मंगलवार, 29 मार्च 2016

बर्बाद हो रहा बिहार है,नीतीशे कुमार है

मित्रों, कभी-कभी नारों का जादू जनता के सर पर इस कदर चढ़कर बोलता है जनता भले-बुरे की पहचान करने की क्षमता भी खो देती है. जनता यह भी भूल जाती है कि जब वही व्यक्ति १० साल में बहार नहीं ला पाया तो अब ५ साल में कहाँ से ला देगा? जनता यह भी भूल जाती है कि पूरे भारत में भ्रष्टाचार और कुशासन के प्रतीक बन चुके व्यक्ति की गोद में बैठकर कोई कैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ सकता है और सुशासन की स्थापना कर सकता है?
मित्रों,परिणाम सामने है.बिहार में फिर से नीतीश कुमार है लेकिन बर्बाद हो रहा बिहार है.आज के बिहार में (नवादा में पांच परमेश्वरों द्वारा लगाई गयी रेप की कीमत ) महिलाओं की ईज़्ज़त की कीमत मात्र २००० रु. रह गई है,रेप के आरोपी विधायक को पुलिस गिरफ्तार नहीं करती बल्कि वो खुद ही पंडित से दिन दिखाकर आत्मसमर्पण करता है. इतना ही नहीं वो जेल में भी ठाठ से रहता है,होली के दिन नवादा जेल के सभी कैदियों को अपनी तरफ से मीट का महाभोज देता है और जेल मैन्युअल की ऐसी की तैसी किये रहता है. जब तक वो कृपा करके कथित समर्पण नहीं करता कोरे नारों के माध्यम से बिहार में बहार लाने का दावा करनेवाले नीतीश जी कहते हैं कि उसको बख्शा नहीं जाएगा और उसके खिलाफ फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में मुकदमा चलाया जाएगा लेकिन जब वो जेल पहुँचता है तो पूरा जेल प्रशासन उसके साथ इस तरह के व्यवहार करते हैं जैसे वो घोषित तौर पर सरकारी दामाद हो.
मित्रों,जबसे राजबल्लभ जेल में पधारे हैं पता नहीं नीतीश जी का फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट कहाँ चला गया है? डर लगता है कि कहीं नीतीश जी के सात महान जुमलों (कथित निश्चयों) की तरह यह भी एक जुमला तो नहीं? नीतीश जी ने अपने ७ जुमलों को ही सरकारी नीति बना दी है.  इसको पूरा करने के लिए १ बिहार मिशन नामक विभाग बना दिया है और इसको सारे मंत्रियों और अधिकारियों के ऊपर बिठा दिया है. सवाल उठता है कि फिर भारी-भरकम मंत्रिमंडल की जरुरत ही क्या है? सवाल यह भी उठता है कि जिस बिहार की ९९.९  प्रतिशत जनता नीतीश के १० साल के शासन के बावजूद पानी के नाम पर जहर पी रही है उसको अगले ४.५ सालों में नीतीश कैसे शुद्ध पेयजल मुहैया करवा देंगे? यह १ निश्चय ही वे शर्तिया पूरा नहीं कर पाएंगे फिर बाँकी के ६ के १ प्रतिशत भी पूरा होने की बात दूर ही रही (चित्र में देखें ७ निश्चय ).
मित्रों,खैर,ये तो हुई उन जुमला कुमार जी के ७ महान जुमलों की बात जिनका २०१४ -१५ का बजट ही जुमला साबित हो चुका है लेकिन बिहार के लिए सबसे दुःखद पहलु यह है कि नीतीश कुमार को बिहार के समक्ष आ चुकी सबसे बड़ी समस्या दिख ही नहीं रही,उसे जुमलों में भी शामिल नहीं किया गया है. वो समस्या है जलवायु परिवर्तन के कारण बिहार का राजस्थान में बदल जाना।  बिहार में कई सालों से सूखे जैसी स्थिति है,भूगर्भीय जलस्तर ५० फ़ीट तक नीचे जा चुका है. बिहार की खेती जो बिहार की जान है बर्बादी के कगार पर है और नीतीश जी प्रधानमंत्री सिंचाई योजना से युद्धस्तर पर लाभ उठाने के बदले अभी भी चुनावी मोड में हैं और आरोप-आरोप का गन्दा खेल खेल रहे हैं. जागिए प्रभु और बिहार की खेती को बचाईये यानि बिहार को बचाईये। जबकि जमीन के अंदर पानी ही नहीं रहेगा तो हर घर को सप्लाई क्या करेंगे? मतलब नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या? अगर आपको बिहार से किंचित मात्र भी प्यार है तो बिहार को  बचाईये,बिहार को बचा लीजिए। प्रधानमंत्री सिंचाई योजना में कोई कमी है तो केंद्र को बताईये,मिल-जुलकर नए बिहार का निर्माण करिए. अगर मिल-जुलकर बिहार को लूटना है तब तो कोई बात नहीं,तब तो आपके पास लालू प्रसाद एन्ड फैमिली है ही.

