मंगलवार, 27 जून 2017

अर्दब में लालू परिवार

मित्रों, पता नहीं आप कभी कुश्ती लड़ें हैं या नहीं. लड़ें तो हम भी नहीं हैं लेकिन लड़ाया बहुत है. मतलब कि बहुत-से डंकों में दर्शक की महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका हूँ. तो मैं बताना चाह रहा था कि कुश्ती में कभी-कभी ऐसी जकड़न जैसी स्थिति पैदा हो जाती है कि पहलवान लाख कोशिश करके भी कुछ कर नहीं पाता, हिल भी नहीं पाता. इस स्थिति को कुश्ती की भाषा में अर्दब कहते हैं.
मित्रों, खुद अपने मुंह से अपने आपको भारतीय राजनीति के अखाड़े का सबसे बड़ा पहलवान अथवा राजनीति का पीएचडी बतानेवाले लालू प्रसाद यादव इन दिनों सपरिवार अर्दब की स्थिति में फंस गए हैं. बेचारे ने बड़ी धूमधाम से उस व्यक्ति के साथ गठबंधन किया था जिसके बारे में वे स्वयं कभी कहा करते थे कि इस आदमी के तो पेट में भी दांत है. तब नीतीश ज्यादा मजबूर थे. मजबूर तो लालू भी थे लेकिन कम थे. नीतीश ने अचानक अपनी सरकार बचाने के लिए लालू जी से मदद मांगी और लालू जी बिहार आगा-पीछा सोंचे गठबंधन कर लिया. पहले मंझधार में पड़ी मांझी सरकार और बाद में कथित छोटे भाई नीतीश कुमार की सरकार को डूबने से बचाया.
मित्रों, तब जिन-जिन लोगों ने लालू परिवार को गठबंधन करने से रोका था जिनमें सबसे आगे रघुवंश बाबू थे को डांट-फटकारकर चुप करवा दिया गया. इससे पहले भी नीतीश लालू जी को काफी नुकसान पहुंचा चुके थे. यहाँ तक कि बिहार की गद्दी छीन ली थी लेकिन फिर भी लालू जी ने गठबंधन किया.
मित्रों, ऐसा नहीं है कि धोखे की गुंजाईश सिर्फ नीतीश की तरफ से थी. याद करिए इसी साल जब यूपी चुनाव के समय प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी जी को कुत्ता-कमीना बता रहे थे ठीक उसी समय बिहार में उनकी पार्टी के नेता तेजस्वी को सीएम बनाने की मांग करने में लगे थे. वो तो भला हुआ कि यूपी में भाजपा जीत गयी वरना बिहार में बहुत पहले तख्तापलट हो चुका होता.
मित्रों, सोंचा था क्या और क्या हुआ. यूपी चुनाव के बाद नीतीश का पलड़ा भारी हो चुका था. नीतीश ठहरे राजनीति के चाणक्य. सो एक के बाद एक लालू परिवार की बेनामी संपत्ति का खुलासा होने लगा. उधर दिल्ली की केंद्र सरकार भी जैसे तैयार ही बैठी थी. धड़ाधड़ छापेमारी और ताबड़तोड़ जब्ती. संभलने का कोई मौका नहीं. लालू के दोनों बेटों का मंत्रालय तक जाना बंद हो गया.
मित्रों, इसी बीच आ गया राष्ट्रपति चुनाव. भाजपा ने बहुत सोंच-समझकर और शायद नीतीश कुमार से पूछ लेने के बाद बिहार के राज्यपाल को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना दिया. कोविंद इतने नीतीश फ्रेंडली रह चुके थे कि गाँधी मैदान में झंडा फहराने के बाद भी नीतीश सरकार द्वारा तैयार भाषण ही पढ़ते थे. नीतीश जो चाहते थे वो उनको मिल चुका था. मौका मिलते ही कूदकर भाजपा की तरफ हो लिए. लालू जी की पीएचडी की डिग्री धरी की धरी रह गयी. अब बेचारे सन्नाटे में हैं कि करें तो क्या करें. नीतीश को छोड़ देते हैं तो दोनों बेटे बेरोजगार हो जाएँगे और नहीं छोड़ते हैं तो भी सपरिवार जेल जाने की स्थिति उत्पन्न हो रही है. तरह-तरह के घोटालों से अर्जित धन-संपत्ति समाप्ति पर है सो अलग. वैसे भी नीतीश अब ज्यादा समय तक उनको ढोनेवाले नहीं हैं बल्कि सरकार में साथ रखकर भी धोने ही वाले हैं. समय का फेर देखिए कि चारा खानेवाला आज बेचारा बना हुआ है. भई गति चन्दन सांप केरी.

