमारी वरीयता सूची में हमारे स्वार्थों का स्थान सबसे ऊपर है और देशहित कहीं नहीं। आज भी हम दस-बीस हजार रुपये के फायदे के लिए अपने राज्य और देश को देश के घोषित-अघोषित दुश्मनों के हाथों में हर पाँच साल पर सहर्ष सौंप देते हैं। वो हमें बार-बार धोखा देते हैं और बार-बार माफी मांगते हैं और हम बार-बार माफ भी कर देते हैं। वो कभी हमें रोटी का लालच देते हैं तो कभी पानी का तो कभी लैपटॉप या साईकिल या मिक्सी का और तब हम भूल जाते हैं कि इनके हाथों में हमारे राज्य या देश का हित सुरक्षित रहेगा या नहीं। हम लालच में आकर अपना वोट बेच देते हैं और उनको मौका दे देते देश को बेचने का। कौन कहता है काठ की हाँड़ी एक बार ही आग पर चढ़ती है?  फिर सवा सौ करोड़ के भारत में एक व्यक्ति के लिए अगर नेशन फर्स्ट और लास्ट है तो होकर भी क्या कर लेगा???
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

जनता की नब्ज पहचानने में विफल रही भाजपा

10 फरवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,दिल्ली ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अश्वमेध के घोड़े को रोक लिया है। जीत जीत होती है और हार हार। फिर हार जब इतनी करारी हो तो सवाल उठना और भी लाजिमी हो जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं सच कहूंगा मगर फिर भी हार जाऊंगा, वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा? लेकिन ऐसा हो चुका है और भारत की राजधानी दिल्ली में हो चुका है। कभी 15वीं-16वीं शताब्दी में कबीर को भी जमाने से यही शिकायत थी कि साधो,देख ये जग बौराना।
साँच कहूँ तो मारन धावे,
झूठौ जग पतियाना,
साधो,देख लो जग बौराना।।
मित्रों,वजह चाहे जो भी हो हार तो हार होती है। मुझे लगता है दिल्ली में भाजपा अतिआत्मविश्वास की बीमारी से ग्रस्त हो गई थी। भाजपा जनता से कट गई थी। लोक और तंत्र के बीच संवादहीनता की स्थिति पैदा हो गई थी। भाजपा का प्रचार ऊपर से नीचे की ओर चल रहा था वहीं आप पार्टी का प्रचार सीधे नीचे से चल रहा था। उनके कार्यकर्ता लगातार लोगों से डोर-टू-डोर संपर्क कर रहे थे जो कि भाजपा नहीं कर रही थी। फिर भाजपा ने चुनावों में काफी देर भी कर दी। मेरे हिसाब से दिल्ली में चुनाव लोकसभा चुनावों के तुरन्त बाद करवा लेना चाहिए था। चुनावों में देरी ने कई तरह के अंदेशों और अफवाहों को हवा दी।
मित्रों,दूसरी जो वजह हार की है वो है दिल्ली भाजपा में सिर फुटौब्बल। भाजपा में ऐसा कम ही देखा जाता है कि प्रदेश अध्यक्ष का ही टिकट कट जाए और उनके समर्थक प्रदेश कार्यालय को घेर लें लेकिन ऐसा हुआ। उस पर भाजपा ने अपने पुराने कैडरों की उपेक्षा करते हुए किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना दिया जिससे पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं में निराशा उत्पन्ना हो गई। इतना ही नहीं पार्टी ने दूसरी पार्टी से आए हुए लोगों को सिर आँखों पर बिठाया जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जनता के बीच भी गलत संकेत गया।
मित्रों,तीसरी वजह यह रही कि पार्टी ने कई मुद्दों पर चुप्पी साधे रखी। नरेंद्र मोदी के शूट के मुद्दे पर पार्टी को तुरन्त बताना चाहिए था कि शूट गिफ्ट में मिली है और मोदी गिफ्ट में मिली चीजों की सालाना नीलामी करवाते हैं और प्राप्त राशि को सरकारी खजाने में जमा करवा देते हैं। इसी तरह पार्टी ने प्रत्येक भारतवासी के खाते में 15 लाख रुपये वाले जुमले पर भी चुप्पी साधे रखी।
मित्रों,चौथी वजह यह रही कि मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी में धैर्य और वक्तृता शक्ति की कमी। पूरे चुनाव अभियान के दौरान किरण बेदी जी राजनेता की तरह दिखी ही नहीं। हमेशा ऐसा लगता रहा कि उनके पास समय की कमी है। यहाँ तक कि टीवी चैनल वालों के लिए भी उनके पास समय नहीं था। अगर उनको टीवी पर बहस नहीं करनी थी तो उनको इसकी पहल भी नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि उनके बहस से पीछे हटने का जो संकेत जनता के बीच गया वह पार्टी के लिए काफी घातक रहा। किरण बेदी जी ने चुनाव प्रचार की शुरुआत ही विवाद से की लाला लाजपत राय की प्रतिमा को भाजपा का पट्टा पहनाकर।