रविवार, 27 मार्च 2016

डॉ. नारंग की हत्या के सबक


मित्रों,हमने कई महीने पहले एक आलेख में लिखा था कि भारत की भ्रष्ट मीडिया के लिए सांप्रदायिक हिंसा तभी होती है जब मरनेवाला मुसलमान और मारनेवाला हिंदू होता है। इसके उलट जब हिंदू को मुसलमान मारता है तो धर्मनिरपेक्ष हिंसा सांप्रदायिक हिंसा न भवति। जब एक केंद्रशासित प्रदेश का अघोषित देशद्रोही मुख्यमंत्री 250 करोड़ सालाना मीडिया में बाँटेगा तो फिर बिकाऊ वेश्या मीडिया की नीयत तो खराब होगी ही।
मित्रों,लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति आई ही क्यों? क्यों आज कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उनकी भजभज मंडली मीडिया की नजर में हिंदुओं की जान की कोई कीमत नहीं है जबकि हिंदुओं की आबादी 80 प्रतिशत है? क्या इसके लिए स्वयं हिंदू भी या हिंदू ही जिम्मेदार नहीं हैं? एक बेवजह के विवाद में कुछ दर्जन लोग आते हैं और एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की हत्या करके चले जाते हैं। जब डॉक्टर की हत्या हो रही थी तब उसके पड़ोसी कहाँ थे? क्यों कोई डॉक्टर को बचाने के लिए घर से बाहर नहीं निकला?
मित्रों,यह एक कटु सच्चाई है कि आज हिंदू अपने घर में हथियार नहीं रखता। अगर घर में कोई साँप भी घुस आए तो उसको मारने के लिए घर में लाठी तक नहीं होती। अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत ने हिंदुओं को निर्बल बना कर रख दिया है। लेकिन इसी श्लोक में आगे यह भी कहा गया है कि धर्म हिंसा तथैव च अर्थात अहिंसा परम धर्म है परन्तु हिंसा का, धर्म के अनुसार प्रतिकार करना भी उतना ही परम धर्म है। मैं यह नहीं कहता कि हिंदुओं को कानून का उल्लंघन करके अवैध हथियार रखने चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि 50 लाख की संपत्ति अर्जित कर ली और उसकी रक्षा के लिए 50 हजार का लाइसेंसी हथियार भी नहीं खरीदा और सरकार के भरोसे पड़े हैं। यह तो फिर दैव दैव आलसी पुकारा सदृश बात हो गई जिसकी बात सवा सौ साल पहले भारतीयों के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारत दुर्दशा में की थी।
मित्रों,यह कटु सच्चाई है कि सरकार चाहे किसी की भी हो वो तो वोट बैंक देखकर ही काम करेगी और हिंदू वोट बैंक तो हैं नहीं। हिंदू तो जाट हैं,दलित है,क्षत्रिय हैं,ब्राह्मण हैं,कोयरी हैं,कुर्मी हैं,दलित हैं,यादव आदि आदि आदि हैं लेकिन हिंदू नहीं हैं। इससे भी आगे हिंदू लालची हैं जो साल में कुछ सौ रुपये के मुफ्त के बिजली-पानी के लिए अपना वोट देश के दुश्मनों से मिलीभगत रखनेवाले तत्त्वों को भी दे देते हैं। क्या कारण है कि जो अरविंद केजरीवाल दादरी और हैदराबाद जाने में तनिक भी देरी नहीं लगाता वही अपने ही राज्य में कथित असांप्रदायिक गुंडों द्वारा निहायत निर्दोष की बेवजह हत्या हो जाने पर अपने घर से 5 किमी दूर जहाँ कि वो एक घंटे में पैदल भी जा सकता है जाने की जहमत भी नहीं उठाता?
मित्रों,आज एक भाजपा को छोड़कर कोई भी दल ऐसा नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर खुलकर हिंदू हितों की बात करता हो जबकि ऐसे दलों की एक लंबी सूची है जो मुसलमानों के सही-गलत सारे कृत्यों का पृष्ठपोषण करते हैं और दिन-रात मुसलमान-मुसलमान की रट लगाए रहते हैं। आगे कई राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं लेकिन ऐसा लगता नहीं कि एक नारंग की हत्या हो जाने से पूरा हिंदू समाज अखिल भारतीय स्तर पर जागृत और एकजुट हो जाएगा। सतर्क रहिए,सावधान रहिए क्योंकि हो सकता है दुर्घटनावश डॉ. नारंग के बाद आपकी ही बारी आ जाए।