सोमवार, 19 जून 2017

टीम इंडिया हाय-हाय!

मित्रों,१९३२ का ओलंपिक चल रहा था. भारत और अमेरिका की hockey टीमें आमने-सामने थीं. मेजर ध्यानचंद गोल-पर-गोल दाग रहे थे. अंततः भारत ने अमेरिका को २४-१ से हरा दिया. इस करारी और शर्मनाक हार का असर यह हुआ कि उसके बाद अमेरिका ने hockey खेलना ही बंद कर दिया. हो सकता है कि आपमें से कुछ मित्र कहें कि अमेरिका ने सही किया लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. खेल खेल होता है और उसको खेल की तरह ही लेना चाहिए. जिस दिन जो टीम अच्छा खेलेगी जीतेगी.
मित्रों, हमने देखा है कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता है तब वो मैच रह ही नहीं जाता बल्कि हम क्रिकेट प्रशंसक उसे युद्ध बना देते हैं. मानों एक मैच जीत जाने से भारत का पाकिस्तान पर कब्ज़ा हो जाएगा या फिर हार जाने से हम पाकिस्तान के गुलाम हो जाएँगे. एक समय कोलकाता में दर्शकों ने गावस्कर का घोर अपमान किया था और फिर गावस्कर कोलकाता में कभी नहीं खेले.
मित्रों, कल रात जबसे भारतीय क्रिकेट टीम चैम्पियंस ट्राफी के फाइनल में पाकिस्तान से हारी है पूरे भारत में टीम इण्डिया के खिलाफ गुस्से का तूफ़ान आया हुआ है. मानों क्रिकेट ही देश के लिए सबकुछ हो या फिर देश में क्रिकेट के अलावा कुछ और खेला ही नहीं जाता हो. कल ही भारत ने hockey में पाकिस्तान को ७-१ से धूल चटाई है क्या यह कम गौरव की बात है? बैडमिंटन में भी भारत के अग्रणी पुरुष बैडमिंटन खिलाड़ी किदांबी श्रीकांत ने कल इंडोनेशिया ओपन जीत लिया है और वह यह खिताब जीतने वाले भारत के पहले पुरुष खिलाड़ी बन गए हैं।  क्या यह हमारे लिए गौरव की बात नहीं है? कल एशियाड या ओलंपिक में बैडमिंटन और hockey ही खेले जाएंगे क्रिकेट नहीं फिर सिर्फ क्रिकेट के लिए ऐसी दीवानगी क्यों?
मित्रों, इतना ही नहीं क्रिकेट तो कई-कई बार कलंकित भी चुका है. लोग रिश्वत खाकर मैच हार जाते हैं. अब कल के मैच को ही लें तो भारत के तरफ से पांड्या को छोड़कर किसी ने भी कोशिश भी की क्या? क्या मैच देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि टीम इण्डिया जान-बूझकर हारने के लिए खेल रही है?

गुरुवार, 15 जून 2017

शिक्षक बोझ हैं तो उन पर कृपा क्यों?

