मंगलवार, 9 जनवरी 2018

बहरीन में राहुल गाँधी का बेहया भाषण

मित्रों, हमारे बुजुर्गों ने फ़रमाया है कि किसी भी संगठन का चेहरा बदल जाने से कोई जरुरी नहीं है कि उसका चाल और चरित्र भी बदल जाए. उदाहरण के लिए अलकायदा या लश्कर का कमांडर कोई भी रहे करेगा तो वही जो उनका संगठन करता आया है. कुत्ता जब भी पेशाब करेगा तो खम्भे पर ही चाहे वो विलायती ही क्यों न हो. ठीक यही बात कांग्रेस के ऊपर भी लागू होती है. जब माँ अध्यक्ष थी तब पार्टी देशविरोधी गतिविधियों में लीन थी और आज जब बेटा अध्यक्ष बन गया है तब भी पार्टी वही कर रही है.
मित्रों, क्या आपको याद है कि इससे पहले किसी विपक्षी नेता ने विदेश जाकर देश के खिलाफ कोई बयान दिया है या देश के खिलाफ कोई अभियान छेड़ा है? दरअसल कांग्रेस मोदी विरोध और भारत विरोध का अंतर पूरी तरह से भूल गई है. नहीं तो क्या कारण था कि राहुल गाँधी विदेशी धरती पर जाकर यह कहते कि इस समय भारत में संकट की स्थिति है और प्रवासी भारतीय देश की मदद कर सकते हैं. पता नहीं राहुल जी को बहरीन से कैसी मदद चाहिए. कहीं उनको वैसी मदद तो नहीं चाहिए जैसी मदद मांगने मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान गए थे?
मित्रों, राहुल जी का कहना है कि वे ऐसे भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते, जहां देश का हर नागरिक खुद को देश का हिस्सा न समझे. राहुल जी कल्पना तो हम भी नहीं करना चाहते लेकिन यही सच है कि एक खास विचारधारा और एक खास मजहब में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो खुद को भारत का नागरिक नहीं समझते. उनको कल तक राष्ट्र गीत से परेशानी थी, आज राष्ट्र गान से है और कल भारत राष्ट्र से होगी. लेकिन सवाल उठता है कि क्या इसके लिए राष्ट्रवादी दोषी हैं? अगर कोई वानी सरकारी सुविधाओं से लाभ उठाकर अलीगढ मुस्लिम विवि में पीएचडी की पढाई करने के बावजूद हिजबुल में शामिल हो जाता है या कोई उमर खालिद वर्षों सरकारी सब्सिडी पर जेएनयू में गुलछर्रे उड़ाने के बाद भी भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार का नारा लगाता है तो इसके लिए कौन दोषी है? राहुल जी क्या किसी के ह्रदय में जबरदस्ती देशप्रेम पैदा किया जा सकता है? क्या आपके ह्रदय में ही पैदा किया जा सकता है? कदापि नहीं. इसी तरह से किसी के ह्रदय में जबरदस्ती देश के प्रति नफरत भी नहीं भरी जा सकती बल्कि प्रेम हो या नफरत ये तो उधो मन माने की बात होती है. अब कोई अगर अपने को देश का हिस्सा नहीं समझता है तो हमारी पहली कोशिश होती है समझाने की, सुविधा देकर मुख्य धारा में लाने की और अगर फिर भी वो नहीं मानता तो न माने अपनी बला से. और अगर फिर वो एक कदम आगे बढ़कर किसी देशविरोधी गतिविधि में संलिप्त पाया जाता है तो फिर हम देश की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं. 
मित्रों, राहुल जी फरमाते हैं कि भारत में रोजगार सृजन पिछले आठ सालों के निम्नतम स्तर पर है. सही है लेकिन इस साल ऐसी स्थिति नहीं रहेगी और रोजगार के इतने अवसर पैदा होंगे जितने पहले कभी किसी खास वर्ष में पैदा नहीं हुए. दरअसल राहुल जी अधूरा सच बोल रहे हैं. उनको सिर्फ खाली गिलास दिख रहा है या फिर वे जानबूझकर सिर्फ खाली गिलास को ही देखना और दिखाना चाहते हैं.