शनिवार, 26 मार्च 2016

प्रशांत किशोर,ए स्प्यॉल्ड जीनियस

मित्रों,अगर आपने विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस नाटक पढ़ा होगा तो देखा होगा कि उसमें दो पक्ष हैं-एक का नेतृत्व चंद्रगुप्त मौर्य के हाथों में है और दूसरे की बागडोर है घनानंद के हाथों में। दोनों के पास एक-एक महान रणनीतिकार है चंद्रगुप्त के लिए चाणक्य सारी योजनाएँ बनाते हैं तो घनानंद के लिए मुद्राराक्षस रणनीति बनाते हैं। यद्यपि मुद्राराक्षस भी महान राजनीतिज्ञ है लेकिन वह अन्यायी का साथ दे रहा है,एक ऐसे राजा का साथ दे रहा है जिसका उद्देश्य भोग-विलास मात्र है तो वहीं चाणक्य और चंद्रगुप्त महान उद्देश्य की प्राप्त के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं। वे दोनों माँ भारती का विदेशी आक्रांताओं से उद्धार और अखंड भारत की स्थापना करना चाहते हैं। अंत में जीत चाणक्य और चंद्रगुप्त की होती है और घनानंद मृत्यु को प्राप्त होता है।
मित्रों,अगर हम वर्तमान भारत के परिदृश्य को देखें तो कुछ वैसी ही स्थिति देखने को मिलेगी जो 2500 साल पहले थी। आज एक तरफ तो नरेंद्र मोदी हैं जो माँ भारती का उद्धार करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे तमाम प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो वर्षों से देश को लूटती आ रही हैं।
एक तरफ नरेंद्र मोदी खुद ही अपनी रणनीतियाँ बना रहे हैं तो प्रतिगामी घनानंद सदृश शक्तियों को सहारा है महान रणनीतिकार प्रशांत किशोर का। निश्चित रूप से प्रशांत अपने काम में गजब के माहिर हैं और उन्होंने बिहार के चुनावों में इसको साबित भी किया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या प्रशांत जो कर रहे हैं वह देशहित में है? महान तो शुक्राचार्य भी थे,रावण भी था लेकिन वे लोग पूज्य तो नहीं हैं। क्यों? क्योंकि उनके कृत्य समाजविरोधी,धर्मविरोधी थे।
मित्रों,हम मानते हैं कि हमारे लिए भी पैसा बहुत बड़ी चीज है लेकिन पैसा न तो कभी सबकुछ रहा है और न ही हो सकता है। प्रशांत को कदाचित पैसे के साथ-साथ शुक्राचार्य की तरह पावर भी चाहिए था जो दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री बनने से मिल भी गया है। परंतु इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद सवाल उठता है प्रशांत जो कुछ भी कर रहे हैं उससे देश का भला होगा? अगर भला नहीं होगा तो फिर उनको क्या कहा जाए? क्यों उनकी तुलना रावण या शुक्राचार्य से नहीं होनी चाहिए? अगर उनकी अंतरात्मा मानसिंह की अंतरात्मा की तरह उनको नहीं धिक्कारती है तो क्या यह देशभक्त प्रबुद्ध लोगों का कर्तव्य नहीं है कि उनकी निंदा करे और उनको आत्मावलोकन के लिए बाध्य करने का प्रयास करे? आखिर अपना भारत आज भी घास की रोटी खाकर देश के लिए लड़नेवाले प्रताप की ही पूजा करता है न कि सोने-चांदी की थाली में छप्पन भोग खानेवाले मानसिंह की।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