मित्रों, क्या आपने कभी ऐसा देखा है कि कोई एक दिन किसी को बेकार और बोझ बताए और दूसरे ही उस पर कृपा और पुरस्कारों की बरसात कर दे? नहीं देखा है तो विडम्बनाओं के प्रदेश बिहार आ जाईए. ताजा प्रसंग यह है कि आपने भी सुना-पढ़ा होगा कि कुछ ही दिन पहले यहाँ के बडबोले शिक्षामंत्री ने कहा था कि नियोजित शिक्षक राज्य पर बोझ बन गए हैं. ग्राउंड पर वास्तविकता को देखते हुए हमें पता है कि उन्होंने जो भी कहा था एकदम सही कहा था २०० प्रतिशत से भी अधिक सही. बिहार के ९०-९५ प्रतिशत नियोजित शिक्षकों को पहाड़ा और महीनों के नाम तक लिखने नहीं आते. इस तरह की रिपोर्ट हमें अक्सर मीडिया में देखने को मिलती है. कल भी जी पुरवैया पर एक खबर प्रसारित हुई हैं जिसमें दिखाया गया है कि गया जिले के एक मध्य विद्यालय के शिक्षकों को जनवरी-फरवरी की स्पेलिंग भी मालूम नहीं हैं. अब आप ही बताईए कि जब शिक्षकों को ही कुछ पता नहीं होगा तो वो पढ़ाएंगे क्या?
मित्रों, ऐसे शिक्षकों को न कहा जाता तो क्या कहा जाता? लेकिन आश्चर्य होता है कि उसके अगले ही दिन सरकार ने यह घोषणा करके कि अब नियोजित शिक्षक भी प्रधानाध्यापक बन सकेंगे जैसे उनको उनकी नालायकी के लिए पुरस्कृत ही कर दिया.
मित्रों, सवाल उठता है कि सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसने उनको हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के बदले उन पर कृपा कर दी? कोई वेतनभोगी राज्य पर बोझ बन गया है तो उनकी छंटनी होनी चाहिए न कि उनको खुश कर दिया जाए. अगर सरकार को कृपा ही करनी थी तो फिर शिक्षा मंत्री ने उनको बोझ क्यों बताया? क्या किसी ने उनको ऐसा बयान देने के लिए मजबूर किया था या फिर वे उस समय नशे में थे क्योंकि कई बार ऐसा देखा गया है कि लोग नशे में सच बोलने लगते हैं? लेकिन इस समय तो कागजों पर बिहार में पूर्ण शराबबंदी है. फिर आखिर सच्चाई क्या है? क्या शिक्षा मंत्री इस पर रौशनी डालने की कृपा करेंगे? वैसे उनको शिक्षा मंत्री कहना भी सच्चाई को झुठलाने जैसा होगा क्योंकि बिहार में अब पढाई होती ही नहीं है सिर्फ परीक्षा होती है इसलिए उनको अगर हम परीक्षा मंत्री कहेंगे तो ज्यादा सही होगा.

सोमवार, 12 जून 2017

नियोजित शिक्षकों को कब तक ढोएगी बिहार सरकार?

मित्रों, बात साल २००८ की है. तब हम पटना हिंदुस्तान में कॉपी एडिटर थे. पृष्ठ संख्या १ के मुख्य पेजिनेटर दिलीप मिश्र भैया को घर जाना था. वे हमेशा हाजीपुर जंक्शन से ट्रेन पकड़ते थे. उनके कहने पर प्रादेशिक प्रभारी गंगा शरण झा ने हमें तत्क्षण छुट्टी दे दी. रास्ते में मैंने दिलीप भैया से कहा कि भैया यूपी के कानून-व्यवस्था की हालत बहुत ख़राब है जबकि बिहार में सुधार आ गया है. भैया का घर बलिया यूपी था. दिलीप भैया ने कहा कि दरअसल बिहार में जो ग्राम पंचायत मुखिया द्वारा शिक्षकों की नियुक्ति हुई है उसमें सारे गुंडे-बदमाश तमाम हेरा-फेरी के बल पर शिक्षक बन गए हैं. मैंने तत्काल भविष्यवाणी करते हुए कहा कि भैया भले ही अभी आपको इस तुगलकी नियुक्ति में बिहार का भला होता हुआ दिख रहा हो लेकिन सरकार का यह कदम बिहार के भविष्य को बर्बाद करके रख देगा और एक दिन ऐसा भी आएगा जब बिहार सरकार अपने इस कदम पर पछताएगी.
मित्रों. यह बहुत ही ख़ुशी की बात है कि वह दिन आ गया है और देर से ही सही नीतीश सरकार ने माना है कि उससे गलती हुई है. अपनी बेवाकी के लिए जाने जानेवाले बिहार के शिक्षामंत्री अशोक चौधरी ने एक ट्विट के माध्यम से जारी अपने बयान में स्वीकार किया है कि नियोजित शिक्षक बिहार के लिए बोझ बन गए हैं और शिक्षा तंत्र पर भारी पड़ रहे हैं.
मित्रों, मैंने अपने गाँव के मध्य विद्यालय वैशाली जिले के राघोपुर प्रखंड के राजकीय मध्य विद्यालय रामपुर जुड़ावनपुर बरारी में खुद देखा है कि एक-दो शिक्षकों को छोड़कर ज्यादातर नियोजित शिक्षक स्कूल आते ही नहीं हैं. कभी-कभी तो स्कूल में एक भी शिक्षक नहीं होता. एडवांस में हाजिरी बना लेते हैं या फिर औचक निरीक्षण से बचने के लिए अधिकारी को ही मैनेज कर लेते हैं. एक उपाय और भी किया जाता है कि छुट्टी का बिना तारीखवाला आवेदन-पत्र अपने किसी साथी को दे दिया जाता है कि अगर जाँच हो तो लगा दीजिएगा अन्यथा जेब में ही रखे रहिएगा. हाँ,चाहे स्कूल का ताला खुले या न खुले कागज पर सारे बच्चों के लिए उत्तम भोजन रोज जरूर बन रहा है. कुल मिलाकर इन नियोजित शिक्षकों की कृपा से बिहार के विद्यालयों में इन दिनों बांकी सबकुछ हो रहा है सिर्फ पढाई नहीं हो रही है.
मित्रों, इस बार का इंटर का रिजल्ट देखकर बिहार सरकार को भले ही आश्चर्य हुआ हो कि कैसे ५०० से ज्यादा स्कूलों के एक भी परीक्षार्थी उत्तीर्ण नहीं हुए लेकिन हमें तो नहीं हुआ. जब पढाई होगी ही नहीं तो अच्छा परिणाम कहाँ से आएगा?  सवाल उठता है कि अब बिहार सरकार के पास विकल्प क्या है? विकल्प तो बस एक ही है कि बोझ को उतार फेंका जाए यानि सारे नियोजित शिक्षकों को हटाकर उनके स्थान पर टीईटी पास युवाओं को नियुक्त किया जाए. मगर क्या बिहार सरकार के पास ऐसा ऐसा करने का जिगर है? अगर नीतीश कुमार शराबबंदी पर तमाम विरोध के बावजूद अड़ सकते हैं तो अपनी सबसे बड़ी गलती को सुधार क्यों नहीं सकते? मुझे नहीं लगता कि अगर सरकार इस मामले में भूल-सुधार करती है तो उसका उसके वोटबैंक पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. बल्कि ऐसा होने पर इन निकम्मों से आजिज और अपने बच्चों के भविष्य के प्रति निराश हो चुके ग्रामीणों में ख़ुशी की लहर दौड़ जाएगी.