मित्रों,पाँचवीं वजह यह रही कि भाजपा ने अपना विजन डॉक्यूमेंट लाने में काफी देर कर दी। उसके विजन डॉक्यूमेंट में अधिकतर वादे वही थे जो आप पार्टी के घोषणा-पत्र में पहले ही आ चुके थे।
मित्रों,छठी वजह यह रही कि दिल्ली सहित सारे देश में धीरे-धीरे जनता को लगने लगा है कि मोदी जी के केंद्र में आने के बावजूद ग्रास रूट लेवल पर स्थितियाँ कमोबेश वैसी ही और वही हैं जो 9 महीने पहले थीं। आज भी पुलिस भ्रष्ट है,नगर निगम भ्रष्ट हैं,चारों तरफ गंदगी है,भ्रष्टाचार है,बिजली और पानी की किल्लत है,न्याय विलंबित और बेहद खर्चीला है,शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति काफी खराब है,पंचायती राज भ्रष्टाचार के विकेंद्रीकरण के प्रतीक बने हुए हैं,जनवितरण प्रणाली में व्यापक भ्रष्टाचार है आदि-आदि।
मित्रों,सातवीं वजह यह रही कि आज भी भारत की जनता मुफ्तखोर है। उसको हर चीज मुफ्त में चाहिए भले ही इसके लिए देश के विकास के रथ को रोकना ही क्यों न पड़े। उसको इस बात से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि कौन सी पार्टी देशभक्त है और कौन सी पार्टी देश विरोधी। यहाँ यह ध्यान देनेवाली बात है कि दिल्ली का वार्षिक बजट मात्र 40,000 करोड़ रुपये का होता है वही आप पार्टी ने 15 लाख करोड़ रुपये के वादे दिल्ली की जनता से कर दिए हैं। जाहिर है कि भविष्य में यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि वे इन वादों को कैसे पूरा करते हैं। या फिर से पैसों की मांग के लिए धरने पर बैठ जाते हैं। सबसे ज्यादा दिलचस्प यह देखना होगा कि पूरी दिल्ली में कबसे मुफ्त में वाई-फाई की सुविधा शुरू की जाती है और कब दिल्ली में 15 लाख सीसीटीवी कैमरे लगाए जाते हैं। क्योंकि दिल्ली के ज्यादातर युवा फ्री वाई-फाई के लालच में आ गए।
मित्रों,आठवीं वजह यह रही कि कांग्रेस का पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी ले उड़ी। वोट प्रतिशत के मामले में भाजपा इस बार भी वहीं है जहाँ 2013 में थी। अगर भाजपा ने जमीनी स्तर पर घर-घर जाकर चुनाव प्रचार किया होता तो निश्चित रूप से कांग्रेस के वोट बैंक में उसको भी हिस्सा मिलता लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई जिसका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है।
मित्रों,नौवीं वजह यह रही कि मोदी सरकार ने भले ही डीजल के दाम कितने भी कम क्यों न कर दिए हों उसका व्यापक असर महंगाई पर दिख नहीं रहा क्योंकि न तो बसों-टेम्पो के भाड़े ही कम हुए और न ही ट्रकों के।
मित्रों,नौवीं वजह यह रही कि भाजपा की तरफ से घर-वापसी आदि को लेकर लगातार उटपटांग बयान आते रहे। खुद नरेंद्र मोदी के दिल्ली में दिए गए चारों भाषण भी निर्विवाद नहीं रहे। भाग्यवान और अभागा जैसे जुमले सिर्फ और सिर्फ दंभ और अभिमान के परिचायक रहे। मोदी केजरीवाल को निगेटिव कहते रहे लेकिन कहीँ-न-कहीं उनका खुद का भाषण ही निगेटिव हो गया। उनको आप पार्टी की आलोचना करने के बजाए यह बताना चाहिए था कि वे दिल्ली के लिए क्या-क्या करना चाहते हैं। उनको नौ महीने में दिल्ली नगर निगम की स्थिति को सुधारना चाहिए था। फिर योगी आदित्यनाथ ने तो हद ही कर दी यह कहकर कि वे देश की प्रत्येक मस्जिद में गौरी-गणेश की प्रतिमा स्थापित करवा देंगे। कुल मिलाकर निश्चित रूप से भाजपा ने कई गलतियाँ कीं और उन गलतियों का खामियाजा उसे भुगतना ही था। देश की जनता निश्चित रूप से मोदी सरकार के काम करने की रफ्तार से संतुष्ट नहीं है। उसको और भी तेज रफ्तार में काम चाहिए और ऐसे काम चाहिए जो जमीनी स्तर पर आसानी से दिखाई दें। उसको भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए,त्वरित न्याय चाहिए,सफाई चाहिए,अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधा चाहिए,रोजगार चाहिए आदि-आदि।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)