महापुरुषों का चरित्र-हनन कांग्रेस के नैतिक पतन की पराकाष्ठा

मित्रों,किसी शायर ने लिखा है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,वतन पे मरनेवालों का यही बांकी निशां होगा। लेकिन हमारी राजनैतिक पार्टियों का इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि शहीदों और महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के बजाए वे उनका ही चरित्र-हनन करने लगी हैं और जब वो पार्टी वो कांग्रेस होती है जिसने कभी देश को आजादी दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाई थी तो दुःख और भी ज्यादा होता है। सवाल उठता है कि देश बड़ा है या कुर्सी बड़ी है?
मित्रों,प्रश्न यह भी उठता है कि कांग्रेस पार्टी का वर्तमान नेतृत्व क्या उन महापुरुषों के चरणों की धूल के बराबर भी है जिनके ऊपर वो आज कीचड़ उछाल रही है। पहले तो हमारे पतित नेताओं ने महापुरुषों को जाति में बाँटा और अब पार्टी में बाँट रहे हैं। आखिर वह कौन-सी सोंच है जिसके तहत कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी संसद में कहते हैं कि गांधी हमारे हैं और सावरकर आपके। क्या महापुरुष किसी जाति-विशेष या पार्टी विशेष के होते हैं या हो सकते हैं? क्या चंद्रशेखर आजाद या बिस्मिल ने सिर्फ ब्राह्मणों की आजादी के लिए या भगत सिंह ने सिर्फ सिखों की आजादी के लिए या अशफाकुल्लाह खान ने सिर्फ मुसलमानों की स्वतंत्रता के लिए शहादत दी थी? क्या गांधी जी ने सिर्फ कांग्रेस समर्थकों को आजाद करवाने के लिए आंदोलन किया था? अगर नहीं तो फिर गंदी राजनीति करके महापुरुषों के त्याग और बलिदान का मजाक क्यों उड़ाया जा रहा है?
मित्रों,कांग्रेस के प्रवक्ता से जब विनायक दामोदर सावरकर जिनको भारत की जनता प्यार से वीर सावरकर कहकर पुकारती है के चरित्र-हनन के संबंध में सवाल किया गया तो कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी ने अजीबोगरीब तर्क दिया। उनका कहना था कि 1924 से पहले के सावरकर तो वंदनीय हैं लेकिन उसके बाद के सावरकर निंदनीय हैं। हद हो गई कुतर्क की। कांग्रेस कहती है कि सावरकर ने 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों के लिए सैनिकों की बहाली करवाई थी तो सच तो यह भी है कि 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में कांग्रेस ने भी तन-मन-धन से अंग्रेजों को समर्थन दिया था तो क्या 1914 का कांग्रेस या 1914 के गांधी निंदनीय हैं और 1942 के वंदनीय।
मित्रों,हिंदी के महान नाटककार मोहन राकेश ने एक नाटक लिखा था आधे अधूरे। नाटक कहता है कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है बल्कि हर कोई अधूरा है फिर महापुरुष कैसे पूर्ण हो सकते हैं? स्वयं गांधी में भी कई कमियाँ थीं और उन्होंने भी कई गलतियाँ कीं जिनमें से कइयों का खामियाजा तो देश आज भी भुगत रहा है लेकिन उन गलतियों के बावजूद गांधी महान थे क्योंकि उन्होंने तमाम मानवीय कमजोरियों के बावजूद जो किया वह महान है,प्रातःस्मरणीय है। चूँकि इंसान गलतियों का पुतला होता है इसलिए ऐसा कोई इंसान नहीं है जिसकी आलोचना नहीं की जा सकती हो। क्या कांग्रेस का आज का नेतृत्व पूर्ण होने का दावा कर सकता है? क्या उसने आलोचना करने के लायक कोई गलती कभी की ही नहीं है?
मित्रों,कांग्रेस पार्टी चंद पत्रों के आधार पर वीर सावरकर को देशद्रोही साबित करना चाहती है लेकिन पत्र तो गांधी-नेहरू ने भी जेलों से अंग्रेजों को थोक में लिखे थे और उन पत्रों की भाषा भी कमोबेश वैसी ही थी जैसी कि सावरकर के पत्र की है तो क्या गांधी और नेहरू भी देशद्रोही थे? नेहरू ने आजाद भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अंग्रेजी सरकार को सुभाषचंद्र बोस से संबंधित जो पत्र लिखे थे उसकी भाषा गुलामों जैसी क्यों है क्यों कांग्रेस पार्टी बताएगी?
मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस पार्टी ने महापुरुषों को पार्टियों में बाँटकर और उन पर कीचड़ उछालकर,सूरज पर थूकने जैसी जिस नई राजनैतिक परंपरा की शुरुआत की है वह खुद उस पर ही भारी पड़नेवाली है। लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व सत्ता की पुनर्प्राप्ति की बैचैनी में पागल हो गया है। वह पूरी तरह से किंकर्त्तव्यविमूढ़ की अवस्था में है। कभी उसको देशद्रोही कन्हैया में देशभक्तों के सिरमौर भगत सिंह नजर आने लगते हैं तो कभी भगत सिंह के लिए भी आदर्श रहे सावरकर में देशद्रोही दिखने लगता है। अच्छा हो कि पार्टी नेत्तृत्व अपने पागलपन का समय रहते स्वयं ईलाज कर ले अन्यथा भारत की जनता को अगर यह काम करना पड़ा तो इस बार तो शवयात्रा में साथ जाने के लिए 44 लोगों को जनता ने भेज भी दिया था शायद अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अर्थी को कंधा देने के लिए चार सांसद भी शेष न बचें।

बुधवार, 23 मार्च 2016

ई थरूरवा भांग खा के भकुआईल है का?