शनिवार, 10 जून 2017

किसानों की कर्जमाफी समस्या या समाधान

मित्रों, मान लीजिए आप एक गाँव में रहते हैं और बहुत दयालु हैं. गाँव में कोइ बेहद गरीब है और आप उसकी सहायता करना चाहते हैं तो आप क्या करेंगे? सामान्यतया तो आप भी वही करेंगे जो बांकी लोग करते हैं. उसको कुछ पैसे दे देंगे और वो उसको खा जाने के बाद फिर से आपके दरवाजे पर आ जाएगा. फिर यह सिलसिला बार-बार चलेगा मगर ऐसा करने से न तो आपको संतोष मिलेगा न ही उसकी स्थिति ही सुधरेगी. तो इसका क्या समाधान निकालेंगे? आप देखेंगे कि क्या उसको कहीं नौकरी  मिल सकती है या वो कोई व्यवसाय कर सकता है.
मित्रों, ठीक यही स्थिति इस समय हमारे देश में किसानों की है. सरकारें आती हैं और चली जाती हैं. लगभग हर सरकार ने किसानों के कर्ज माफ़ किए हैं लेकिन किसी ने भी कृषि को लाभकारी बनाने के बारे में नहीं सोंचा है. पहली बार केंद्र में एक ऐसी सरकार आई है जो इस दिशा में ठोस कदम उठाने के बारे में सोंच रही है. चूंकि संविधान की सातवीं अनुसूची में कृषि को राज्य सूची में रखा गया है इसलिए यह काम काफी मुश्किल है.
मित्रों, मान लीजिए केंद्र सरकार ने मिट्टी स्वास्थय कार्ड जारी करने की योजना बनाई या फसल बीमा योजना को विस्तार देने की घोषणा की लेकिन राज्य सरकार जिसको योजनाओं को लागू करना है ने पर्याप्त अभिरुचि नहीं दिखाई तो? केंद्र सरकार राज्य सरकारों से अपील ही कर सकती है उनमें जबरदस्ती अभिरुचि तो नहीं पैदा कर सकती.
मित्रों, फिर भी ऐसा नहीं कि केंद्र कुछ कर ही नहीं सकती. वो न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ा सकती है और विभिन्न उपायों द्वारा कृषि लागत को भी कम कर सकती है लेकिन इन दोनों के लिए उसको भारी मात्रा में सब्सिडी देनी पड़ेगी.
मित्रों, साथ ही केंद्र सरकार को चाहिए कि नए इलाकों में ज्यादा मुनाफा देनेवाली फसलों की खेती के लिए अनुसन्धान करवाए. उदाहरण के लिए अगर झारखण्ड के जामताड़ा में काजू की शौकिया खेती हो सकती है जो पूरे झारखण्ड या उसकी जैसी जलवायुवाले इलाकों में क्यों नहीं हो सकती? हमें याद है कि एक समय कटिहार और नौगछिया में केले और मखाने की खेती बिलकुल नहीं होती थी और तब वह इलाका बेहद गरीब था लेकिन आज उसका कायाकल्प को चुका है. नए इलाकों में ज्यादा लाभ देनेवाली फसलों की खेती करवाते समय यह भी ध्यान में रखना होगी कि उन फसलों को बाजार भी मिले. उदाहरण के लिए गोभी के मौसम में जब हाजीपुर में गोभी १५ रूपए किलो थी तब हाजीपुर से ३० किलो मीटर दूर महनार के किसान उसे ३ रूपये किलो बेचने के लिए मजबूर थे. जाहिर है कि उनको घाटा लग रहा था. कई बार किसान ऐसी स्थिति में फसल को बेचने के बदले सड़कों पर फेंकने लगते हैं.
मित्रों,  कहने का लब्बोलुआब यह है कि चाहे केंद्र लाख माथापच्ची कर ले लेकिन वो तब तक खेती को लाभकारी नहीं बना सकती जब तक उसको राज्य सरकारों का सहयोग नहीं मिलेगा. सिर्फ बजट आवंटित करने से अगर किसी क्षेत्र का भला हो जाता तो भारत आज भी विकासशील नहीं होता. सबसे बड़ी चीज है ईच्छाशक्ति और समन्वय. मगर ये होगा कैसे जब विपक्ष हिंसा फ़ैलाने पर आमदा हो? कई राज्यों में तो विपक्षी दलों की सरकार है और उन्होंने केंद्र के साथ सहयोग नहीं किया तो? हम जानते हैं कि अंत में जो लोग आज कृषि को लाभकारी बनाने के पवित्र कार्य में सबसे ज्यादा अडंगा लगा रहे हैं वे लोग ही कल को कहेंगे कि मोदी सरकार तो ऐसा नहीं कर पाई.
मित्रों, अंत में दो सुझाव और देना चाहूँगा. पहले यह कि केंद्र यह नहीं देखे कि कौन-सा कृषि विशेषज्ञ किस खेमे का है बल्कि अगर उसके सुझाव अच्छे हैं तो उन पर बेहिचक अमल करे और दूसरा सुझाव केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह जी के लिए है कि उनको अभी बाबा रामदेव के गाईड का काम करना बंद कर मध्य प्रदेश का दौरा करना चाहिए. बाबा कोई बच्चा नहीं हैं वे अकेले भी चंपारण का भ्रमण कर सकते हैं.