मित्रों, सच्चाई तो यह है कि आज तक भारत में जितना भी विदेशी पूँजी निवेश हुआ है उसका आधा सिर्फ पिछले ३ सालों में हुआ है. जाहिर है कि पैसा आ रहा है तो रोजगार भी आएगा ही. यह जानते हुए कि फैक्ट्रियों को स्थापित करने में समय लगता है राहुल गाँधी धूर्तता का प्रदर्शन करते हुए सरकार को बिलकुल भी समय नहीं देना चाहते.
मित्रों, राहुल जी को यह तो दिख रहा है कि देश में बैंक क्रेडिट ग्रोथ पिछले 63 सालों के निम्नतम स्तर पर है लेकिन यह नहीं दिख रहा कि इस समय नई रेल लाईनों के निर्माण, रेल लाईनों के दोहरीकरण, राष्ट्रीय उच्च पथ के निर्माण, शिपिंग क्षमता वृद्धि, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की गति पिछली सरकार के मुकाबले दोगुनी है. वे इतनी हारों के बाद भी जिद पर अड़े हैं कि नोटबंदी से देश की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा है. झटका तो लगा जरुर है लेकिन कालेधन की अर्थव्यस्था को लगा है न कि देश की अर्थव्यवस्था को.
मित्रों, राहुल जी फरमाते हैं कि सड़कों पर लोग गुस्से में दिखाई दे रहे हैं. विभाजनकारी ताकतें तय कर रही हैं कि लोगों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं. चारों ओर नफरत फैलाई जा रही है. कैसी नफरत भाई? जातीय विभाजन तो कांग्रेस ही कर रही है. गोहत्या पर तो रोक लगाने की बात स्वयं गाँधी जी करते थे और यही कारण था कि संविधान के अनुच्छेद ४८ में इसकी व्यवस्था भी की गई है. तो क्या राहुल अब हिन्दू नहीं रहे? गाँधी तो वो कभी नहीं थे. उनका जनेऊ कहाँ गया? कहीं उन्होंने उसका पाजामे का नाडा तो नहीं बना लिया? आखिर कोई भी सच्चा हिन्दू और उसमें भी ब्राह्मण गोहत्या का समर्थन कैसे कर सकता है?
मित्रों, राहुल जी का कहना है कि दलितों को पीटा जा रहा है, पत्रकारों को धमकाया जा रहा है और जजों की रहस्यमयी हालतों में मौत हो रही है. इक्का-दुक्का घटनाओं को चलन कैसे माना जा सकता है? लड़ाई-झगडे में कभी एक पक्ष भारी पड़ता है तो कभी दूसरा. कौन-सा जज मर गया पता नहीं. क्या पहले जज नहीं मरते थे,अमर होते थे? पत्रकार अगर कानून तोड़ेंगे तो फिर कानून उनको तोड़ेगा क्योंकि वे कानून से ऊपर तो होते नहीं हैं.
मित्रों, जब भी कोई किसी को धमकाता है कानून अपना काम करता है. कई बार तो प्रधानमंत्री ने बडबोले नेताओं को चुप रहने की हिदायत दी है. क्या राहुल बताएँगे कि जब इमरान मसूद ने पीएम को बोटी-बोटी करके काटने की धमकी दी थी तब उन्होंने उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की और उसको कांग्रेस का टिकट क्यों दे दिया?
मित्रों, क्या इमरान मसूद जैसे बयानों से देश में फिर से भाईचारा आएगा और अहिंसा फैलेगी? अगर राहुल ऐसा समझते हैं तो हमें उनकी समझ पर तरस आता है. क्या गुजरात में पटेल हिंसा और महाराष्ट्र में दलित हिंसा को बढ़ावा देकर राहुल जी ने देश में सहिष्णुता को बढ़ावा दिया है?
मित्रों, मेरा मानना है कि राहुल जी को अगर अपने देश की सरकार से कोई शिकायत थी तो उनको संसद में सरकार को घेरना चाहिए था न कि विदेश में जाकर अपने ही देश के खिलाफ माहौल बनाना चाहिए था. लेकिन उनकी पार्टी संसद को तो चलने ही नहीं देती फिर चर्चा कैसे होगी. घर के झगडे को घर में ही निपटाया जाता है दूसरा देश इसमें क्या कर लेगा सिवाय दो के झगडे से लाभ उठाने के? बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि कांग्रेस बेवफा तो पहले से ही थी लेकिन अब लगता है कि वो बेहया भी हो गई है और अपने-पराए का अंतर भूल गई है.

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