मित्रों,होली मस्ती का त्योहार है,उमंग का महापर्व है। होली और भांग का सदियों से बड़ा ही गहरा संबंध रहा है। अब तो ज्यादातर लोग होली में फोकटिया दारू गटकने के चक्कर में रहते हैं जबकि पहिले सिर्फ भांग घोटने का ही प्रचलन था। हमारे एक दादाजी कहा करते थे कि भांग खाए भकुआए गाँजा पिए झुक्के,दारू पिए ... मरावे कुत्ता जईसन भुक्के। अब आप कहिएगा कि इस महान दोहे में हमने जो रिक्त स्थान छोड़ा है वहाँ क्या होगा तो अगर आप पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार के हैं तो आप दोहे को पढ़ते ही पहली नजर में ही रिक्त स्थान की पूर्ति कर लेंगे। उन दादाजी का तो यह भी कहना था कि शराबियों की बातों पर कभी यकीन नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके बाप का भले ही पता हो बात का पता नहीं होता।
मित्रों,हम बात कर रहे थे भांग की। उपरोक्त दोहा कहता है कि भांग खाने से लोग भकुआ जाते हैं। लेकिन हमको यकीन नहीं होता कि शशि थरूर भांग खाते होंगे। ऊ तो महंगी-महंगी विदेशी शराब का सेवन करते होंगे। भांग तो गरीबों का नशा है कि घर के पिछवाड़े में गए और दस गो पौधा उखाड़ लाए हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए। भले ही थरूर जी भांग नहीं खाते होंगे लेकिन दोहा में शराबी लोग के भी कौन-सी बड़ाई की गई है। अब आप समझ गए होंगे कि थरूरवा काहे फागुन महीने में कुत्ते की तरह भौंकने लगा।
मित्रों,अब बात करते हैं होली की। होली है तो बात होली की ही होनी चाहिए थरूरवा जाए चूल्ही के भाँड़ में चाहे हाथी के ... में। वैसे तो बिहार के हर जिले के होली गीतों की अपनी विशेषता है लेकिन अपना गौरवशाली वैशाली जिला भी किसी से कम थोड़े ही है। वैशाली के गांवों में पहिले से सुबह में नाली साफ करने का कार्यक्रम चलता है। कीचड़ में सराबोर सफाईकर्मी लोग दूसरे लोगों को भी कीचड़ से सौंदर्यीकृत करते हैं। फिर दोपहर में लोग स्नान करते हैं। घर के कुछ लोग मीट-मुर्गा के जुगाड़ में सुबह-सुबह ही निकल जाते हैं और पीनेवालों को तो बस पीने का बहाना चाहिए और होली से अच्छा बहाना और कौन होगा सो पीनेवाले लोग जीजान से सुबह से ही पीना शुरू कर देते हैं। फिर शाम में दरवाजे-दरवाजे घूमकर होली गाई जाती है। होली की शुरुआत होती है गणेश वंदना से-पहिले सुमिर गणेश के,राम होरी हा मथुरा में बाजे बधाई। फिर बाबा हरिहर नाथ को याद किया जाता है-बाबा हरिहर नाथ सोनपुर में रंग खेले। फिर भगवान राम के गीत गाए जाते हैं-राम खेले होरी लछुमन खेले होरी,लंका गढ़ में रावण खेल होरी। उसके बाद होली के असली रस श्रिंगार रस से सराबोर गीतों की बारी आती है। भर फागुन बुढ़वा देवर लागे भर फागुन,होरी राम हो हो हो हो। फिर बुढ़वा जाईछऊ नेपाल अब कैसे रहबे बुढ़िया या फिर चोलिया बुटेदार ई रंग कहवाँ से लएलअ या गोरिया पातरी गोरिया पातरी जईसे लचके जमुनिया के डार या फिर बुढ़वा बड़ बईमान मांगेला बैगन के भर्ता। इन गीतों में मुख्य निशाने पर होते हैं गाँव के बड़े-बूढ़े लोग।
मित्रों,इस दौरान जिस दरवाजे पर गायन मंडली जमा रहती है उस घर की महिलाएँ बाल्टी और लोटे में भर-भरकर रंग लाती हैं और होली गायकों पर उड़ेलती रहती हैं। साथ ही सूखे मेवों का आपस में आदान-प्रदान होता है और सेब जैसे लाल गालों पर रंग-गुलाल मलने का सिलसिला तो चलता ही है। खास तौर पर नववधुओं,साला-सालियों या जीजाओं की तो जान पर ही बन आती है। गांव के दो-चार नए पियक्कड़ पीकर बकवास भी करते हैं जिससे खासकर बच्चों का खूब मनोरंजन होता है। रात में लोग जमकर मांस-मदिरा का भक्षण करते हैं और फिर सो जाते हैं होली की मधुर यादों को आँखों में लिए।
मित्रों,हम बात शुरू किए थे भांग और शशि थरूर के प्रसंग से और एक लोकप्रचलिए दोहे से। आप चाहें तो इस दोहे का नेताओं पर या दूसरे लोगों पर भी परीक्षण कर सकते हैं। जैसे जो नेता कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो उटपटांग ही बोलते हैं तो आप मान सकते हैं ऊ भांग घोटते हैं जैसे कि राहुल बाबा। जो नेता सदन में आकर सो जाते हैं उनके बारे में मान सकते हैं ऊ गाँजा पीते हैं और जो नेता कुत्ते की तरह आएँ-बाएँ भूँकते रहते हैं उनके बारे में आँख मूँदकर मान सकते हैं कि ऊ दारू पीते हैं वैसे ई काम तो लगभग सारे नेता ही करते हैं कुछ पार्ट टाईम और कुछ तो फुल टाईम। वैसे तो इस फार्मूले को आप सालोंभर आजमा सकते हैं लेकिन ई फार्मूला फागुन में ज्यादा काम करता है जब फगुनहट वाली मस्ती भरी हवा चलती है और आप तो जानते ही हैं कि होली के दिन तो किसी बात का बुरा मानना ही नहीं चाहिए क्योंकि इस दिन तो सब माफ होता है। तो हमको भी साल भर की बकवास के लिए माफ करिए और आज्ञा दीजिए काहे कि अब दरवाजे-दरवाजे होली गाने का समय हो गया है और हम गाते तो अच्छा हैं ही बजाते भी अच्छा हैं।