गुरुवार, 8 जून 2017

किसान आन्दोलन स्वतःस्फूर्त या साजिश?

मित्रों, इतिहास साक्षी है कि केंद्र में जब-जब भाजपा की सरकार बनती है देशविरोधी शक्तियों की जान पर बन आती है और वे अतिसक्रिय हो उठती हैं. वाजपेयी के समय भी ऐसा देखने को मिला था और अब एक बार फिर से दिख रहा है. कांग्रेसी नेताओं ने तो मोदी सरकार के आगमन के तत्काल बाद खुलेआम पाकिस्तान जाकर मोदी सरकार को अपदस्थ करने के लिए पाकिस्तान से सीधे-सीधे मदद ही मांग ली थी. हमें तभी ऐसा लगा था कि कांग्रेस पाकिस्तान से और चीन से भी मिली हुई है और इनसे उसको ठीक उसी तरह पैसे मिलते हैं जैसे हुर्रियत को कश्मीर में. तब भी मिलते थे जब केंद्र में उसकी सरकार थी और अब भी मिलते हैं जब वो विपक्ष में है वर्ना पाकिस्तान कांग्रेस की और किस तरह से मदद कर सकता है? जो पाकिस्तान कश्मीर में पत्थरबाजी के लिए पैसे दे सकता है वो कांग्रेस समर्थित किसान आन्दोलन को प्रायोजित क्यों नहीं कर सकता?
मित्रों, पहले जंतर-मंतर पर मूत्र-सेवन की नौटंकी और अब मध्य प्रदेश में हिंसा. अगर हम दोनों घटनाओं की टाईमिंग देखें तो हमें आसानी-से साजिश दिख जाएगी. २३ अप्रैल को जैसे ही दिल्ली नगर निगम के लिए मतदान समाप्त हुआ जंतर मंतर पर चल रहा फाइव स्टार आन्दोलन भी स्वतः समाप्त हो गया. ठीक उसी तरह अभी जब कांग्रेस केरल में सरेआम गाय काटकर और खाकर चौतरफा घिरी हुई थी तब मध्यप्रदेश में किसानों का आन्दोलन अचानक हिंसक हो उठा.
मिर्त्रों, इन किसान आन्दोलनों की एक और विशेषता है कि ये केवल वही हो रहे हैं जहाँ भाजपा की सरकार है. तो क्या सिर्फ उन्हीं राज्यों के किसान परेशान हैं जहाँ भाजपा का शासन है? खैर इन किसान आंदोलनों के आगे-पीछे चाहे जो भी हो लेकिन यह भी सच है कि आज भारत में कृषि खतरे में है जिसको बचाना चाहे जितना भी मुश्किल हो लेकिन बचाना तो पड़ेगा ही. यह भी सच है कि मोदी सरकार के लिए अगले लोकसभा चुनावों में कृषि और बेरोजगारी की समस्या गले की फांस बनने जा रही है क्योंकि इन दोनों को लेकर सरकार ने जो वादे किए थे उस दिशा में उसको कोइ खास सफलता मिलती दिख नहीं रही है. दूसरी बात कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए किसानों की कर्ज माफ़ी का वादा किया था जिसे उसने पूरा भी किया. स्वाभाविक था कि बांकी राज्यों के किसान भी इसकी मांग करते और ऐसा हुआ भी. आखिर यूपी के किसानों के साथ वीआईपी ट्रीटमेंट क्यों?  

