शनिवार, 13 मई 2017

न्यायपालिका में कितने कर्णन?

मित्रों,न्याय करना बच्चों का खेल नहीं है. इसके लिए अतिसूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है. प्राचीन काल में कई बार राजा चुपके से वेश बदलकर घटनास्थल पर जाकर सच्चाई का पता लगाते थे. एक प्रसंग प्रस्तुत है. एक बार अकबर के पास एक मुकदमा आया जिसमें एक व्यक्ति दूसरे पर कर्ज लेकर न लौटाने के आरोप लगा रहा था. सारे गवाह कथित कर्जदार के पक्ष में थे लेकिन कर्जदाता की बातों से सच्चाई जैसे छलक-छलक रही थी. अब फैसला हो कैसे? तभी बीरबल ने दोनों को सुनसान सड़क पर एक लाश के पास बैठा दिया और आधे घंटे बाद लाश उठाकर लाने को कहा. दोनों बेफिक्र होकर लाश के पास बैठकर बातें करने लगे. कर्जदार ने कहा मैंने कहा था न कि मैं तुमको ही झूठा साबित कर दूंगा. क्या जरुरत थी तुमको बेवजह अपनी मिट्टी पलीद करवाने की? तुम्हारे पैसे तो मैंने लौटाए नहीं ऊपर से तुम्हारी ईज्ज़त को भी तार-तार कर दिया. दूसरा बेचारा चुपचाप सुनता रहा. आधे घंटे बाद जब वे दोनों लाश लेकर दरबार में पहुंचे तो फिर से सुनवाई शुरू हुई. फिर से बेईमान का पलड़ा भारी था कि तभी लाश बना गुप्तचर उठ बैठा और सच्चाई सामने आ गयी.
मित्रों,अब बताईए कि हमारी वर्तमान न्यायपालिका किस तरह काम करती है? क्या वो गवाहों के बयानात,जांच अधिकारी की रिपोर्ट, कानून की विदेशी किताबों में दर्ज लफ्जों और वकीलों की दलीलों के आधार पर अपने फैसले नहीं सुनाती है? अगर उसके समक्ष उपर्लिखित मामला या उसके जैसा कोई मामला जाता तो वो क्या करती? न्याय या अन्याय? हमारी आज की जो न्याय-व्यवस्था है उसमें निश्चित रूप से अन्याय होता और होता भी होगा.
 मित्रों,हमारे देश में विलंबित मुकदमों की भारी संख्या होने के पीछे एक कारण यह भी है कि कई दशकों की देरी के बाद जब फैसला आता है तो पीड़ित पक्ष को न्याय नहीं मिलता. कौन देगा न्याय की गारंटी? किसकी जिम्मेदारी है यह? मैं मानता हूँ कि निश्चित रूप से यह उच्च न्यायपालिका, सरकार यानि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की संयुक्त जिम्मेदारी है.
मित्रों,लेकिन हमारे उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश क्या कहते हैं? कदाचित उनका तो यह मानना है कि वे निरंकुश हैं. संविधान क्या कहता है इससे उनको फर्क नहीं पड़ता वे जो कहते हैं वही संविधान है और कानून भी. जब जैसा चाहा वैसी व्यवस्था दे दी और कई बार तो वे खुद ही अपने लिए नई व्यवस्था बना लेते हैं जबकि ऐसा करने से व्यवस्थापिका के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होता है. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने संसद और 20 विधानसभाओं से एक सुर में पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) कानून को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया उसके बाद तो यह सवाल उठने लगा है कि संसद और विधान-सभाओं की आवश्यकता ही क्या है? क्या जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था आसमानी है जिसमें लाख कमियों के बावजूद कोई बदलाव नहीं हो सकता? अगर इसी तरह अतिनिराशाजनक स्थिति को बदलने के लिए उच्चतर न्यायपालिका कुछ करेगी नहीं और कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को करने भी नहीं देगी तो यथास्थिति बदलेगी कैसे? क्या इसी तरह कर्णन जैसे विचित्र स्थिति पैदा करनेवाले विचित्र लोग जज बनते रहेंगे? जब जज ऐसे होंगे तो फैसले कैसे सही हो सकते हैं? कितने महान निर्णय हमारी उच्च न्यायपालिका देती है उदाहरण तो देखिए. कोई मुसलमान १५ साल की उम्र में शादी तो कर सकता है लेकिन बलात्कारी या हत्यारा नहीं हो सकता. बलात्कारी या हत्यारा होने के लिए उसको १७ साल,११ महीने और ३० दिन का होना होगा. सोंचिए अगर निर्भया के सारे बलात्कारी हत्यारे नाबालिग होते तो? तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होता? तब सुप्रीम कोर्ट कहता कि हत्या हुई ही नहीं,बलात्कार भी नहीं हुआ वो तो बच्चों से गलती हो गई? इसी तरह से बतौर न्यायपालिका जलिकट्टू क्रूरता है क्योंकि इसमें जानवर घायल हो जाते हैं लेकिन सरकार को वधशालाओं को बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि पशुओं का मांस खाना लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार है. क्या फैसला है? हत्या अपराध नहीं लेकिन घायल करना अपराध है. इसी तरह से हमारी न्यायपालिका मानती है कि कुरान में जो कुछ भी लिखा गया है सब सही है लेकिन यही बात वेद-पुराणों के लिए लागू नहीं हो सकती.
मित्रों,कितने उदाहरण दूं भारत की महान न्यायपालिका के महान फैसलों के? पूरी धरती को पुस्तिका बना लूं फिर भी स्थान की कमी रह जाएगी. जब तक कर्णन जैसे कर्णधार जज बनते रहेंगे उदाहरणों की कमी नहीं रहेगी. वो कहते हैं न कि बर्बादे गुलिस्तान के लिए बस एक ही उल्लू काफी है,हर डाल पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तान क्या होगा.. आप कहेंगे कि न्यायाधीशों के लिए ऐसा कहना उचित नहीं होगा. मगर क्यों? क्या गाली सुनना सिर्फ नेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? मुलायम बोले तो गलत और जज बोले तो सही? क्या जज आदमी नहीं होते, जन्म नहीं लेते? सीधे धरती पर स्वर्ग से आ टपकते हैं?

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