शनिवार, 19 मार्च 2016

वित्तीय अराजकता की ओर बढ़ा बिहार,नहीं खर्च हो पायी बजटीय राशि

पटना (सं.सू.)। सीएजी की रिपोर्ट ने साबित किया है कि बिहार कितनी तेजी से वित्तीय अराजकता के दौर में जा रहा है। एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपये का बजट और 43 हजार करोड़ खर्च ही नहीं कर पाये तो ऐसे बजट का का क्या फायदा। ये 43 हजार करोड़ इस प्रदेश के गरीबों पर खर्च होने वाले थे जो खर्च नहीं हो पाये। ऐसी अराजकता तेजी से प्रशासनिक अराजकता में बदल जाती है। इसी अराजकता का नतीजा शिक्षा विभाग में दिखाई पड़ा है। वित्तरहित शिक्षकों का अनुदान चार साल से बाकी है, नियोजित शिक्षकों को वेतन नहीं मिल रहा है, स्कूलों के भवन खंडहर में बदल रहे हैं और विभाग विधायकों को मंहगे उपहार बांट रहा है।

विदित हो कि बिहार विधानसभा में शुक्रवार को सदन पटल पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की वित्तवर्ष 2014-15 की रिपोर्ट रखी गई। रिपोर्ट में सरकार के वित्तीय प्रबंधन को विफल बताया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सरकार के वर्ष 2014-15 के कुल बजट 140022.59 करोड़ रुपये में से 27334.02 करोड़ रुपये वापस कर दिए गए।

बिहार विधानसभा में रिपोर्ट के पेश होने के बाद लेखाकार परीक्षक पी़ क़े सिंह ने संवाददाताओं को बताया कि 2014-15 के कुल बजट 140022.59 करोड़ रुपये में से सरकार 43925.80 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं कर पायी, जो सरकार के पूरे बजट का बड़ा हिस्सा है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने खर्च के अनुपात में बहुत ज्यादा बजट बना लिया था, जिस कारण यह स्थिति आई। ऐसे में कुल 27334.02 करोड़ रुपये वापस कर दिए गए, इसमें से 22740.73 करोड़ रुपये 31 मार्च, 2015 यानी वित्तवर्ष के आखिरी दिन वापस किए गए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटा 11178.50 करोड़ रुपये रहा जो पिछले वर्ष से 34 प्रतिशत ज्यादा था। रिपोर्ट में विभाग द्वारा खर्च के बिल नहीं दिए जाने की भी बात कहीं है।

लेखाकार परीक्षक ने बताया कि बिहार में पुल निर्माण में भी विलंब हो रहा है। उन्होंने कहा कि पांच वर्ष में 1252 पुलों के निर्माण का लक्ष्य था, जबकि मात्र 821 पुलों का ही निर्माण समय पर हुआ। 155 पुलों के निर्माण में एक से लकर 84 महीने तक का विलंब हो रहा है।