मंगलवार, 6 जून 2017

प्रणव राय पर छापा अभिव्यक्ति पर हमला कैसे?

मित्रों,कहते हैं कि पत्रकारिता लोकतंत्र का वाच डॉग होती है. देश के बहुत सारे पत्रकार इस कहावत पर खरे भी उतरते हैं इसमें संदेह नहीं. लेकिन कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो मूलतः पत्रकार हैं नहीं. वे पहरा देनेवाले कुत्ते नहीं हैं बल्कि अपने निर्धारित कर्तव्यों के विपरीत चोरों के मदद करनेवाले कुत्ते बन गए हैं. ये रुपयों की बोटी पर पूँछ तो हिलाते ही हैं बोटी की दलाली में भी संलिप्त हैं. अब जाकर ऐसे ही एक पत्रकार के खिलाफ वैसी कानूनी कार्रवाई की गयी है जिसकी प्रतीक्षा हमें २०१० से ही थी जब नीरा रादिया प्रकरण सामने आया था.
मित्रों, जो लोग दूसरी तरह के डॉग हैं वे एकजुट होकर भारत में लोकतंत्र और अभिव्यिक्ति की आजादी के खतरे में होने का रूदाली-गायन करने में लग गए हैं लेकिन सवाल उठता है कि पत्रकार होने से क्या किसी को दलाली-धोखाधड़ी करने,देशद्रोहियों का समर्थन करने की असीमित स्वतंत्रता मिल जाती है? भारत के संविधान में तो ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया है.
मित्रों,सवाल यह भी उठता है कि कार्रवाई किसके खिलाफ की गयी है? क्या एनडीटीवी को या उसके किसी कार्यक्रम को बैन किया गया है? नहीं तो फिर यह कैसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हो गया? प्रणव राय ने धोखाधड़ी की,बैंक को नुकसान हुआ और उसने इसकी शिकायत सीबीआई से की. सीबीआई ने तो वही किया जो उसे करना चाहिए था. फिर चाहे आरोपी प्रणव राय हो या कोई और. ऐसा कैसे हो सकता है कि आम आदमी करे तो उसे जेल में डाल तो और ब्रजेश पांडे की तरह रसूख वाला करे तो आखें बंद कर लो? कोई जरूरी तो नहीं कि जैसा बिहार पुलिस करती है वैसा ही सीबीआई करे.
मित्रों,जो लोग आज सीबीआई पर सवालिया निशान लगा रहे हैं वे भूल गए हैं कि इसी सीबीआई की विशेष अदालत ने कुछ दिन पहले ही बाबरी-विध्वंस मामले में भाजपा के भीष्म पितामह सहित बड़े-बड़े नेताओं को दोषी घोषित किया है. अगर सीबीआई दबाव में होती तो क्या ऐसा कभी हो सकता था? हद है यार जब सीबीआई भाजपाईयों पर कार्रवाई करे तो ठीक जब आप पर करे तो लोकतंत्र पर खतरा? बंद करो यह दोगलापन और हमसे सीखो कि तमाम अभावों के बीच अपना अनाज खाकर पत्रकारिता कैसे की जाती है? हम इस समय वैशाली महिला थाना के पीछे घर बना रहे हैं और वो भी अपनी पैतृक संपत्ति बेचकर. हमने अपनी जमीन बेचना मंजूर किया लेकिन अपना जमीर नहीं बेचा. कबीर कबीर का रट्टा लगाना आसान है लेकिन कबीर बनना नहीं इसके लिए अपने ही घर को फूंक देना पड़ता है.