थैंक यू वेरी मच,नीतीश कुमार जी,मुख्यमंत्री बिहार।

मित्रों,यूँ तो जबसे मैंने करीब 35 साल पहले रामचरित मानस के वर्षा ऋतु वर्णन में जिमि पाखंडवाद से लुप्त होहिं सदपंथ पढ़ा कदाचित उसके भी पहले से पाखंडवाद का सख्त विरोधी रहा हूँ लेकिन बाद के वर्षों में नेताओं का पाखंडयुक्त व्यवहार और चिथड़ा ओढ़कर घी पीने की प्रवृत्ति को देखकर मेरा खून उबाल खाने लगा और फिर जैसे ही ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई मैंने ब्लॉगिंग करना शुरू कर दिया। पहले अन्ना और केजरीवाल का समर्थन किया लेकिन उनके प्रति अपने मन में संदेह उत्पन्न होने के बाद नरेंद्र मोदी का खुलकर साथ दिया। मैं हमेशा से तटस्थता की नीति का घोर विरोधी रहा हूँ और राम को अपना आदर्श मानते हुए हमेशा अन्याय का बेखौफ होकर प्रतिकार किया है।
मित्रों,सबसे पहले मुझे ब्लॉगिंग में समस्या हुई 2014 के लोकसभा चुनावों के समय। तब नवभारत टाईम्स ने मेरे आलेखों को प्रकाशित करने से मना करना शुरू कर दिया। शायद,नरेंद्र मोदी का विरोध करना ही उस अखबार की नीति थी और आज भी है। मैने बार-बार की रोक-टोक से परेशान होकर नवभारत टाईम्स में लिखना ही बंद कर दिया।
मित्रों,पिछले साल बिहार विधानसभा चुनावों के समय एक दिन मैंने पाया कि मेरे ब्लॉगों की सूची से भड़ास गायब है। मैं स्तब्ध था क्योंकि कड़वा सच प्रकाशित करना ही उस ब्लॉग का घोषित उद्देश्य था। यूँ तो भड़ास के मालिक यशवंत की जेलयात्रा से भी मैं वाकिफ था तथापि भड़ास पर लिखने से रोक दिए जाने से मुझे गहरा धक्का लगा। जब तत्काल भड़ास 4 मीडिया वेबसाईट पर गया तो पाया वेबसाईट पर सबसे ऊपर नीतीश कुमार जी का प्रसिद्ध विज्ञापन बिहार में बहार हो नीतीशे कुमार हो लगा हुआ था। जाहिर था कि यशवंत को उन्होंने खरीद लिया था। इसके बाद यही विज्ञापन दैनिक जागरण की वेबसाईट पर भी विराजमान हो गया और उसके बाद से दैनिक जागरण ने मेरे किसी भी ब्लॉग को अपने अखबार में स्थान नहीं दिया। उस पर जले पर नमक यह कि किसी विरोधी ने मेरे अखबार हाजीपुर टाईम्स की वेबसाईट को ही हैक कर लिया।
मित्रों,इस बीच मैं आर्थिक संकट के दौर से भी गुजर रहा था इसलिए जनवरी से ही पटना की दौड़ लगानी शुरू कर दी। अपने उन मित्रों से भी बातचीत की जिनकी कभी मैंने कड़की के समय मदद की थी लेकिन सब बेकार। पटना के किसी भी बड़े अखबार ने मुझे नौकरी नहीं दी। दे भी क्यों जबकि मैं सीधे सीएम के निशाने पर हूँ। हालाँकि मैं अपनी माली हालत के चलते इन दिनों बेहद परेशान हूँ जिसके चलते मैंने बीच में लिखना काफी कम कर दिया था लेकिन अब मैंने फिर से देशहित में धड़ल्ले से लिखने का निर्णय किया है और नीतीश जी को खुली चुनौती देता हूँ कि जब तक मेरे जिस्म में खून की एक-एक बूंद बाँकी है कसम अपने पूर्वजों की भूमि महोबा की पवित्र मिट्टी की मैं आप और आपके जैसे चिथड़ा ओढ़कर घी पीनेवाले महापाखंडी,महाभ्रष्ट नेताओं के खिलाफ लिखता रहूंगा। नीतीश जी थैंक यू वेरी मच मेरे इरादों को और भी मजबूत करने के लिए। अगर आपमें दम है तो मुझे लिखने से पूरी तरह से रोक कर बताईए लेकिन इसके लिए आपको मेरी साँसें रोकनी पड़ेगी।

शनिवार, 5 मार्च 2016

अपनी सगी बहन का यौन शोषण करता था हसनैन

मुंबई (सं.सू.)। मुंबई से सटे ठाणे में अपने परिवार के 14 सदस्यों की हत्या करने के बाद खुदकुशी करने वाले हसनैन पर लाखों का कर्ज था। यही नहीं वह मानसिक रूप से बीमार अपनी बहन का शारीरिक शोषण भी करता था। यह बात इस हत्याकांड की इकलौती चश्मदीद और हसनैन की बहन सुबिया ने पुलिस को दिए अपने बयान में कही है।

ठाणे के कासरवडवली में हर शख्स यही सवाल पूछ रहा है कि क्या 35 साल का हसनैन सच में दोहरी ज़िंदगी जीता था, दुनिया के लिए अलग ...परिवार के लिए बिल्कुल जुदा। इस खौफनाक हत्याकांड की इकलौती चश्मदीद हसनैन की बहन सुबिया के बयान पर यकीन करें तो जवाब है ... हां। ठाणे के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर आशुतोष डुमरे के मुताबिक सुबिया ने अपने बयान में कहा है कि " हसनैन पर 70 लाख रुपये के करीब कर्ज था। वह दो साल से बेरोजगार था। स्वभाव से चिड़चिड़ा था, घर में दहशत थी बाहर शांत रहता था।"

सात बच्चों सहित 14 लोगों के कत्ल की इस कहानी के कई पेंच अब खुल रहे हैं। इसमें लाखों रुपये कर्ज से लेकर बहन के शारीरिक शोषण तक की कहानी है। आशुतोष डुमरे ने कहा " सुबिया ने हमें बताया कि हसनैन बैतुल का शारीरिक शोषण करता था, जिसकी हम पुष्टि करने की कोशिश कर रहे हैं। 6 फरवरी को एक शादी में सारी बहनें मिली थीं, हसनैन ने उन्हें बातें करते सुना था। उसे लगता था कि उन्होंने रिश्तेदारों को भी यह बात बताई होगी।"

हसनैन ने ठाणे के माजीवाड़ा में भी एक फ्लैट किराये पर ले रखा था लेकिन पुलिस को वहां कुछ संदेहास्पद नहीं मिला है। फिलहाल वह हसनैन की बहन सुबिया के बयानों को सबूतों की कसौटी पर कसने में जुटी है।

कन्हैया को किससे और कैसी आजादी चाहिए?