शनिवार, 3 जून 2017

टॉप हुए तो गए बेटा

मित्रों,हम बिहारी वर्षों से गाड़ियों के पीछे एक चेतावनी लिखी हुई पढ़ते आ रहे हैं-लटकले त गेले बेटा यानि अगर गाड़ी के पीछे लटके तो गए. मगर कहाँ? शायद यहाँ जाने से मतलब सुरधाम या अस्पताल होगा. खैर गाड़ियों के पीछे लटकना खतरनाक कर्म है इसलिए ऐसी चेतावनी उचित भी है लेकिन बिहार तो बिहार है और बतौर रवीश कुमार बिहार में आकर बहार की गाड़ी पंक्चर हो गयी है. तो इसलिए यहाँ रोजाना कुछ-न-कुछ उलट होता रहता है.
मित्रों,आपने भारत तो क्या पूरी दुनिया में ऐसा कोई देश-प्रदेश नहीं देखा होगा जहाँ टॉप करने वालों को अनिवार्य तौर पर जेल जाना पड़ता है. टॉप हुए नहीं कि हाथों में हथकड़ी लगी समझिए. मुश्किल यह है कि किसी-न-किसी को टॉप तो होना ही होता है. फिर जब पता चलता है कि टॉप करनेवाले को तो विषय का कुछ अता-पता ही नहीं है तो सरकार हर साल इंटर रिजल्ट के बाद कटते-कटते तोला से माशा हो चुकी अपनी नाक को बचाने के लिए टॉपर को ही जेल भेज देती है.
मित्रों,वैसे टॉप होने के लिए सिर्फ टॉपर दोषी हो ऐसा भी नहीं है. जहाँ इंटर गणित की कॉपी मिडिल स्कूल का हिंदी का टीचर जांचे वहां कोई भी टॉप हो सकता है और कोई भी फेल हो सकता है. शायद इसलिए लालू जी के दोनों पुत्रों ने कभी बिहार से मैट्रिक या इंटर पास करने का प्रयास नहीं किया. अभी तो अच्छे भले मंत्री हैं पता नहीं अपनी या फिर परीक्षक की गलती से टॉप-वॉप कर गए तो जेल तो जाएँगे ही मंत्री-पद से भी हाथ धोना पड़ेगा.
मित्रों,वैसे एक सलाह आपके लिए भी है. या तो आप खुद ही मैट्रिक-इंटर में पढ़ रहे होंगे या फिर हो सकता है कि आपके बच्चे पढ़ रहे हों. तो मैं कह रहा था कि अगर आपके बच्चे ने जेईई वगैरह क्रैक किया हो या इस तरह की क्षमता रखता हो तो कदापि बिहार बोर्ड से उसका फॉर्म न भरवाएं. क्योंकि अगर उसको हिंदी या उर्दू के मिडिल स्कूल के टीचर ने गणित,भौतिकी या रसायन शास्त्र में फेल कर दिया तो आपके बच्चे का तो भविष्य ही बर्बाद हो जाएगा. फिर दौड़ते रह जाईएगा बिहार बोर्ड के दफ्तर में मगर होगा कुछ नहीं.
मित्रों,आप कह सकते हैं कि जब बिहार में हमेशा इतना कुछ होता रहता है तो इसके लिए कोई-न-कोई तो दोषी होगा. तो आपको बता दें कि अपने नीतीश कुमार तो खुद को कभी दोषी मानते ही नहीं हैं इसलिए वे दोषी नहीं हैं. हर विवाद के बाद वे किसी लालकेश्वर या परमेश्वर को बलि का बकरा बना देते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि लालकेश्वर और परमेश्वर खुद उनकी नाक के बाल क्यों थे? वैसे अगर आपके बच्चे भी मैट्रिक-इंटर में बिहार बोर्ड से पढ़ रहे हों तो उनको कम पढने के लिए बोलिए क्योंकि कहीं गलती से टॉप कर गए तो आप भी फजीहत में पड़ जाईएगा. वैसे जब हिंदी-उर्दू का टीचर गणित की कॉपी जांचेगा तो हो सकता है कि आपका बेटा कॉपी में फ़िल्मी गाना लिखकर भी टॉप कर जाए. भैया बिहार में तो बहार है इसलिए कभी भी किसी के साथ भी ऐसा हादसा हो सकता है.