मित्रों,आजादी किसे अच्छी नहीं लगती? फिर वो पशु हो,पक्षी हो या इंसान लेकिन कभी-कभी हम पाते हैं कि फिल्म बंटी और बबली के एक दृश्य जैसी हास्यास्पद स्थिति भी उत्पन्न कर दी जाती है या हो जाती है। आपको याद होगा कि फिल्म में हीरो बंटी ताजमहल को ही बेच डालता है। मंत्री समय पर कार्यालय न पहुँचें इसके लिए वो कुछ किराये के नारेबाजों को ठीक करता है जो मंत्री की गाड़ी के आगे जमकर नारेबाजी करते हैं। हमारी मांगें पूरी करो चाहे जो मजबूरी हो। मंत्री गाड़ी रोककर पूछती है कि आप लोगों की मांगें क्या हैं लेकिन वे लोग कोई मांग नहीं बताते और बार-बार वही नारा दोहराते रहते हैं।
मित्रों,ठीक यही स्थिति इस समय जेएनयू में है। वहाँ पहले तो नारा लगाया गया कि हमें भारत से आजादी चाहिए और अब नारा लगाया जा रहा है कि हमें भारत में आजादी चाहिए लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि आजादी किससे चाहिए और किस बात की आजादी चाहिए? ऐसी कौन-सी आजादी है जो अन्य लोगों को तो प्राप्त है लेकिन जेएनयू में पढ़नेवाले चंद लोगों को प्राप्त नहीं है। बल्कि उन्होंने तो खुद ही अन्य भारतवासियों से ज्यादा आजादी ले रखी है। वे सरेआम दिनदहाड़े सामूहिक चुम्मा-चाटी का कार्यक्रम करते हैं और उसको किस ऑफ लव का नाम देते हैं। गोया जो लोग पर्दे में किस करते हैं उनके बीच आपस में प्यार होता ही नहीं है। अगर उनको सरेआम इससे ज्यादा करने की आजादी चाहिए तो वे हम भारतवासियों को माफ ही करें क्योंकि हम आए दिन स्वच्छंदता के दुष्परिणामों से जुड़ी खबरें पढ़ते ही रहते हैं। कई बार तो गैंगरेप की घटनाओं के पीछे दुल्हे के साथ-साथ बारातियों द्वारा भी सुहागदिन मना डालने की मंशा छिपी होती है।
मित्रों,फिर हम इंसान हैं कोई कुत्ता या बकरी नहीं कि कहीं भी कुछ भी शुरू कर दिया। अगर कन्हैया एंड कंपनी को इस तरह की आजादी चाहिए तो वे किसी और मुल्क जहाँ साम्यवादी शासन है का रूख कर सकते हैं। बाँकी तो भारत के आम नागरिकों की तरह उनको भी मत डालने का,सरकार बनाने का अधिकार प्राप्त है ही नारेबाजी करने का भी अधिकार मिला हुआ है लेकिन एक दायरे के भीतर। देशविरोधी और देशविभाजक नारे लगाने का अधिकार,आतंकवादियों का समर्थन करने या समर्थन में कार्यक्रम आयोजित करने का अधिकार न तो किसी को दिया गया है न ही दिया जा सकता है,न तो रोहित वेमुला को था और न ही कन्हैया को है क्योंकि जब देश है तो हम हैं। क्योंकि हमारी सीमाओं पर रोज-रोज दर्जनों जवान देशरक्षा में शहीद होते हैं और वे इसलिए शहादत नहीं देते कि कोई राजधानी दिल्ली में उनके महबूबे वतन के टुकड़े करने के समर्थन में नारे लगाए। क्योंकि देश के करदाता इसलिए कर अदा नहीं करते के कोई उनकी गाढ़ी कमाई के पैसों से दी गई सब्सिडी पर पलकर और पढ़कर उनके ही देश के सर्वनाश के उद्देश्य से कार्यक्रमों के आयोजन करे।
मित्रों,दरअसल कन्हैया एंड कंपनी और कुछ नहीं बंटी और बबली गिरोह है। उनके पास न तो कोई ठोस दर्शन है और न ही तर्क उनको तो बस नारेबाजी करनी है। वैसे अगर जैसा कि वे लोग दावा कर रहे हैं कि वे भी देशभक्त हैं तो उनको केंद्र सरकार के लोककल्याणकारी कार्यों का,देश को विकसित बनानेवाले कदमों का समर्थन करना चाहिए। अगर उनको सरकार की किसी योजना या काम में कोई कमी महसूस होती है तो उसको मुखरित होकर देश-दुनिया और सरकार के सामने उठाना चाहिए लेकिन उनको अगर देश को हजार टुकड़ों में बाँटने का नारा लगाना है तो कृपया वे जेएनयू ही नहीं भारत से बाहर चले जाएँ। क्योंकि अगर वे भारत में ऐसा करेंगे तो टुकड़े भारत के नहीं होंगे उनके नापाक ईरादों के होंगे। कह तो हम यह भी सकते हैं कि उनके होंगे लेकिन हम उनकी तरह हिंस्र पशु नहीं हैं और हिंसा में विश्वास नहीं करते।