शुक्रवार, 2 जून 2017

क्या गोहत्या ही असली धर्मनिरपेक्षता है?

मित्रों,क्या आपको पता है कि दुनिया में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा क्या है? दुनिया में राज्य का कोई घोषित राजकीय धर्म न होना और सभी धर्मों के प्रति सर्वधर्मसमभाव रखना ही धर्मनिरपेक्षता होती है. लेकिन अपने भारत में कथित धर्मनिरपेक्षतावादी दलों की मानें तो हिंदुविरोधी कृत्यों में संलिप्त रहना ही धर्मनिरपेक्षता मानी जानी चाहिए.. दुनिया के किसी भी दूसरे देश में ऐसा नहीं होता कि बहुसंख्यक धर्म वाले की उपेक्षा की जाए और अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए दीवानगी की हद तक जाकर कुछ भी कर गुजरने की तत्परता राजनैतिक दलों में रहे. 
मित्रों,वामपंथी तो शुरू से ही हिन्दूविरोधी रहे हैं लेकिन सवाल उठता है कि इन दिनों उस कांग्रेस पार्टी को क्या हो गया है जिसे आज़ादी की लडाई के समय जिन्ना सहित भारत के तमाम मुसलमान हिन्दुओं की पार्टी मानते थे. इतिहास गवाह है कि आजादी की लडाई के समय कांग्रेस ने गोहत्या रोकने को भी एक मुद्दा बनाया था और हर शहर में इसके लिए गोरक्षिणी सभा की स्थापना की थी. इतना ही नहीं पंजा छाप से पहले गाय और बछड़ा ही कांग्रेस का चुनाव निशान था. फिर ऐसा क्या हो गया कि आज कांग्रेस के नेता सरेआम गाय की हत्या करके गोमांस का भोज आयोजित करने लगे हैं? क्या ऐसा उस आलाकमान के कहने पर किया जा रहा है जो विदेश से आई हुई गोभक्षक विधर्मी है? क्या कांग्रेस पार्टी को अब कभी भी बहुसंख्यकों का वोट नहीं चाहिए? क्या कांग्रेस ४४ सीटों से संतुष्ट नहीं है और ४ पर आना चाहती है?
मित्रों,हालाँकि कांग्रेस ने केरल के कई उन कांग्रेस नेताओं को पार्टी से निलंबित कर दिया है जो उस दिन लाईव गोहत्या कार्यक्रम में सहभागी थे लेकिन क्या यह सही नहीं है इसी कांग्रेस की सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दिया था कि राम तो कभी हुए ही नहीं? क्या इसी कांग्रेस ने हिन्दुओं के प्रति भेदभाव करनेवाला सांप्रदायिक अधिनियम नहीं बनाया था? क्या इसी कांग्रेस ने भगवा आतंकवाद का नकली हौवा खड़ा करने की कुत्सित कोशिश नहीं की थी?
मित्रों,पिछले १३ सालों के कांग्रेस के कारनामों पर अगर हम सरसरी तौर पर भी नजर डालें तो पाते हैं कि कांग्रेस एक हिन्दूविरोधी राजनैतिक दल है जो भारत से उस महान हिन्दू धर्म को ही समाप्त कर देना चाहती है जिसके चलते सदियों से दुनियाभर में भारत का गौरव रहा है. हमारा दर्शन वहां से शुरू ही होता है जहाँ जाकर दुनिया के तमाम दूसरे धर्म मौन हो जाते हैं. हिन्दू धर्म पर हमला तो सन ७१२ ई. से ही जारी है जब मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्ज़ा किया था और हिन्दुओं का भयकर नरसंहार किया था. उसके बाद सैंकड़ों बार आतताइयों ने हिंदुस्तान की धरती को हिन्दुओं के खून से रक्तरंजित किया लेकिन कुछ बात है कि वे लाख अत्याचार ढाकर भी हिन्दू धर्म को मिटा नहीं पाए. आज कहाँ हैं गोरी,तैमूर,ऐबक,बलबन,खिलजी,बाबर आदि के वंशज? कोई नामोनिशान तक बचा उनका? क्या कांग्रेस भी अपने आपको गुलाम वंश,खिलजी वंश,तुगलक वंश,मुग़ल वंश की तरह  सिर्फ इतिहास के पन्नों में देखना चाहती है?